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    भारतीय फिल्म 'पीरियड एंड ऑफ सेंटेंस' को मिला ऑस्कर अवॉर्ड

    By Ravindra Pratap SingEdited By:
    Updated: Mon, 25 Feb 2019 07:11 PM (IST)

    शबाना यूं ही इस सवाल को लिए गांव के घर-घर घूम रही थीं। और हर महिला नीचे गर्दन किए इससे कतरा रही थीं। कुछ इसका मजाक बना रही थीं।

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    भारतीय फिल्म 'पीरियड एंड ऑफ सेंटेंस' को मिला ऑस्कर अवॉर्ड

    नई दिल्ली [मनु त्यागी]। आज तक तो कुछ न बेचा...देखती हूं क्या कर पाऊंगी? मुस्कुराते हुए स्नेह ने सैनेट्री पैड के पैकेट झोले में भरे और कंधे पर झोला टांग चल दी गांव की सोच बदलने। आखिर स्नेह में ये हौसला आया कहां से...? दरअसल शबाना स्नेह के दिल-दिमाग से बासी सोच के पर्दे को हटा चुकी थीं। अब वह झोले में रखे एक परिवर्तन से गांव की सोच को भी धोना चाहती थीं। और शुरुआत होती है जब उसके हाथ में, फैक्ट्री में अपने हाथों से बनाए पैड की पहली कमाई होती है। झोला खाली होता है और स्नेह दौड़ते हुए शबाना के हाथ में दिनभर की कमाई 180 रुपये थमाती है। शबाना ऑस्कर तक पहुंचने की कहानी का वह पात्र है। जिसके स्नेह से आज काठीखेड़ा मुस्कुरा रहा है।

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    मो को पतो यो तो भगवान बतावेंगे

    शबाना का पहला दिन था...गांव की धूल और हरियाली के बीच। जब इस सोच के बीज अंकुरित हुए थे कि अब इस गांव को बदलाव की क्रांति तक लेकर ही जाना है। लेकिन जिद उससे कहीं ऊपर थी। शुरुआत दो बच्चियों से होती है, शबाना उनसे सवाल पूछ बैठती हैं कि पीरियड्स क्या होता है? और क्यों होता है? बस फिर क्या था शर्म से उन लड़कियों की गर्दन उठती नहीं, हंसी उनकी थमती नहीं...। शबाना यूं ही इस सवाल को लिए गांव के घर-घर घूम रही थीं। और हर महिला नीचे गर्दन किए इससे कतरा रही थीं। कुछ इसका मजाक बना रही थीं। कुछ पुरुष भी मिले जिन्होंने पीरियड्स क्या होता है के जवाब व्यंग्यात्मक हंसी के साथ कुछ यूं जवाब दिए 'अच्छा हां, शायद क्लास में लगने वाला लेक्चर। वहीं जिंदगी के तकरीबन साठ पड़ाव देख चुकी गांव की बुजुर्ग महिला इन सवालों को भगवान के ऊपर ही यह कहते हुए छोड़ देती हैं कि 'मो का पतो, यो तो भगवान ही बता सकें हैं यो क्यों होवे है।

    इस एक सवाल के कारण गांव में विरोध की आवाजें शबाना का पीछा करने लगी थीं। मतलब कड़े संघर्ष के साथ गांव की खाक छानकर उनका इरादा पक्का हो चुका था कि अब तो यहीं बदलाव के बीज को अंकुरित कर पुष्पित पल्लवित करना ही होगा। और इसी से पैदा होती हैं उसी गांव की स्नेह और बाकी पांच लड़कियां। जो ऑस्कर तक शबाना के संघर्ष को एक 'पीरियड एंड ऑफ सेंटेंस के रूप में पहुंचाती हैं। दरअसल इन विरोध के स्वरों में शबाना के लिए स्नेह की तलाश पूरी हो चुकी थी। उसी स्नेह की जो डॉक्यूमेंट्री का मुख्य पात्र हैं। जिनकी आंखों में सिर्फ दिल्ली पुलिस में एसआइ बनने तक का सपना था। और आज कहती नहीं थक रही हैं कि मैंने कहा था न एक दिन ये मेरे कंधे पर टंगा सैनेट्री पैड का झोला मेरे पिता का मेरे गांव का ही नहीं बल्कि देश का भी नाम रोशन करेगा।