Trending

    Move to Jagran APP
    pixelcheck
    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    नेपाल के बहाने नेबरहुड फर्स्ट नीति पर दोबारा मंथन करें और कमियों को दूर करें: सूद

    Updated: Sat, 20 Sep 2025 07:11 PM (IST)

    नेपाल में जेन-जी क्रांति ने केपी शर्मा ओली की सरकार को उखाड़ फेंका है जिससे राजनीतिक अस्थिरता का दौर शुरू हो गया है। आगामी चुनावों के बाद संभावित बदलावों और भारत पर इसके असर को लेकर सवाल उठ रहे हैं। राकेश सूद का मानना है कि भारत को नेपाल में राजनीतिक शून्यता नहीं बनने देनी चाहिए और नेबरहुड फर्स्ट नीति पर पुनर्विचार करना चाहिए।

    Hero Image
    नेपाल के बहाने नेबरहुड फर्स्ट नीति पर दोबारा मंथन करें और कमियों को दूर करें (फाइल फोटो)

    डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली। नेपाल में जेन-जी की क्रांति ने केपी शर्मा ओली की सरकार को उखाड़ फेंका है। एक नई सरकार सत्ता में है। ऐसे में कई सवाल उठ रहे हैं। नेपाल में राजनीतिक अस्थिरता का दौर कब होगा? आगामी चुनाव के बाद किस तरह के राजनीतिक बदलाव देखने को मिलेगा? पड़ोसी देश में होने वाले बदलाव को भारत को किस तरह से देखना चाहिए?

    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    इन सवालों का जवाब इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि दक्षिण एशिया में भारत के एक के बाद एक पांच पड़ोसी देशों में जन-आंदोलन हुए और वहां सरकारें बदली। इनमें से अधिकांश देशों में होने वाले बदलावों का सीधा असर भारत के हितों पर पड़ा है। नेपाल में भारत के राजदूत के तौर पर अपनी सेवाएं दे चुके राकेश सूद का मानना है कि भारत को नेपाल में राजनीतिक शून्यता नहीं बनने देना चाहिए।

    यही नहीं, नेपाल के बहाने नेबरहुड फर्स्ट नीति पर दोबारा मंथन करने और कमियों को तत्काल दूर करने की जरूरत है। दिल्ली में पले-बढ़े सूद नेपाल और अफगानिस्तान में बतौर राजदूत पदस्थ रहे। उन्होंने जिनेवा में निरस्त्रीकरण सम्मेलन में राजदूत और स्थायी प्रतिनिधि के रूप में कार्य किया है।

    वाशिंगटन डीसी स्थित भारतीय दूतावास में मिशन के उप प्रमुख के रूप में भी पदस्थ रहे। पाकिस्तान उच्चायोग में प्रथम सचिव के तौर पर पदस्थ हुए। अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा मामलों के भी जानकार हैं। दैनिक जागरण के सहायक संपादक जयप्रकाश रंजन ने उनसे हर मुद्दे पर विस्तार से चर्चा की। प्रस्तुत हैं बातचीत के मुख्य अंश:

    नेपाल में जेन-जी के आंदोलन के बाद का परिदृश्य देख आप क्या समझ पा रहे हैं?

    नेपाल में छह महीने में चुनाव की बात हो रही है। ऐसे में व्यवस्था बदलना तो मुश्किल लग रहा है क्योंकि राजनीतिक दल तो वहीं पुराने वाले होंगे। ऐसे में आगे क्या दिखता है? मौजूदा हालात में क्या होता है यह तो कहना मुश्किल है। क्या जेन-जी की तरफ से चुनाव में हिस्सा लेने की इच्छा दिखाई जाती है? इस पर भी बहुत कुछ निर्भर करेगा। अगर क्रांतिकारी करने वाले युवाओं की तरफ से चुनाव लड़ने की इच्छा दिखाई जाती है तो जाहिर है कि हर व्यक्ति निर्दलीय तो नहीं चुनाव में खड़ा हो सकता। उनको अपनी एक पार्टी बनानी पड़ेगी। यह फैसला होता है तो इसका असर पड़ सकता है। ऐसा होने पर नेपाल की राजनीति में बड़े बदलाव की उम्मीद की जा सकती है।

    ऐसे में जो पुरानी राजनीतिक पार्टियां हैं, उनकी भूमिका को आप किस तरह से देखते हैं?

    देखिए, नेपाल की जो भी पुरानी पार्टियां हैं वह नेपाली कांग्रेस हो या नेपाल कम्यूनिस्ट पार्टी (माओवादी) हो या नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (एमाले) हो, इन सभी में आंतरिक तौर पर काफी उथल-पुथल पहले से ही चल रहा है। इन तीनों पार्टियों के अंदर आम सभा लंबित है और अगले छह महीनों में होने वाली थी।

    अब नए परिवेश में पता नहीं क्या होगा? एमाले को ही लें तो इसके अध्यक्ष के पी शर्मा ओली पीएम हैं लेकिन पार्टी के अंदर इनका विरोध मुखर होता जा रहा है। नेपाल की पूर्व राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी, इसी पार्टी की हैं, जो फिर से राजनीति में सक्रिय होने का संकेत दे चुकी हैं। ओली जी उनको रोकने की काफी कोशिश कर रहे थे लेकिन पार्टी के दूसरे नेता भंडारी जी को आगे बढ़ा रहे हैं। उसी तरह से नेपाली कांग्रेस में शेर बहादुर देऊबा जी इस कोशिश में हैं कि उनकी पार्टी की आम सभा स्थगित हो जाए क्योंकि इनके कई प्रतिद्वंदियों की स्थिति मजबूत होने के संकेत हैं।

    पूर्व पीएम पुष्प कमल दहल प्रचंड को भी उनकी पार्टी (माओवादी) में चुनौती मिल रही है। प्रचंड वर्ष 1989 से इस पार्टी के अध्यक्ष हैं। हाल ही में इनकी पार्टी के कुछ सदस्यों ने एक प्रस्ताव रखा है कि पार्टी अध्यक्ष का कार्यकाल सीमित हो। जाहिर है कि सभी प्रमुख राजनीतिक दलों में पुराने नेताओं को चुनौती मिल रही है। मेरा आकलन है कि इन सभी प्रमुख नेताओं के दिन अब खत्म हो चुके हैं। अब देखना होगा कि पुराने नेताओं की जगह कौन लेते हैं। इन पार्टियों में बदलाव होना तय लग रहा है। इस बदलाव का भी असर दिखाई देगा।

    नेपाल में देखा जाए तो काफी लंबे समय से अस्थिरता का माहौल है। इसने वहां के आंतरिक हालात पर क्या असर डाला है?

    आपने सही कहा कि नेपाल में अस्थिरता लंबे अरसे से है। वर्ष 1990 में जब नेपाल में पहली बार राजनीतिक बदलाव के लिए आंदोलन हुआ तभी से वहां के राजनीतिक माहौल में अस्थिरता का माहौल बनता रहा है। अब देखिए कि विगत 35 वर्षों में नेपाल में 32 सरकारें बदल चुकी हैं। जब पहला जनआंदोलन हुआ तो बहुदलीय राजनीतिक व्यवस्था के लिए एक संविधान तैयार किया गया था।

    लेकिन कुछ ही समय बाद तत्कालीन राजा की तरफ से सरकार के कामकाज में दखलअंदाजी शुरू कर दी गई। इससे काफी रुकावटें आईं। वर्ष 2004 में तो राजा ने सभी सरकारें भी बर्खास्त कर दी थीं। वहां वर्ष 2006 तक यानी 16 वर्षों में 15 सरकारें आई और गईं। वर्ष 2006 में एक और जनआंदोलन हुआ जो राजा के खिलाफ था। तब वर्ष 2008 में नेपाल को एक गणतंत्र घोषित किया गया, राजशाही को समाप्त किया गया। उसके बाद फिर से नए संविधान की प्रक्रिया शुरू हुई।

    वर्ष 2015 से नया संविधान लागू हुआ है। वर्ष 2008 से वर्ष 2025 के बीच 15 बार सरकारें बदलीं। मौजूदा संविधान (वर्ष 2015) में लागू होने के बाद भी आठ बार सरकारें बदली गई हैं। यानी नेपाल में व्यवस्था कोई भी हो, सरकारें स्थिर नहीं रही हैं। पहले इस अस्थिरता के लिए राजनीतिक दलों की तरफ से राजशाही को दोष दिया जाता था लेकिन पिछले 17 वर्षों से तो वह भी नहीं है।

    ऐसे में आम जनता इन राजनीतिक दलों को ही अस्थिरता के लिए दोषी मानने लगी हैं। खास तौर पर तब जब गिने-चुने नेता ही बार-बार प्रधानमंत्री बन रहे हों। देउबा जी तीन बार पीएम बन चुके हैं। ओली का भी यह तीसरा कार्यकाल था। प्रचंड भी तीन बार सत्ता संभाल चुके हैं। आपस में सत्ता का हस्तांतरण होता रहा है लेकिन स्थिरता नहीं दिखाई दी। इससे जनता के भीतर आक्रोश है।

    नेपाल में इस तरह की अस्थिरता का भारत पर क्या कोई असर पड़ता दिख रहा है?

    हमारी नेपाल के साथ ओपन बॉर्डर है। ऐसे में वहां कोई भी अस्थिरता होती है तो हमें अपनी सीमा बंद करनी पड़ती है। क्योंकि कोई भी देश नहीं चाहेगा कि सीमा के पास से अस्थिरता उसके देश में आए। सीमा बंद होने का सबसे ज्यादा विपरीत असर आम जनता पर होता है। दोनों देशों की जनता को परेशानी उठानी पड़ती है। कारोबार प्रभावित होता है।

    भारत से काफी ज्यादा सामान नेपाल को जाता है। एक देश की जनता दूसरे देश में बीमारी के इलाज के लिए, नौकरी के लिए, कारोबार के लिए जाती है। साथ ही यह देखना होगा कि हमारे कई राज्यों की सीमाएं हैं। उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल के साथ नेपाल की बड़ी सीमा लगती है। इन राज्यों में सीमा पर बसे हुए लोगों का नेपाल के साथ ‘रोटी-बेटी’ का संबंध है।

    हम बांग्लादेश के साथ भी बहुत बड़ी सीमा साझा करते हैं लेकिन उसका बड़े हिस्से की निगरानी की व्यवस्था हो चुकी है, वह खुली हुई नहीं है। तो नेपाल की स्थिति का असर निश्चित तौर पर इन राज्यों पर भी दिखाई देने की आशंका हमेशा रहती है। अभी तो बिहार में जल्द ही चुनाव होने वाला है और नेपाल से बिहार का काफी गहरा संपर्क है तो पहला असर वहां देखने को मिल सकता है। भारत को सचेत रहने की जरूरत है।

    नेपाल के साथ संबंधों में चीन का आयाम जुड़ रहा है। चीन का प्रभाव वहां बढ़ा भी है। क्या राजनीतिक अस्थिरता की वजह से चीन वहां ज्यादा क्रियाशील हुआ है?

    देखिए, दक्षिण एशिया में भारत के मुकाबले इसके सभी पड़ोसी मुल्क छोटे हैं। जनसंख्या में, अर्थव्यवस्था में, क्षेत्रफल में। पाकिस्तान हो या नेपाल हो या बांग्लादेश हो, म्यांमार हो या श्रीलंका हो, इन पड़ोसी देशों में किसी भी तरह का बाहरी हस्तक्षेप हमारे हितों के खिलाफ जा सकता है। अगर इन देशों में राजनीतिक शून्यता होगी तो दूसरे देशों की तरफ से हस्तक्षेप किए जाने की संभावना ज्यादा होगी।

    हमारे हित ज्यादा असुरक्षित हो जाएंगे। ऐसे में सवाल यह है कि इन देशों में राजनीतिक शून्यता आने क्यों दिया जाता है। हमें यह देखना होगा कि इनमें राजनीतिक शून्यता न हो। अगर चीन की बात है तो अब वह पुराना वाला चीन नहीं है। मैं एक उदाहरण देता हूं। चीन के पूर्व राष्ट्रपति जियांग जेमिन ने वर्ष 1995-96 में पाकिस्तान के संसद में कहा था कि जिस तरह से चीन ने भारत के साथ अपनी सीमा का प्रबंधन किया है वैसा ही पाकिस्तान को भी करना चाहिए। आज के चीन के व्यवहार से काफी अलग है।

    इसी चीन ने वर्ष 2005-06 में नेपाल को कहा था कि आपका सारा कारोबार दक्षिण (भारत) के साथ है। आप उस पर निर्भर हैं। लेकिन आज का चीन एक सुपर पावर है। वह हस्तक्षेप करने की कोशिश करेगा। अब दूसरा पहलू देखिए, चीन का कारोबार भारत के साथ भी तो काफी ज्यादा है। भारतीय बाजार चीन के उत्पादों से भरे हैं। ऐसे में हम बांग्लादेश या नेपाल को कैसे रोक सकते हैं कि वह चीन के साथ कारोबार न करे। हां, हम वहां राजनीतिक शून्यता बनने देंगे तो चीन की सक्रियता भी बढ़ेगी।

    आप जरा खोल कर समझाइए, राजनीतिक शून्यता न हो इसके लिए भारत क्या रोल अदा कर सकता है?

    वर्ष 2014 में मोदी सरकार ने पड़ोसी देशों के साथ अपने संबंधों को आगे बढ़ाने के लिए ‘नेबरहुड फर्स्ट’ की नीति लागू की। आज हमारी सारे पड़ोसी देशों में एक के बाद एक अस्थिरता पैदा हो रही है। यह सामान्य घटना नहीं है। हमें इस नीति को लेकर गहराई से सोच-विचार करना होगा। वर्ष 2021 में म्यांमार में आंग सू ची के खिलाफ सैन्य विद्रोह हुआ, उनको सत्ता से बाहर निकाला गया। वर्ष 2021 में अफगानिस्तान में तालिबान की सरकार आई।

    वर्ष 2022 में श्रीलंका में वित्तीय संकट हुआ, आंदोलन हुआ, सरकार बदली। वर्ष 2023 में पाकिस्तान में भी जब इमरान खान को जेल में डाला गया तो उनके समर्थक सड़कों पर आ गए। वहां की फौज ने कड़ाई करते हुए स्थिति संभाली। फिर वर्ष 2024 में बांग्लादेश में प्रधानमंत्री शेख हसीना के खिलाफ आंदोलन हुआ, उन्हें देश छोड़ना पड़ा।

    वर्ष 2025 में नेपाल में दो दिनों के आंदोलन के बाद प्रधानमंत्री ओली को इस्तीफा देना पड़ा। मैं यह नहीं कहता कि इन सभी की वजहें एक ही हैं। निश्चित तौर पर हर देश की अपनी स्थिति है और वहां जो भी आंदोलन हुए हैं उसके पीछे वहां की स्थानीय व अन्य कारण जिम्मेदार हैं। इन देशों की आंतरिक स्थिति एक दूसरे से भिन्न है, लेकिन पड़ोस तो हमारा ही है।

    सब दक्षिण एशिया में हैं जहां भारत सबसे बड़ा देश है। क्या हम उन पर नजर नहीं रखते? वहां हमारे दूतावास हैं, दूसरी व्यवस्थाएं हैं। हमें पता लगता है कि वहां क्या हो रहा है। हमारी नीतियों में कहीं न कहीं कमियां तो हैं कि जब हो जाता है तो हम अचंभित हो जाते हैं। यह हमारी नीतियों की कमजोरी है। इस कमजोरी को दूर करना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। हमारा संवाद इन देशों के हर वर्ग से होना चाहिए।

    ट्रंप ने H1 B वीजा पर फैसला लेकर अपने पैरों पर कुल्हाड़ी तो नहीं मार ली? पढ़ें कितना बढ़ जाएगा US कंपनियों पर बोझ