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खेतों में सोना मिलने का सपना दिखाकर ले जाते थे मॉरीशस, फिर सहने पड़ते थे जुल्म

आज अपनी स्वतंत्रता की पचासवीं वर्षगांठ मना रहे मॉरीशस में किसी ने नहीं सोचा होगा कि वहां मजदूर बनकर आए भारतीय गिरमिटिये ही उसकी आजादी के नायक बनेंगे।

By Kamal VermaEdited By: Published: Mon, 12 Mar 2018 11:20 AM (IST)Updated: Mon, 12 Mar 2018 11:25 AM (IST)
खेतों में सोना मिलने का सपना दिखाकर ले जाते थे मॉरीशस, फिर सहने पड़ते थे जुल्म
खेतों में सोना मिलने का सपना दिखाकर ले जाते थे मॉरीशस, फिर सहने पड़ते थे जुल्म

नई दिल्ली [पीयूष रंजन झा] अफ्रीका महाद्वीप का देश मॉरीशस आज अपनी आजादी की स्वर्ण जयंती मना रहा है। मॉरीशस के नेताओं ने अपनी आजादी का दिन 12 मार्च का इसलिए चुना, क्योंकि उनके जेहन में अपनी आजादी के संघषों के प्रेरणास्नोत महात्मा गांधी और उनके द्वारा 12 मार्च 1930 को निकाला गया दांडी मार्च था। गन्ना खेती मॉरीशस की अर्थव्यवस्था की रीढ़ रही है और जब 1834 में दास प्रथा की समाप्ति के बाद वहां गन्ना खेती के लिए मजदूरों की किल्लत हुई तब वहां की अंग्रेजी हुकूमत सस्ती मजदूरी के लिए भारत के गिरमिटिया मजदूरों को मॉरीशस ले गई। 1834 से शुरू हुई यह प्रथा 12 मार्च 1917 को कानूनन बंद हो गई। गिरमिटिया असल में अंग्रेजी शब्द अग्रीमेंट का अपभ्रंश है। अंग्रेज मजदूरों की भर्ती के समय एक अग्रीमेंट करते थे जिसमे उनकी सेवा अवधि 5 वर्ष, मजदूरी की राशि के साथ-साथ वापसी के लिए जहाज के टिकट आदि का प्रावधान था।

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कहा गया गिरमिटिया मजदूर

जो लोग भारत से ऐसे अनुबंधों के जरिये मॉरीशस और अन्य देशों में मजदूरी करने गए उन्हें ही गिरमिटिया मजदूर कहा गया। तब मॉरीशस जाने के लिए बंगाल और मद्रास के बंदरगाह का इस्तेमाल हुआ, लेकिन अधिकांश लोग कलकत्ता बंदरगाह से गए। बिहार तब बंगाल प्रेसीडेंसी का अंग था। गिरमिटिया मजदूरों की भर्ती आरा, भोजपुर, रोहतास, कैमूर, बक्सर ,गाजीपुर, मुजफ्फरपुर, चंपारण, शाहाबाद, पटना और गया से मुख्य रूप से हुई। यूनाइटेड प्रोविंस यानी तबके उत्तर प्रदेश से भी आजमगढ़, फैजाबाद, बस्ती, गोंडा, गोरखपुर, बनारस, मिर्जापुर और जौनपुर जिलों से भर्ती हुई।

मॉरीशस आने वाले गिरमिटिया

मॉरीशस आने वाले गिरमिटिया अपने प्रशासनिक भू-भाग से ज्यादा भौगोलिक और सांस्कृतिक रूप से बिहार वासी के रूप में ही पहचाने जाते थे। भोजपुरी स्पीकिंग यूनियन, मॉरीशस की अध्यक्ष सरिता बुदू लिखती हैं, ‘साधारणतया अप्रवासियों ने अपने सुदूरवर्ती उत्पत्ति की पहचान को खो दिया और खुद को बिहार से आए हुए के रूप में प्रस्तुत करने लगे। यह एक सामान्य अनिश्चितता है, लेकिन यह एक स्थायी सामूहिक चेतना है कि वे बिहार से संबंधित हैं। हालांकि वास्तव में ये सभी अन्य दूसरे सूबों से आए हुए थे।’ 2 नवम्बर 1835 को पहला जहाज मॉरीशस के अप्रवासी घाट पर रुका। तब शायद ही किसी ने सोचा होगा कि आज जो बिहारी गिरमिटिया मजदूर के रूप में आए हैं, वे एक दिन अंग्रेजों की सत्ता उखाड़ फेंकेंगे, लेकिन यह पड़ाव आसान नहीं रहा।

समृद्ध जीवन का सपना

अंग्रेजो के एजेंट भोले-भाले लोगों को बेहतर और समृद्ध जीवन का सपना दिखाकर अग्रीमेंट के लिए राजी करते थे। यहां तक कि उन्हें खेतों में सोना मिलने का भी सपना दिखलाया जाता था, लेकिन जहाज पर बैठने के साथ ही उन पर जुल्मों का पहाड़ टूटने लगता। मॉरीशस में तो उनकी जिंदगी किसी नरक से कम नहीं थी। पूरे-पूरे दिन खेतों में बेतहाशा काम करना पड़ता था। मकान के नाम पर झोंपड़ियां। बच्चों के लिए कोई सुविधा नहीं। यहां तक कि उनके बच्चों की शादी कम उम्र में करवाने के लिए गन्ना खेत मालिक दबाब देते थे ताकि काम करने वाले मजदूरों की संख्या बढ़ सके। मामूली गलतियों पर जेल आम बात थी। उनके दम पर गन्ना उत्पादन में अप्रत्याशित वृद्धि कराई।

साथ ले गए भाषा, धर्म और संस्कृति 

हालांकि गिरमिटिया मजदूर अपने साथ अपनी भाषा, धर्म और संस्कृति को भी साथ ले गए और बड़े जतन से उसे सहेजकर पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाते गए जिसमें ‘बैठका’ की अहम भूमिका थी। बैठका हर गांव में सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र था जो बाद में राजनीतिक गतिविधियों का भी केंद्र बना और मॉरीशस के स्वतंत्रता आंदोलन में उसकी अहम भूमिका रही। अगर इतिहास की बात करें तो ब्रिटेन ने 1810 में फ्रांस को हराकर मॉरीशस पर कब्जा किया था। वहां 1825 से ही संवैधानिक सुधार होने लगे, लेकिन 1948 तक बिहारियों के लिए मताधिकार अत्यंत ही सीमित था। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद बने संयुक्त राष्ट्र संघ ने प्रस्ताव पारित कर औपनिवेशिक शासन को खत्म करने की बात कही।

नई शक्तियों का उदय

दूसरी तरफ वैश्विक राजनीतिक पटल पर नई शक्तियों का उदय हुआ। अंतरराष्ट्रीय दबाव और स्वतंत्रता आंदोलन के दबाव में आकर ब्रिटिश शासन ने 1948 के संवैधानिक सुधार के प्रावधानों के तहत नागरिकों को मताधिकार दिया, लेकिन यह उन्हीं लोगों तक ही सीमित था जो अंग्रेजी, हिंदी , फ्रेंच, तमिल, तेलुगु, उर्दू या चीनी भाषा में साधारण वाक्य लिख-बोल सकते थे। इन प्रावधानों के लागू होने के बाद भारतीयों को साक्षर करने की मुहिम स्वतंत्रता आंदोलन के नायकों ने अपने कंधों पर ली। पढ़े-लिखे लोगों ने स्वेच्छा से बैठका में जाकर मजदूरों को साक्षर बनाना शुरू किया। यह मुहिम रंग लाई और चुनावों के बाद बनी सरकार में बिहारी प्रतिनिधियों की संख्या लगातार बढ़ने लगी। 1965 तक आते आते स्वशासन की मांग शिखर तक पहुंच गई।

चुनाव के प्रावधानों में सुधार

1965 में ब्रिटिश शासन द्वारा फिर चुनाव के प्रावधानों में सुधार किया गया। तब 18 वर्ष की आयु के सभी लोगों को मताधिकार प्राप्त हुआ। मॉरीशस के समाज को चार समुदायों हिंदूू, मुस्लिम, चीनी और सामान्य की श्रेणियों में बांटा गया। चूंकि इन चारों समुदायों की जनसंख्या में असमानता थी इसलिए सभी समुदायों के प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने के लिए प्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली के साथ-साथ वंचित समुदाय के लिए एक अप्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली को भी लागू किया गया। साथ ही साथ अंग्रेजों ने 1967 के चुनाव में जीतने वाली पार्टी की मांग के आधार पर मॉरीशस को स्वतंत्र करने या ब्रिटेन के साथ रहने का विकल्प दिया।

मॉरीशस की स्वतंत्रता के लिए जनमत संग्रह

एक तरह से यह चुनाव मॉरीशस की स्वतंत्रता के लिए जनमत संग्रह की तरह था। फिर आखिरकार मॉरीशस की आजादी का रास्ता साफ हो गया। महात्मा गांधी से प्रभावित शिव सागर रामगुलाम ने मॉरीशस की आजादी की तारीख 12 मार्च 1968 चुनी। 12 मार्च वही तारीख थी जिस दिन गांधी जी ने दांडी यात्र की शुरुआत की थी और इसी दिन मॉरीशस की स्वतंत्रता के साथ ही बिहारी जो मजदूर बनकर मॉरीशस गए थे, सत्ता के शिखर तक पहुंच गए। आज वहां भारतीय संस्कृति के प्रतीक चिन्ह भी मजबूती के साथ नजर आते हैं। 

(लेखक अफ्रीकी अध्ययन केंद्र , जेएनयू में शोधार्थी हैं)

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