नई दिल्ली, अनुराग मिश्र/विवेक तिवारी। कभी, कभी, कभी हार मत मानो। विंस्टन चर्चिल ने यह बात कही थी, अपने देश ब्रिटेन में आत्महत्या के बढ़ते मामलों को देखते हुए। वह दौर था और आज का समय है। वक्त बदला, दौर बदला, दुनिया बदली और वजह बदली पर यह समस्या पूरी दुनिया में कायम है। भारत में साल दर साल आत्महत्या की दर बढ़ती जा रही है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के हालिया आंकड़ों को देखें तो पंजाब में बीमारी की वजह से सबसे अधिक लोग अपनी जीवनलीला समाप्त कर रहे हैं तो ओडिशा में सुसाइड का बड़ा कारण घरेलू समस्या है। एनसीआरबी की रिपोर्ट के अनुसार पंजाब में 2021 में हुई 2600 आत्महत्याओं में से 1164 यानी 44.8 प्रतिशत लोगों ने बीमारी और पारिवारिक समस्याओं के कारण आत्महत्या की है।

बीमारी है अप्रत्यक्ष कारण

पंजाब विश्वविद्यालय की समाजशास्त्र विभाग की चेयरपर्सन मोनिवा सरकार कहती है कि पूरी दुनिया में देखें तो बीमारी आत्महत्या की प्रत्यक्ष वजह नहीं होती है। किसी असाध्य बीमारी से जूझ रहा व्यक्ति भी अंतिम समय तक जीवन को बचाने की कोशिश करता है। बीमारी के साथ सामाजिक-आर्थिक दिक्कतें व्यक्ति को तोड़ देती है जो आत्महत्या की वजह बनता है। जहां तक पंजाब के परिदृश्य की बात करें तो बीमारी के साथ कर्ज का बढ़ना, आर्थिक दिक्कत की वजह से सामाजिक रुतबे के जाने का डर लोगों को आत्महत्या की तरफ धकेल देता है। पंजाब में कई किसान कर्ज के जाल में फंसे होते हैं ऐसे में उनकी घर में बीमारी का आना उनके लिए एक बड़ा बोझ बन जाता है। वह इस स्थिति से आर्थिक तौर पर निपटने में सक्षम नहीं होते हैं। वहीं पंजाब में युवाओं में ड्रग्स के मामले बढ़ने की वजह से वह आत्महत्या कर रहे हैं। वह इस कदम को होश-ओ-हवास में नहीं उठाते हैं। ड्रग्स उनके दिमाग को अस्थिर कर देता है जिसके परिणामस्वरुप ऐसा होता है।

कैंसर जैसी बीमारियों के चलते बढ़ा डिप्रेशन

इंपावरिंग माइंडस सोसाइटी फॉर रिसर्च एंड डेवलपमेंट की निदेशक और क्लीनिकल साइकॉलॉजिस्ट डॉक्टर रिचा मोहन कहती हैं कि पंजाब में कैंसर और अन्य बीमारियों के चलते लोगों में डिप्रेशन तेजी से बढ़ा है। दरअसल कैंसर जैसी बीमारियों के इलाज का खर्चा इतना होता है कि लोगों के लिए लम्बे समय तक इसका इलाज कराना काफी मुश्किल हो जाता है। जिससे डिप्रेशन की स्थिति पैदा होती है। कई मामलों में लोग सोचते हैं कि इतना संघर्ष करने से अच्छा है की आत्महत्या कर ली जाए। वहीं जिस व्यक्ति को बीमारी हो जाती है बाकी समाज उससे दूरी बना लेता है। उस व्यक्ति के लिए जीवन जीना मुश्किल हो जाता है।

मनोचिकित्सक डॉक्टर रवि सिंह रसोड़ा कहते हैं कि कैंसर या किसी अन्य घातक बीमारी के चलते मरीजों में डिप्रेशन के मामले सामान्य हैं। जहां तक कैंसर की बात करें तो प्रारंभिक अवस्था में इसका पता लगने पर ये पूरी तरह से ठीक भी हो जाता है। लेकिन कैंसर और कुछ अन्य बीमारियों को लेकर समाज में बहुत सी भ्रांतियां हैं। लोग और खुद मरीज ये मानने लगता है कि अब बचना मुश्किल है। ये मरीज की रिकवरी को मुश्किल बनाता है। कैंसर के इलाज में कीमों और रेडियो थैरिपी में मरीज को काफी दिक्कत होती है। वजह घट जाता है बाल कम हो जाते हैं। मरीज का जीवन स्तर गिरता जाता है। ऐसे में ये हालात देख कर मरीज डिप्रेशन में चले जाते हैं। उसे लगता है इतना कष्ट सहने से अच्छा है की आत्महत्या कर लें।

ये कहते हैं शोधपत्र

इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर पापुलेशन साइंस के आकिफ मुस्तफा अपने शोधपत्र 'बर्डन ऑफ सुसाइडल एंड एक्सीडेंटल मोर्टेलिटी इन इंडिया' में लिखते हैं कि परीक्षा में फेल होना, बेरोजगारी, सामाजिक रुतबा, संपत्ति विवाद, गरीबी, प्रेम संबंध, शारीरिक प्रताड़ना आदि आत्महत्या के बड़े कारण होते हैं, जिन्हें रोका जा सकता है। भारत में आत्महत्या से बचाव के प्रोग्राम चलाए जाने की आवश्यकता है। मानसिक बीमारियां जैसे डिप्रेशन, ड्रग का इस्तेमाल, साइको, बेचैनी, पर्सनैलिटी डिसऑर्डर आदि भी आत्महत्या के बड़े फैक्टर्स होते हैं। आकिफ लिखते हैं कि मेंटल हेल्थ एक्ट 1987 में मानसिक तौर पर बीमार लोगों के सुधार के लिए कई उपाय तय किए गए थे। इनमें ऐसे लोगों के लिए जो अपनी जान ले सकते हैं, उन्हें कस्टडी प्रदान करना औऱ मानसिक रोगियों के अधिकारों को संरक्षित करना आदि शामिल हैं।

सुसाइड इन इंडिया : ए प्रिवेंटेबल एपिडेमिक शोधपत्र में श्रीनागेश (डोनाल्ड एंड बाराबारा जुकर स्कूल ऑफ मेडिसिन, न्यूयॉर्क के मनोचिकित्सा विभाग), मुरलीधराशंकरपुरा (पार्क निकोलेट स्पेशिलिटी सेंटर, सेंट लुईस पार्क, अमेरिका) और सुरेशबाड़ा (नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरोसाइंस, बेंगलुरु के मनोचिकित्सा विभाग) लिखते हैं कि लोगों और समाज की सहभागिता से आत्महत्या के मामलों को कम किया जा सकता है। समुदाय के सहयोग से मानसिक बीमारी, स्वीकार्यता, मुश्किल हालात से निपटने में सहयोग, अल्कोहल और ड्रग के इस्तेमाल को रोकने से राहत मिल सकती है। यही नहीं टेक्नोलॉजी आधारित सुसाइड प्रिवेंशन टूल्स भी काफी कारगर हो सकते हैं। उदाहरण के तौर पर, नेशनल सुसाइड प्रिवेंशन हेल्पलाइन द्वारा तैयार एम वाई 3 एप काफी मददगार है। यह आपका नेटवर्क तैयार करता है। अगर आपके मन में आत्महत्या का ख्याल आता है तो यह आपको लोगों से जोड़ता है।

बात करना बेहद जरूरी है और डॉक्टर से सलाह भी

एम्स के मनोचिकित्सक डॉ राजेश सागर ने बताया कि सुसाइड के बारे में सोचने वालों के लक्षण आसानी से पहचाने जा सकते हैं। जो भी व्यक्ति मानसिक परेशानी से जूझ रहा हो, ज्यादा दुखी हो और किसी भी चीज में मन न लग रहा हो, उससे बात जरूर करें। उन्हें अकेला न छोड़ें। बीमार व्यक्ति को मनोचिकित्सक से सलाह लेने के लिए प्रेरित करें। कोरोना के समय में हम समाज से थोड़ा कट गए हैं और अकेलापन ज्यादा महसूस हो रहा है। इसलिए एक-दूसरे से बात करना बेहद जरूरी है।