संस्कृत भारत की आत्मा और विश्व की सर्वाधिक वैज्ञानिक भाषा है
विश्व के अनेक राष्ट्र जो अपने राष्ट्र के प्रति समर्पित होने के कारण विश्व में उदाहरण के रूप में जाने जाते हैं वे अपनी भाषा के प्रति समर्पित हैं।
नई दिल्ली [डॉ. कृष्ण चंद्र पांडे]। किसी भी राष्ट्र की पहचान उसकी भाषा एवं संस्कृति से होती है। राष्ट्र की भाषा ही उसकी शक्ति होती है। भाषा ही समाज को अपने राष्ट्र के साथ जोड़ती है। भाषा के कारण न केवल संस्कृति का संरक्षण होता है, अपितु राष्ट्र के साथ अनन्य संबंध भी स्थापित होता है। विश्व के अनेक राष्ट्र जो अपने राष्ट्र के प्रति समर्पित होने के कारण विश्व में उदाहरण के रूप में जाने जाते हैं, वे अपनी भाषा के प्रति समर्पित हैं। अपनी भाषा के प्रति स्वाभिमान, राष्ट्र के प्रति स्वाभिमान को जागृत करता है।
इस संबंध में इजरायल के विषय में यह जानना आवश्यक है कि इजरायल को पुन: राष्ट्र के रूप में स्थापित करने का काम वहां की हिब्रू भाषा ने किया है। हिब्रू भाषा मृतप्राय हो चुकी थी। केवल धार्मिक ग्रंथों की भाषा मात्र थी। हिब्रू भाषा को पुनर्जीवित करने का संकल्प यहूदी समाज के मन में था और वे उस संकल्प को लेकर आगे बढ़े और उसे पुनर्जीवित भी किया। आज इजरायल विश्व के एक शक्तिशाली और समर्थ राष्ट्र के रूप में हमारे समक्ष खड़ा है। भारत के विषय में यदि हम विचार करें तो हम भारत की सांस्कृतिक विरासत और इतिहास जिस भाषा में पाते हैं वह संस्कृत है। संस्कृत भाषा का साहित्य विश्व का सबसे प्राचीन और समृद्ध साहित्य है। यह न केवल भारत को एक सूत्र में पिरोता है, अपितु संपूर्ण विश्व को मानवता की शिक्षा देता है। संस्कृत साहित्य ही भारतीय संस्कृति का आधार है। भारतीय संस्कृति हमें तेरे और मेरे के भाव से मुक्त कर विश्व को एक परिवार के रूप में मानती है।
अयं निज: परोवेति गणना लघु चेतसाम।
उदार चरितानाम तु वसुधैव कुटुंबकम।।
इस उदार भाव को समाज में स्थापित करने का कार्य संस्कृत साहित्य के माध्यम से हो सकता है। संपूर्ण विश्व को एक परिवार के रूप में स्थापित करने का कार्य यदि कोई भाषा कर सकती है तो वह संस्कृत भाषा है। संस्कृत कवियों ने भारतीय एकात्मता को अपने ग्रंथों में दर्शाया है।
संस्कृत न केवल भारतीय ज्ञान विज्ञान की भाषा है, अपितु भारत की आत्मा संस्कृत ग्रंथों में निहित है। भारत की चिति को समझने के लिए भारतीय साहित्य का अध्ययन आवश्यक है। वेद, उपनिषद, आरण्यक, पुराण, धर्मग्रंथ, रामायण, महाभारत, नाट्यशास्त्र, दर्शनशास्त्र कामसूत्र, अष्टाध्यायी आदि भारतीय ज्ञान मीमांशा के अनुपम ग्रंथ हैं। भारत की सांस्कृतिक धरोहर हजारों वर्षो से अटूट चली आ रही है। जैसे हिमालय से गंगा निकलती है और निरंतर बहती चली जाती है उसी प्रकार हिमालय से ही हमारे सांस्कृतिक दार्शनिक और आध्यात्मिक स्नोत उभरते हैं।
संस्कृत भाषा की शक्ति से भयभीत होकर ही मैकाले ने इस भाषा को समाज से दूर करने का कुत्सित षड्यंत्र रचा और भारतीय समाज उस कुचक्र में फस गया। आज देश में जिस प्रकार का वातावरण दिखाई दे रहा है उसका मूल कारण हमारा अपनी भाषा से दूर होना है। इस ओर अगर हमारा ध्यान नहीं गया तो स्थिति और भी भयावह हो सकती है, क्योंकि प्रत्येक भाषा का अपना संस्कार होता है। भाषा में उस देश की मिट्टी की खुशबू होती है। वह जहां जहां फैलती है समाज के मन मस्तिष्क को अपनी महक से आप्लावित कर लेती है और समाज अपने देश की मिट्टी की खुशबू को भूल जाता है। उसे अपने देश की मिट्टी से बदबू आने लगती है। हमारे देश में आज यह प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है। वैश्वीकरण की दुहाई देकर भले ही हम इससे मुंह मोड़ लें, परंतु यह स्थिति समाज को देश की मिट्टी और देश की परंपराओं से दूर ले जा रही है।
ईसाई धर्म प्रचारक इस बात को शीघ्र ही समझ गए थे कि जब तक भारत में संस्कृत भाषा का प्रभाव रहेगा, तब तक इस देश में ईसाई धर्म का काम नहीं किया जा सकता। एक ब्रिटिश लेखक ने वर्ष 1815 में धर्म प्रचार संबंधी अपना अनुभव लिखा है। उससे ज्ञात होता है कि ईसाई धर्म के प्रचार में सबसे बड़ी बाधा संस्कृत भाषा और उसमें लिखा हुआ साहित्य है। वह लिखते हैं, ‘पिछले तीन दशकों में हमने केवल 300 लोगों का ही धर्म परिवर्तन कराया है। यहां की शिक्षा व्यवस्था संस्कृत भाषा (अपनी मूल भाषा) में होने के कारण अपने धर्म और परंपराओं में दृढ़ आस्था है।
जब तक पाश्चात्य भाषा में शिक्षा का प्रचार नहीं होगा, हिंदुओं का धर्म परिवर्तन करना कठिन है।’ इसी को ध्यान में रखकर मैकाले ने कहा था कि थोड़ी सी अंग्रेजी शिक्षा से ही बंगाल में कोई मूर्ति पूजक नहीं रह जाएगा। ईसाई पादरी मैकाले की इस आशा से पूर्ण रूप से सहमत थे। वर्ष 1835 में डॉक्टर डफ ने घोषणा की थी कि जिस जिस दिशा में अंग्रेजी शिक्षा प्रगति करेगी, उस उस दिशा में हिंदुत्व के अंग टूटते जाएंगे और धीरे-धीरे हिंदुत्व का कोई भी अंग साबित नहीं रहेगा।’
भारत विश्व का सबसे प्राचीन राष्ट्र होने के कारण ज्ञान विज्ञान का आदि राष्ट्र है। शिक्षा के प्राचीनतम विश्वविद्यालय नालंदा और विक्रमशिला जैसे विशालतम विश्वविद्यालय भारत में थे। संपूर्ण विश्व के लिए ये शिक्षा के केंद्र रहे। विश्व भर से ज्ञान पिपासु यहां आकर अपनी ज्ञान क्षुधा को शांत करते रहे। आज विश्व में विविध प्रकार के ज्ञान-विज्ञान की जो चमक दिखाई देती है उसके बीज भारत से ही दुनिया भर में गए। इसीलिए भारत को विश्व गुरु कहा जाता था।
एक से नौ तक के अंक, शून्य और दशमलव की पद्धति इन सबका आविष्कार भारत में ही हुआ। दशमलव पद्धति का ज्ञान आर्यभट्ट और ब्रह्मगुप्त के समय भारत में बहुत प्रचलित था। बौद्ध धर्म प्रचारकों के द्वारा यह ज्ञान चीन पहुंचा। बीजगणित का विकास भारत में हुआ, और यहां से यूनान पहुंचा और अरब से होते हए यह यूरोप पहुंचा। ज्योतिष और गणित के प्राचीन आचार्यो में आर्यभट्ट का स्थान भारत में ही नहीं, अपितु सारे विश्व में सबसे ऊंचा है। आर्यभट्ट ने ही सबसे पहले संसार को यह ज्ञान दिया कि सूर्य स्थिर है और पृथ्वी उसके चारों ओर घूमती है जिससे दिन और रात होते हैं। उन्होंने ही ग्रहण की भविष्यवाणी करने की विधि निकाली। आर्यभट्ट के बाद दूसरे आचार्य ब्रह्मगुप्त हुए जिन्होंने भारत की ज्योतिष विद्या को संगठित रूप दिया।
(लेखक-आकाशवाणी में सलाहकार है)।
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