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    संघ का लक्ष्य भारत को विश्वगुरु बनाना सत्य और तथ्य- मोहन भागवत

    संघ के बारे में कई चर्चाएँ होती हैं जिनमें प्रामाणिक जानकारी का अभाव होता है। इसलिए संघ की सत्य जानकारी देना आवश्यक है। संघ का उद्देश्य विश्व में प्रतिस्पर्धा करना नहीं बल्कि भारत को विश्वगुरु बनाना है। भारत की सार्थकता विश्वगुरु बनने में है। हेडगेवार ने 1925 में संघ की स्थापना की जिसका उद्देश्य हिंदू समाज को संगठित करना है। हिंदुत्व का अर्थ है समावेशिता।

    By Digital Desk Edited By: Prince Gourh Updated: Tue, 26 Aug 2025 10:00 PM (IST)
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    संघ का लक्ष्य भारत को विश्वगुरु बनाना सत्य और तथ्य (फाइल फोटो)

    डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली। संघ के बारे में बहुत सी चर्चाएं चलती हैं। लेकिन उस चर्चा में जानकारी कम होती है. जो होती है वह प्रामाणित नहीं है। इसलिए अपनी तरफ से संघ की सत्य और सही जानकारी देना जरूरी है। उसके बाद निष्कर्ष का सभी का अपना अधिकार है। सौ साल की संघ की यात्रा हो रही है। संघ चलाने का एक उद्देश्य है।

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    विश्व में कई देश हैं, उनके साथ प्रतिस्पर्धा शुरू करना इरादा नहीं है। स्वामी विवेकानंद का कथन है- प्रत्येक राष्ट्र को एक मिशन पूरा करना होता है। प्रत्येक राष्ट्र का विश्व में योगदान होता है, जो करना होता है। भारत का भी अपना योगदान है।

    विश्व के किसी देश को बड़ा होना है तो अपने बड़प्पन के लिए नहीं, बल्कि उसके बड़े होने से विश्व के जीवन में जो आवश्यक गति होनी चाहिए, वह पैदा होती है। इसलिए संघ के निर्माण , चलने का प्रयोजन भारत है। संघ की सार्थकता भारत के विश्वगुरु बनने में है। हम वैभव के शिखर पर थे, स्वतंत्र थे, आक्रमण हुए, परतंत्र हुए और दो बार बड़ी परतंत्रता झेलकर फिर स्वतंत्र हुए।

    अपने देश को बड़ा करना है तो स्वतंत्रता आवश्यक है। इसीलिए स्वातंत्रय के लिए प्रयास शुरू हुए। उसके लिए 1857 में युद्ध हुआ। वह विफल रहा। उसके बाद देश में विचार शुरू हुआ। यह हमारा देश है, हमारी जनसंख्या प्रचंड है, राजा-महाराजा हैं और हजारों मील से आकर मुट्ठी भर लोग देश को चला रहे थे। बहुत आशावादी लोगों को लगा कि एक बार हार गए तो क्या हुआ, फिर से ऐसा ही प्रयास करना चाहिए। सशस्त्र क्रांति, फिर क्रांतिकारियों की धारा बह निकली।

    उस धारा से में जो निकले, वह आज भी हमारे प्रेरणास्त्रोत हैं। परंतु उस धारा का प्रयोजन स्वतंत्रता मिलने के बाद समाप्त हो गया। वीर सावरकर उस धारा के दैदीप्यमान नक्षत्र थे। उन्होंने स्वतंत्रता के बाद पुणे में अपने उस क्रांतिकारी अभियान का विधिवत समापन कर दिया। लेकिन कुछ लोगों को लगा कि हमें राजनीति का पता नहीं था। लोगों में राजनीतिक जागृति नहीं है, केवल सैनिक लड़ेंगे तो काम नहीं चलेगा, इसलिए आम जन को भी खड़ा होना चाहिए। राजनीतिक उपक्रम करना चाहिए।

    इंडियन नेशनल कांग्रेस के नाम से वह धारा चली। उसी में से अनेक राजनीतिक प्रवाह निकले। यह इतने सारे राजनीतिक दल हमारे देश में हैं। स्वतंत्रता के पहले स्वतंत्रता के लिए लोगों की राजनीतिक जागृति लक्ष्य था, और वह अच्छी तरह से हो गई। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इस धारा को जिस प्रकार प्रबोधन करना चाहिए, उस प्रकार होता तो आज का दृष्य कुछ और होता। दोषारोपण करने की बात नहीं, यह तथ्य है। एक अन्य धारा थी कि हमारे समाज की कुछ कमियां हैं, रुढि़वाद, अंधविश्वास है। उसे ठीक करना चाहिए।

    उसके लिए सामाजिक आंदोलन चले। आज भी चल रहे हैं। एक और धारणा थी कि पहले अपने मूल पर चलें, जैसे कि स्वामी विवेकानंद, स्वामी दयानंद। हेडगेवार इन सभी धाराओं में काम कर चुके थे। उनको हम जन्मजात देशभक्त कहते हैं, क्योंकि बचपन से ही उनके मन में यह चिंगारी थी कि देश के लिए जीना-मरना चाहिए। स्वयं बचपन में ही अनाथ हो गए थे, दरिद्रता में पले, लेकिन देश के लिए काम करना नहीं छोड़ा।

    सभी धाराओं से चर्चा के बाद उनको विचार आया कि समाज के दुर्गुणों को दूर किए बिना हमारे उपाय अधूरे रहेंगे। एक बात स्वत: सिद्ध है कि देश को बड़ा करना है तो नेताओं के भरोसे, संगठनों के भरोसे नहीं, बल्कि सभी को लगना पड़ता है। पूरे समाज के प्रयास से कोई भी परिवर्तन आता है। आज हम देश को बड़ा करना चाह रहे हैं तो किसी के भरोसे छोड़कर नहीं होगा।

    हेडगेवार ने कई प्रयोग किए, उसके यशस्वी होने के बाद तरुण साथियों से चर्चा की और 1925 की विजयादशमी को घोषणा की कि आज से यह संघ हम प्रारंभ कर रहे हैं। उद्देश्य कहा कि संपूर्ण हिंदू समाज का संगठन। अब यहां प्रश्न खड़ा होता है कि बाकी लोगों को क्यों छोड़ा? पहली बात है कि जिन्हें आजकल हम हिंदू समाज कहते हैं, हिंदू नाम जिसे लगाना है, उसे इस देश के प्रति जिम्मेदार रहना पड़ेगा।

    हिंदू मतलब यह विश्वास करे के अपने-अपने रास्ते पर श्रद्धा रखो, दूसरों को भी मत बदलो। दूसरों का भी सम्मान करो, रास्तों को लेकर झगड़ा मत करो। यह परंपरा और संस्कृति जिनकी है, वह हिंदू है। यह परंपरा क्यों बनी, इसका कारण भारतवर्ष है। इसीलिए इस मातृभूमि के लिए भक्ति है। जब संघ शुरू हुआ, तब सभी अपने को हिंदू नहीं कहते थे। आज भी कुछ लोग नहीं कहते। हिंदू के हम कई प्रकार मानते हैं। जो जानते हैं, वह हिंदू है और गौरव करते हैं।

    कुछ लोग गौरव नहीं करते। कुछ लोग जानते हैं, लेकिन किसी कारण नहीं कहते। और जो जानते नहीं हैं कि वह हिंदू हैं, लेकिन ऐसे लोगों को भी हिंदवी या भारतीय कहने से बुरा नहीं लगता। सनातन को भी कुछ लोग स्वीकार करते हैं। यह समानार्थी है। चालीस हजार वर्षों से भारतवर्ष के लोगों का डीएनए एक ही है। हमारी संस्कृति मिलजुलकर रहने की है। हम यह मानते ही नहीं कि एक होने के लिए यूनिफार्म होना आवश्यक है।

    डायवर्सिटी में भी यूनिफार्मिटी है। जो अपने आप को हिंदू कह रहे हैं, उनको संगठित करो, उनका जीवन अच्छा बनाओ तो किसी कारण जो अपने आप को हिंदू नहीं कहते, वह कहने लगेंगे। वह होने लगा है। और जो भूल गए, उनको भी याद आ जाएगा, लेकिन करना है संपूर्ण समाज का संगठन। हिंदू कहने से हिंदू बनाम सब नहीं होता। हिंदुत्व का मतलब ही समावेशिता है। मनुष्यों को बनाने की मैथोडलाजी का नाम है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ।

    अनेक क्षेत्रों में स्वयंसेवक काम कर रहे हैं। स्वयंसेवकों का संघ से संबंध अटूट है, जन्म जन्मांतर का है। पूरे भारत में सबको संगठित करने के लिए संघ है। अलग मत होना अपराध नहीं है, यह प्रकृति से मिला गुण है। अलग-अलग विचार सुनने के बाद जब सहमति बनती है, तो उसमें से प्रगति निकलती है। हमें पूरे समाज का संगठन करना है। संघ के मन में यह बात है कि यदि ऐसा लिखा गया कि संघ के कारण देश बच गया तो यह हमारे लिए ठीक नहीं है।

    हम यह नहीं करना चाहते। देश का जिम्मा, हम सभी का मिलकर है। हम जैसे होंगे, वैसे हमारे प्रतिनिधि होंगे, वैसी हमारी पार्टियां होंगी, वैसे हमारे नेता होंगे। हम अच्छे बनें। हम हिंदू राष्ट्र की बात करते हैं तब भी प्रश्न खड़े हो जाते हैं, क्योंकि हम राष्ट्र का ट्रांसलेशन करते हैं नेशन। वह पश्चिमी कंसेप्ट है। नेशन के साथ स्टेट भी जुड़ता है, लेकिन राष्ट्र के साथ स्टेट आवश्यक नहीं है। हमारा राष्ट्र पहले से भी था। एक राष्ट्र के नाते हम लड़े हैं।

    हम एक राष्ट्र हैं। हम सर्वदा स्वतंत्र नहीं थे, लेकिन हम एक राष्ट्र थे। इसलिए जब हिंदू राष्ट्र कहते हैं, तो ऐसा नही कि किसी को छोड़ रहे हैं।। संघ किसी विरोध या प्रतिक्रिया में नहीं निकला है। स्वस्थ होना शरीर की स्वाभाविक अवस्था है, संगठित होना समाज की स्वाभाविक अवस्था है। यही काम संघ सौ साल से कर रहा है।किसी स्वयंसेवी संगठन का इतने लंबे समय तक इतना कड़ा और कटु विरोध नहीं हुआ। क्या-क्या नहीं हुआ।

    झूठे आरोप मढ़े गए, हत्याएं हुईं, संघर्ष हुआ। अपने को बचाने के लिए जितना लड़ना पड़ा, हम लड़ते थे, लेकिन हमको बताया गया कि यह अपना ही समाज है। हमने अपनी पद्धति में रखा है कि संघ को स्वयंवेसक चलाएंगे। हम परावलंबी नहीं, स्वावलंबी हैं। हमारे स्वयंसेवक वर्ष में एक बार गुरु दक्षिणा देते हैं, वह चंदा नहीं करते। संघ को चलाने के लिए संघ किसी के सामने हाथ नहीं फैलाता। स्वयंसेवकों की निष्ठा और त्याग के बल पर हम यहां पहुंचे हैं। इस संघ को हमें आगे ले जाना है, क्योंकि भारत को आगे ले जाना है।

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