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मेरे जीवन का स्थायी भाव है कविता, आम जन की चाहतें और संघर्ष बनती हैं प्रेरणा -कुमार विश्वास

आम जन की सेवा के लिए ही वे राजनीति में आए लेकिन हिंदी के प्रोफेसर कुमार विश्वास कवि ही कहलाना पसंद करते हैं।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Sat, 20 Jun 2020 02:50 PM (IST)Updated: Sat, 20 Jun 2020 02:50 PM (IST)
मेरे जीवन का स्थायी भाव है कविता, आम जन की चाहतें और संघर्ष बनती हैं प्रेरणा -कुमार विश्वास
मेरे जीवन का स्थायी भाव है कविता, आम जन की चाहतें और संघर्ष बनती हैं प्रेरणा -कुमार विश्वास

स्मिता। आम जन की चाहतों, संघर्षों, आंदोलनों पर कविता रचते हैं कुमार विश्वास। आम जन की सेवा के लिए ही वे राजनीति में आए, लेकिन हिंदी के प्रोफेसर कुमार विश्वास कवि ही कहलाना पसंद करते हैं। हाल में उनकी किताब 'फिर मेरी याद' जागरण बेस्टसेलर में शामिल हुई है। एक बातचीत...

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आपकी राय में जागरण बेस्टसेलर में किताबों के शामिल होने से लेखकों और पाठकों को क्या फायदा मिलता है?

साहित्य का अर्थ है जिसमें 'सहित' भाव हो, यानी जिसमें सबको साथ लेकर चलने की व्यवस्था हो। संयोग या दुर्योग कहें कि समय के साथ साहित्य विशेषकर हिंदी साहित्य का दायरा सिमटता चला गया। साहित्य को हमने धीरे-धीरे एक ऐसी व्यवस्था में तब्दील कर लिया, जहां कुछ मठाधीशों द्वारा तय किया जाने लगा कि क्या साहित्य है और क्या नहीं है। यह व्यवस्था इतनी भारी पड़ी कि साहित्य से जुड़ा वर्ग सिकुड़ता चला गया। दुख की बात यह रही कि उन मठाधीशों को इस बात की कोई परवाह नहीं थी कि हिंदी साहित्य की किताबें तीन सौ के लॉट में क्यों छपती हैं? उनमें से पचास प्रकाशक के पास रह जाती हैं, पचास आलोचकों के पास चली जाती हैं और डेढ़ सौ स्वयं लेखक के पास रह जाती हैं, जिन्हें वह दोस्तों-मित्रों में बांट दिया करता है। पॉपुलर साहित्य और मंचीय कवियों की कविता को साहित्य के तंबू से ही बाहर कर दिया गया था।

कवि-सम्मलेन एक अलग विधा है, जहां कविता के अलावा प्रस्तुति और पैकेजिंग का भी बड़ा महत्व है। यह कह देना कि मंच पर कविता नहीं होती है, पूर्णतः गलत और किसी हद तक कुंठा का द्योतक है। इंटरनेट युग आ जाने से पॉपुलर कविता की मांग बढ़ी, और इतनी बढ़ी कि आज लाखों युवा इस क्षेत्र में अपना फुल-टाइम करियर बनाना चाहते हैं। ऐसे में जागरण बेस्टसेलर एक ऐसा माध्यम है, जो पॉपुलर लेखन को समाज, साहित्य और भाषाई हलकों में मजबूती से स्थापित करता है। यह बताता है कि संख्या की ताकत भी एक बड़ी ताकत है और साहित्य को संजीवनी देने में लोकप्रिय साहित्य का बड़ा योगदान है। आज हम अपने किसी प्रयोजन के लिए कोई एप डाउनलोड करना चाहते हैं, तो एक ही तरह के कई एप सामने होते हैं। फिर हम देखते हैं कि कौन सा एप ज्यादा डाउनलोड किया गया है। हम एक मानस बना लेते हैं कि यह ज्यादा डाउनलोड किया गया है, तो यह ज्यादा उपयोगी होगा। इसी तरह जागरण बेस्टसेलर की लिस्ट से पाठक को ज्यादा पढ़ी जाने वाली किताब के बारे में पता चलता है। फिर नया पाठक उसी हिसाब से अपना मन बनाता है।

आपने कविता, गजल आदि लिखने की शुरुआत कब की?

कवि होना नियति में था और प्राकृतिक रूप से यह कहीं न कहीं अंदर चिन्हित भी था। कविता लिखना शुरू करने के लिए किसी तरह की प्रेरणा की आवश्यकता कभी नहीं हुई। हां, आगे चल कर जीवन में प्रेम, संघर्ष, घर, समाज, निजी परिस्थितियों जैसे पहलू जैसे-जैसे सामने आते गए, कविता में उनका समावेश होता चला गया। मन में कविता कब उमड़ी यह पता नहीं। 

इन दिनों किस विषय पर काम चल रहा है?

कई काम एक साथ चलते हैं। सबसे बड़ी प्राथमिकता है 'अपने-अपने राम' किताब तैयार करने की। इसके लिए वृहद् अध्ययन कर रहा हूं। जब आप शो बिजनेस में होते हैं तो यात्राएं आपका समय और आपकी ऊर्जा खपा देती हैं। हालांकि व्यस्ततम समय में भी कुछ पढ़े बिना सोना मेरे लिए असंभव है। फिर भी अब जो यह समय मिला है जहां यात्राएं और ऑफिस का काम बिलकुल बंद हैं, तो 'अपने अपने राम' से संबद्ध कई चीजें, जिन्हें समयाभाव के कारण नहीं पढ़-जान पा रहा था, उसके लिए समय मिल पा रहा है। दूसरा, भक्ति काल के साहित्यकारों पर काम कर रहा हूं, जिसके बारे में जल्द अवगत करवाऊंगा।

लॉकडाउन में आपकी दिनचर्या क्या होती है?

जैसा कि मैंने बताया घर पर ही रहना होता है, तो अध्ययन का बहुत समय मिला है। विशेष कर राम तो एक ऐसे चरित्र हैं, जिनके बारे में जानने-समझने की कोई सीमा नहीं है। उनके चरित से जुड़ा कुछ भी पढ़ना शुरू कर दें, तो किताब रखने की इच्छा ही नहीं होती। बचपन में सुनता था 'हरि अनंत हरि कथा अनंता', अब इसे जी रहा हूं। बाकी समय परिवार के साथ बीत रहा है। दशकों बाद इतने दिनों से परिवार के साथ हूं। कुल मिला कर यह कहना गलत नहीं होगा कि समय भारी नहीं लग रहा।

इन दिनों आप अपने कौन से पसंदीदा लेखकों की कृतियां पढ़ रहे हैं?

आज-कल अन्य भारतीय भाषाओं के कवियों को पढ़ रहा हूं। हिंदी-उर्दू-अंग्रेजी-संस्कृत और गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर के कारण थोड़ा बहुत बांग्ला साहित्य तक सीमित अपने साहित्य कोष को और बड़ा कर रहा हूं। मैंने सदा कहा है कि राष्ट्रभाषा के मुद्दे को ले कर विवाद व्यर्थ है। मैं हिंदी वालों से अक्सर कहता हूं कि यदि आप यह चाहते हैं कि पूरा देश हिंदी का सम्मान करे, तो आपको भी उनके भाषा-साहित्य का सम्मान करना चाहिए। भाषाएं तो आपस में बहनें हैं, आप किसी एक का भी असम्मान करते हैं, तो दूसरी भाषा आपसे प्रसन्न नहीं हो सकती, चाहे वह आपकी मातृभाषा ही क्यों न हो। यदि आप चाहते हैं कि दक्षिण का हर आदमी तुलसी बाबा को पढ़े, तो आपको भी संत तिरुवल्लुवर और सुब्रमण्य भारती को पढ़ना चाहिए। समयाभाव के कारण जिन बहुत सारे कवियों को नहीं पढ़ पा रहा था, अभी उनको पढ़ रहा हूं। लंबी फेहरिश्त है। कश्मीरी में मां ललद्यद से ले कर गुजराती में नरसी मेहता, बांग्ला में काजी नजरुल इस्लाम, तमिल में सुब्रमण्य भारती, कन्नड़ में अक्का महादेवी, मराठी में संत तुकाराम और संत नामदेव, पंजाबी में बाबा फरीद सहित अन्य भारतीय भाषाओं के कई कवियों के अनुवादित साहित्य पर ध्यान दे रहा हूं।

आप स्वयं को राजनीतिज्ञ कहलाना अधिक पसंद करते हैं या कवि?

मैं हमेशा से कहता आया हूं, जब भी इतिहास की कक्षा में शिक्षक पढ़ाते हैं तो वे यह सिखाते हैं कि 'सिकंदर कहता था', 'चंगेज खां कहता था', लेकिन जब भी आप साहित्य की कक्षा में जाते हैं, तो शिक्षक यह सिखाते हैं कि 'मीरा कहती हैं', 'ग़ालिब कहते हैं'.. इसलिए कवि कहलाना हमेशा बेहतर है और मेरी मूल प्रवृत्ति कवि की ही है। मेरे एक गीत की पंक्तियां हैं - 'बाबर-अकबर मिट जाते हैं, कबिरा फिर भी रह जाता है'। इतना जरूर है कि मैं समय के साथ आगे चलता हूं। एक समय मुझे लगा कि मुझे व्यवस्था-परिवर्तन के मुहिम को बल देना चाहिए, तो मैं आगे बढ़ा। फिर कालांतर में मैंने देखा कि व्यवस्था परिवर्तन से शुरू हुई बात चेहरों के परिवर्तन पर आ कर रुक गई, तो मैं अलग हट गया। कल को फिर लगेगा कि देश के लिए किसी बड़े काम के लिए आगे आना है, तो जरूर आऊंगा। कुछ लोग पूछते हैं कि आपको अन्य पार्टियों से बुलावे आ रहे हैं, अच्छे पद ऑफर किये जा रहे हैं, आप क्यों नहीं चले जाते? तो मैं उन्हें जवाब देता हूं कि मैं राजनीति में जगह घेरने नहीं आया था। जगह बनाने और जगह घेरने में अंतर होता है। जगह घेरने का कोई हेतु न हो, तो वह स्वयं की नजरों में अपराध है, कम से कम मैं तो ऐसा मानता हूं। आगे कभी युग-धर्म ने आवाज दी, तो दोबारा निकल पडूंगा। लेकिन मेरे जीवन का स्थायी भाव तो कवि ही रहेगा।

क्या कविता राजनेताओं और आम जनता को जागरूक करने में सक्षम है?

निश्चय ही! एक प्रसिद्ध घटना है कि एक बार नेहरू जी संसद की सीढ़ियों पर लड़खड़ा गए थे। दिनकर जी, जो उस समय सांसद थे, उन्होंने उन्हें संभाल लिया था। नेहरू जी के धन्यवाद कहने पर दिनकर जी ने यह कहा था 'जब-जब राजनीति लड़खड़ाई है, तब-तब साहित्य ने ही उसे संभाला है'। जन की जागरूकता जब लक्ष्य-केंद्रित हो जाती है, तो उसे क्रांति कहते हैं। इस देश में जब भी जन जागरूक हुआ है, यानी जब भी क्रांति हुई है, वह कविता के सहारे ही आगे बढ़ी है।

चाहे वह स्वतंत्रता-पूर्व में बिस्मिल अजीमाबादी की गजल 'सरफरोशी की तमन्ना' हो या महाकवि बंकिम की लिखी 'वंदे मातरम्', चाहे स्वतंत्रता के बाद के आंदोलनों में जेपी आंदोलन के समय नारों में तब्दील हो गई दुष्यंत की गजलें हों या दिनकर का लिखा 'सिंहासन खाली करो कि जनता आती है'..। मैं स्वयं को सौभाग्यशाली मानता हूं कि आजादी के बाद के दूसरे सबसे बड़े आंदोलन यानी जनलोकपाल आंदोलन में मेरा गीत 'होठों पर गंगा हो, हाथों में तिरंगा हो' आंदोलन के संचार की रीढ़ बना। यह सब कुछ इतिहास की आंखों के सामने घटित हुआ है। इसलिए कविता हमेशा से ही जन-जागरण का माध्यम रही है।


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