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    Muammar Gaddafi: 27 साल की उम्र में तख्तापलट करके हथियाई थी लीबिया की सत्ता, 42 साल कायम रही तानाशाही

    By Babli KumariEdited By: Babli Kumari
    Updated: Wed, 11 Jan 2023 07:19 PM (IST)

    Muammar Gaddafi का पूरा नाम मुअम्मर मोहम्मद अबू मिनयार गद्दाफी था जिन्हें दुनिया कर्नल गद्दाफी के नाम से जानती है।मात्र 27 साल की उम्र में लीबिया में तख्तापलट कर गद्दाफी ने करीब 42 साल तक राज किया। गद्दाफी का अंत सिर्त शहर में एक नाटो सैन्य हमले में हुआ।

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    इस तानाशाह ने पूरे 42 सालों तक किया लीबिया में राज

    नई दिल्ली, बबली कुमारी। लीबिया के बेदुईन कबीले का एक लड़का, जिसके पिता बकरियां और ऊंट चराया करते थे। जिसने 27 साल की उम्र में रक्तहीन क्रांति से तख्तापलट कर दिया लेकिन बाद में अपना शीशमहल खून की बुनियाद पर बनाया।

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    वो जिस फॉक्सवैगन कार में सफर करता था पर बाद में वह उसकी अय्याशी का प्रतीक बन गई। उसने अपने नाम के साथ कर्नल, इमामों का इमाम और अफ्रीका का शहंशाह जैसी उपाधियां धारण कीं, लेकिन अमेरिका की नजर में वो पागल कुत्ता था और जो हमेशा खूबसूरत अंगरक्षकों से घिरा रहता था।

    जी हां, हम बात कर रहे हैं मुअम्मर मोहम्मद अबू मिनयार अल-गद्दाफी की। इस नाम का परिचय यहीं खत्म नहीं होता है। इसकी अनेक कहानियां हैं जिनसे उसकी क्रूरता और तानाशाही शासन का पता चलता है। गद्दाफी के पूरे कारनामे जानने के बाद 'मनमौजी' या 'सनकी' शब्द आपको उसके लिए शायद ही न्यायसंगत लगें।

    अपनी क्रूरता के बावजूद गद्दाफ़ी लीबिया में एक इस्लामी आधुनिकतावादी के रूप में उभर कर सामने आया और उसने शरिया को कानूनी व्यवस्था के आधार के रूप में पेश किया और 'इस्लामी समाजवाद' को बढ़ावा दिया।

    उसने तेल उद्योग का राष्ट्रीयकरण किया और सेना को मजबूत करने, विदेशी क्रांतिकारियों को फंड देने और गृह-निर्माण, स्वास्थ्य देखभाल और शिक्षा परियोजनाओं पर जोर देने वाले सामाजिक कार्यक्रमों को लागू करने के लिए राज्य के राजस्व में वृद्धि करने का भी काम किया।

    देश को प्रभुत्व सम्पन्न बनाना चाहता था गद्दाफी

    एक अनाम से बेदुईन कबीले से तालुक रखने वाले गद्दाफी के पिता सामान्य हैसियत वाले व्यक्ति थे। गरीबी के बावजूद उन्होंने अपने बच्चे की पढ़ाई में कोई कसर नहीं छोड़ी। उस लड़के ने भी खूब मेहनत की और सेना में शामिल हुआ। यहां वह अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता रहा।

    वो अपने देश को प्रभुत्व सम्पन्न बनाना चाहता था क्योंकि लीबिया उस वक़्त एक कठपुतली सरकार की तरह काम कर रहा था और उसके तेल भंडार पर विदेशी कंपनियों का बोलबाला था। वैसे तो लीबिया 1951 में आजाद हो चुका था पर उसकी आजादी बस कहने भर की थी।

    किंगडम ऑफ लीबिया के पहले राजा इदरीस एक कठपुतली शासक थे और पश्चिमी देश जैसी चाभी भरते वो वैसा ही करतब दिखाते थे। पचास के दशक के अंत में लीबिया की किस्मत बदली जब वहां तेल के कुएं मिले। इदरीस ने इन कुओं को औने-पौने दाम पर विदेशी कंपनियों को बेच दिया और सारा पैसा हजम कर गए। लीबिया के संसाधनों की लूट ऐसे ही जारी रही और आम लोगों की हालात बद से बदतर होती रही। यह सब देखकर गद्दाफी ने अपना उद्देश्य तय कर लिया और इसमें उसे प्रेरणा मिली पड़ोसी देश इजिप्ट (मिस्र) से।

    मिस्र के लेफ्टिनेंट कर्नल जमाल अब्देल नासेर थे उसके हीरो

    1952 के साल में लेफ्टिनेंट कर्नल जमाल अब्देल नासेर ने इजिप्ट में एक रक्तहीन क्रांति कर वहां से हमेशा के लिए राजशाही को खत्म कर दिया था। गद्दाफी इसे ही अपना हीरो मानता था और उसी के नक्शे-कदम पर चलते हुए उसने आर्मी ज्वाइन की।

    आर्मी में उसने फ्री ऑफिसर नाम का एक ग्रुप बनाया जो अपनी कमाई में से कुछ पैसा एक फंड में डालने लगे और सही समय का इंतजार करने लगे। आखिरकार वो रात आई 31 अगस्त 1969 को, जब आधी रात में ऑपरेशन जेरूसलम शुरू हुआ और लीबिया के दूसरे सबसे बड़े शहर बेन गाजी के बरका छावनी में गद्दाफी की एंट्री हुई और अफसरों पर हथियार तान दिए गए।

    बिना खून बहाए बेन गाजी गद्दाफी के कब्जे में आ गया था। तब तक दूसरी तरफ उसके साथी राजधानी त्रिपोली की तरफ रेडियो स्टेशन, एयर क्राफ्ट और मिसाइल अड्डों पर कब्जा करने के लिए रवाना हो चुके थे और वो भी सफल रहे। उस समय राजा इदरीस अपना इलाज तुर्की में करवा रहे थे और बाद में निर्वासन में ही उनकी मृत्यु हो गई।

    1 सितंबर 1969 को राजा इदरीस की सत्ता पर किया कब्जा

    लीबिया के लोगों को लगा कि 1 सितंबर 1969 की सुबह उनके लिए नई उम्मीद और विकास की सुबह होगी, पर ये सब बस एक छलावा साबित हुआ। 1 सितंबर 1969 को विद्रोहियों के साथ मिलकर गद्दाफी ने राजा इदरीस की सत्ता पर कब्जा किया और सेना प्रमुख की शपथ ली। उस समय गद्दाफी की उम्र मात्र 27 साल थी।

    सत्ता हाथ में आते ही गद्दाफी ने लीबिया से मदद पा रहे अमेरिकी और ब्रिटिश सैन्य ठिकानों को बंद करने का हुक्म दिया। उसने आदेश जारी किया कि लीबिया में काम करने वाली विदेशी कंपनियों को राजस्व का बड़ा हिस्सा देना होगा।

    इतना ही उसने ग्रेगोरियन कैलेंडर को बदलकर इस्लामी कैलेंडर लागू किया और शराब की ब्रिकी पर पाबंदी लगा दी। उस क्रांति के 42 साल बाद तक लीबिया के लोगों का आजादी का सपना एक सपने की तरह ही रहा।

    2011 आते-आते हालात इतने बदल गए कि गद्दाफी अपने ही लोगों को घर मे घुस कर मारने की धमकी देने लग गया। हालांकि, इस धमकी के बाद वो खुद फरार हो गया था क्योंकि उसके सिर पर नाटो की सेना का खतरा था और खुद उसके देश की जनता उसके खून की प्यासी थी। इसके कुछ समय बाद ही जिस जनता ने उसे सिर पर बिठाया था, उसने उसे बेरहमी से मौत के घाट उतार दिया।

    अपने शासन के आरंभ में गद्दाफी ने किए तीन अहम काम

    अपनी सत्ता के शुरुआती दिनों में गद्दाफी ने तीन अहम काम किए। सबसे पहले तो उसने पश्चिम की तेल कंपनियों पर नकेल कसी। उन्हें या तो बनाई गई शर्तों पर काम करना था या मौत के घाट उतरना था। इससे लीबिया के तेल पर वहां के लोगों का सबसे पहला हक हो गया।

    उससे हुई आमदनी को लीबिया के लोगों के ऊपर खर्च करना शुरू किया गया और उसके बदले जनता ने उसे अपनी वफादारी दी। दूसरा अहम काम उसने चाड, फिलिस्तीन, लेबनान और आयरलैंड जैसे देशों में आतंक फैलाने का किया और इसमें दुनिया भर के चरमपंथियों की उसने मदद की और उन्हें अपने यहां शरण और हथियार देना शुरू किया।

    तीसरा बड़ा काम, गद्दाफी ने लीबिया के शासन के लिए नई थ्योरी देने का किया। उसने कहा कि ये दुनिया के कैपिटलिज्म और कम्युनिज्म से अलग है। उसने ‘द ग्रीन बुक’ नाम से एक किताब भी लिखी जिसे लीबिया में सबके लिए पढ़ना अनिवार्य किया गया। उसने ऐलान किया कि सरकार पीपुल्स कांग्रेस से चलाई जाएगी। उसने कोई पद नहीं लिया और खुद को ब्रदर लीडर घोषित किया। हालांकि, अंदर सब कुछ उसके इशारों पर ही होता था।

    जब सत्ता के सामने चुनौती खत्म हो जाती है तो वह निरंकुश हो जाती है। अपने आलोचकों को गद्दाफी ने मौत के घाट उतरवा दिया। अमेरिका, यूरोप और मध्य-पूर्व में बसे अपने आलोचकों को मारने के लिए गद्दाफी ने भाड़े के हत्यारों का भी इस्तेमाल किया। साल 1984 के जून महीने में बेन गाजी के स्टेडियम में सत्ता से नाराज एक नागरिक को ट्रायल का नाटक कर सरेआम फांसी दे दी गई।

    अमेरिकी राष्ट्रपति ने गद्दाफी को पागल कुत्ता तक कह डाला था

    गद्दाफी दुनिया भर में उस समय बहुत बदनाम हो गया जब 21 दिसंबर, 1988 को फ्रैंकफर्ट से डेट्रॉएट जाने वाले पैन-ऐम के विमान में लॉकरबी, स्कॉटलैंड के ऊपर हवा में विस्फोट हुआ, जिसमें 243 लोग मारे गए। बाद में जांच में पाया गया कि इसमें कथित रूप से लीबिया का हाथ था। अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन गद्दाफी से इतने नाराज हुए कि उन्होंने उसे 'पागल कुत्ता' तक कह डाला।

    ऐसे ही साल 1996 में राजधानी त्रिपोली की एक जेल में कैदियों ने भागने का प्लान बनाया पर असफल रहे। गार्ड्स और कैदियों के बीच मुठभेड़ में 7 की मौत हुई और 120 घायल हुए। फिर समझौते के बाद घायल कैदियों को अस्पताल ले जाया गया पर वो कभी वापस लौट कर नहीं आए।

    अगले दिन कुछ कैदियों को हटाकर दूसरे बैरक में रखा गया और जो बच गए उन पर 2 घंटे तक गोलियां बरसाई गई। इस घटना में कम से कम 1200 लोग मारे गए। मारे गए कैदियों की लाशों को जेल के अंदर ही दफन कर दिया गया और उनके परिवार तक को नहीं पता चला, क्योंकि मिलने की मनाही थी।

    अपनी सुरक्षा के प्रति सनकी था गद्दाफी

    गद्दाफी ने शुरू से जोर दिया कि वो व्यक्ति पूजा का घोर विरोधी है। लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया, वो निरंकुश तानाशाह बनता गया। खुद की सुरक्षा के प्रति उसकी सनक खतरनाक हद तक बढ़ती गई। गद्दाफी जब भी विदेश जाता था तो होटल में वो अपने साथ ले जाई गईं चादरें बिछवाता था। उसके बारे में यह भी कहानी मशहूर है कि एक बार उसने एक बड़े अरब नेता से हाथ मिलाने से पहले सफेद रंग का दस्ताना पहना था, ताकि उसके हाथों में कोई संक्रमण न हो जाए।

    गद्दाफी हमेशा खूबसूरत महिला अंगरक्षकों की टोली से घिरा रहता था। यूक्रेनी नर्स और सुनहरे बालों वाली अंगरक्षकों जैसे शौक ने जल्द ही विदेशी मीडिया में गद्दाफी को सुर्खियों में ला दिया। गद्दाफी का शासन सिद्धांत यही था कि अलग-अलग जनजातियों को आपस में भिड़वा दो और राज करो। अमेरिकी खुफिया एजेंसी द्वारा गद्दाफी का तख्ता पलटने के लिए कई प्रयास किए गए। उसके बाद से गद्दाफी ने धार्मिक समर्थन के लिए अंग्रेजी कैलेंडर के महीनों के नाम तक बदल दिए थे।

    गद्दाफ़ी के शासन के पतन की शुरुआत

    यह साफ है कि गद्दाफी की नीतियां विरोधियों का दमन करने वाली थीं। यही वजह थी कि उसे कई लोग सनकी भी कहते थे। धीरे-धीरे उसने कई देशों की सरकार को प्रतिबंधित कर दिया। नतीजा यह हुआ कि लीबिया की अर्थव्यवस्था बिगड़ने लगी। जनता फिर से त्रस्त होने लगी थी क्योंकि गरीबी, भ्रष्टाचार, भुखमरी की समस्या चरम पर थी, लेकिन आवाज नहीं उठा पा रही थी।

    फिर ट्यूनीशिया में 2010 में एक चिंगारी फूटी, जिसने सम्पूर्ण मिडल-ईस्ट में अरब स्प्रिंग को जन्म दिया। कई देशों में दशकों से चली आ रही तानाशाही सरकारें धीरे-धीरे खत्म होने लगी। ट्यूनीशिया से फैली अरब क्रांति से सबसे बुरी तरह लीबिया झुलसा। अरब स्प्रिंग की आग जब लीबिया में पहुंची तो इसने गद्दाफी को खत्म कर दिया। इसमें उसके तीन बेटे भी मारे गए।

    जब नाटो ने उठाया गद्दाफी के खात्मे का कदम

    इस अरब स्प्रिंग के बीच, पूर्वी लीबिया में व्यापक भ्रष्टाचार और बेरोजगारी के खिलाफ विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए। स्थिति गृहयुद्ध में बदल गई, जिसमें नाटो ने गद्दाफी विरोधी राष्ट्रीय संक्रमणकालीन परिषद (एनटीसी) के पक्ष में सैन्य रूप से हस्तक्षेप किया। अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने भी गद्दाफी के विद्रोहियों का समर्थन किया। पहले ही अरब क्रांति से कमजोर हो चुके लीबिया पर नाटो गठबंधन ने हवाई हमले शुरू कर दिए और गद्दाफी की सरकार को उखाड़ फेंका।

    लीबिया पर 42 वर्षों तक एकछत्र राज करने वाला तानाशाह मरने से पहले अपनी जान बख्शने के लिए सैनिकों के सामने खूब गिड़गिड़ाया। आखिरकार 20 अक्टूबर 2011 को गद्दाफी को उसके गृहनगर सिर्ते में मार गिराया गया। गद्दाफी के आखिरी शब्द थे- 'मुझे गोली मत मारो'।

    हालांकि, गद्दाफी की मौत पर अभी भी सवालिया निशान लगा हुआ है। गद्दाफी के मरने के बाद से ही लीबिया आंतरिक कलह से जूझ रहा है। उसके खात्मे के बाद यहां की प्रचुर तेल संपदा के भविष्य पर भी सवाल खड़े हो गए हैं। ऐसे में लीबिया और उसके लोगों का भविष्य वक्त ही तय करेगा। गद्दाफी के अंत से 'तेल के खेल' में उलझे अरब राष्ट्रों के लिए एक चेतावनी भी है जिसे अनसुना नहीं किया जा सकता है।

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