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    दिल्‍ली के तख्‍त पर बैठने वाले 'बुद्धिमान मूर्ख राजा’ के बारे में कितना जानते हैं आप

    By JP YadavEdited By:
    Updated: Sun, 11 Nov 2018 09:45 AM (IST)

    दिल्ली में अकाल का इतिहास मोहम्मद तुगलक के समय तक पहुंचता है। जिसकी फिजूलखर्ची के कारण 1344 ईस्वी का अकाल पड़ा। कहा जाता है कि मनुष्यों ने एक-दूसरे को खाया।

    दिल्‍ली के तख्‍त पर बैठने वाले 'बुद्धिमान मूर्ख राजा’ के बारे में कितना जानते हैं आप

    नई दिल्ली [नलिन चौहान]। मध्यकालीन बादशाह मोहम्मद बिन तुगलक (1324-51) अपने अनेक प्रयोगधर्मी निर्णयों के कारण चर्चित रहा। उसके व्यक्तित्व की जल्दबाजी और बेसब्री की प्रवृत्ति के कारण उसे ‘बुद्धिमान मूर्ख राजा’ कहा जाता था। अंग्रेज इतिहासकार एम एम्फिस्टन के अनुसार तुगलक में पागलपन का कुछ अंश था, जबकि आशीर्वाद लाल श्रीवास्तव के अनुसार उसमें ‘विरोधी तत्वों का मिश्रण’ था।

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    ...तो अकाल में मनुष्यों ने एक-दूसरे को खाया
    उल्लेखनीय है कि तुगलक के समय दिल्ली में (सन् 1344) भयंकर अकाल पड़ा था। 1912 के ‘दिल्ली डिस्ट्रिक्ट गजेटियर’ के अनुसार, दिल्ली में अकाल का इतिहास मोहम्मद तुगलक के समय तक पहुंचता है। जिसकी फिजूलखर्ची के कारण 1344 ईस्वी का अकाल पड़ा। कहा जाता है कि मनुष्यों ने एक-दूसरे को खाया।

    ...इसलिए बिकने लगा छह दीनार में बिकने लगा था एक मन गेहूं
    इब्नबतूता की भारत यात्रा या चौहदवीं शताब्दी का भारत पुस्तक के अनुसार, भारत वर्ष और सिंधु प्रांत में दुर्भिश पड़ने के कारण जब एक मन गेहूं छह दीनार में बिकने लगे। फरिश्ता तथा बदाऊंनी के अनुसार हिजरी सन् 742 में सैयद अहमदशाह गवर्नर (माअवर-कनार्टक) का विद्रोह शांत करने के लिए, बादशाह के दक्षिण ओर कुछ एक पड़ाव पर पहुंचते ही यह दुर्भिश प्रारंभ हो गया था।

    तुगलक के दरबार में रहा था इब्नबतूता
    बादशाह के दक्षिण से लौटते समय तक जनता इस कराल-अकाल के चंगुल में जकड़ी हुई थी। उल्लेखनीय है कि उत्तरी अफ्रीका का निवासी इब्नबतूता चौहदवीं सदी में भारत आया और आठ वर्षों तक मोहम्मद तुगलक के दरबार में रहा। तुगलक ने उसे दिल्ली का काजी नियुक्त किया और अपना दूत बनाकर चीन भेजा।

    खुशफहमी में उपहार देने की आदत

    दुर्भाग्य से इन्हीं दिनों अकाल पड़ा और चारों ओर विद्रोह की अग्नि भड़क उठी। शाही सेनाओं ने विद्रोहियों को कठोर दंड दिए। इस पर लोग खेती छोड़कर जंगलों में भाग गए। खेत वीरान हो गए और गांवों में सन्नाटा छा गया। शाही सेना ने लोगों को जंगलों से पकड़कर उन्हें कठोर यातनाएं दीं। इन यातनाओं से बहुत से लोग मर गए। यह मोहम्मद की अंतिम असफल योजना थी। तुगलक के बारे में इब्नबतूता ने लिखा कि उसके दो प्रिय शौक थे, खुशफहमी में उपहार देना और क्रोध में खून बहाना।

    जॉन डाउसन की पुस्तक ‘हिस्ट्री ऑफ इंडिया बॉएं इट्स ओन हिस्टोरियंस’ के अनुसार, माना जाता है कि कम या अधिक समूचा हिंदुस्तान (1344-45 का भारत) अकाल की चपेट में था, खासकर दक्कन में उसकी मार ज्यादा तकलीफदेह थी।

    ‘मध्यकालीन भारत’ पुस्तक के लेखक व इतिहासकार सतीशचन्द्र के अनुसार, एक भयानक अकाल ने, जिसने इस क्षेत्र को छह वर्षों तक तबाह रखा, स्थिति को और बिगाड़ा। दिल्ली में इतने लोग मरे कि हवा भी महामारक हो उठी। यहां तक कि सुल्तान दिल्ली छोड़कर करीब 1337-40 तक स्वर्गद्वारी नामक शिविर में रहा जो दिल्ली से 100 मील दूर कन्नौज के पास गंगा के किनारे स्थित था।

    प्रजा रही कष्ट में
    तुगलक के शासनकाल के आरंभ में ही गंगा के दोआब में एक गंभीर किसान विद्रोह हो चुका था। किसान गांवों से भाग खड़े हुए थे तथा तुगलक ने उनको पकड़कर सजा देने के लिए कठोर कदम उठाए थे। गौरतलब है कि दिल्ली के तख्त पर बैठने के कुछ दिन बाद तुगलक ने दोआब क्षेत्र में भू राजस्व कर में वृद्धि की। इतिहासकार बरनी के अनुसार बढ़ा हुआ कर, प्रचलित करों का दस तथा बीस गुना था। किसानों की भूमि कर के अतिरिक्त घरी, अर्थात गृहकर तथा चरही अर्थात चरागाह कर भी लगाया गया। प्रजा को इन करों से बड़ा कष्ट हुआ।

    यह भी जानें

    सत्ता पर काबिज होते ही ‘मुहम्मद बिन तुगलक’ ने अपने साम्राज्य को अपने हिसाब से बदलना शुरु कर दिया. इसके लिए उसने कई परिवर्तन किए। उसने 1329 में दिल्ली की जगह देवगिरी को अपनी राजधानी बना दिया, जिसे दौलताबाद के नाम से जाना गया। दिलचस्प बात तो यह थी कि इस फैसले के तहत सिर्फ राजधानी को नहीं बदला गया था, बल्कि दिल्ली की आबादी को भी दौलताबाद में स्थानांतरित होने का आदेश दिया था।

    तुगलक अपने एक दूसरे सख्त फैसले के लिए वह जाना जाता है। इसके तहत उसने रातों-रात चांदी के सिक्कों की जगह तांबे के सिक्कों को चलन में लाने का आदेश दे दिया था, जबकि उसने तांबे के जो सिक्के जारी किए थे, वे अच्छे नहीं थे। आसानी से उनकी नकल की जा सकती थी।

    हुआ भी यही लोगों ने नकली सिक्के अपने घर में ही बनाने लगे, इससे राजस्व की भारी क्षति हुई और फिर उस क्षति को पूरा करने के लिए उसने करों में भारी वृद्धि भी की, जिस कारण लोग उससे नाराज रहने लगे।

    30 लाख सैनिक फिर भी था कमजोर...

    तुगलक भारत में अपना विस्तार चाहता था, इसीलिए 1329 तक उसने करीब 30 लाख सैनिक इकट्ठा कर लिए।  इस दौरान उसकी सेना में कुछ ऐसे भी लोग भी भर्ती थे जो सैनिक थे ही नहीं।  वह लड़ना ही नहीं जानते थे, सिर्फ संख्या बल बढ़ाने के लिए सैनिक बनाए गए थे। तुगलक ने इन सैनिकों को साल भर तक भुगतान करने का जिम्मा ले रखा था,  इसलिए इस तरह उसके राजस्व पर इसका गहरा असर पड़ा।

    (लेखक दिल्ली के अनजाने इतिहास के खोजी हैं)

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