महानगरों में महामारी बनते कचरे के पहाड़, तकनीक दिलाएगी समस्याओं से छुटकारा
चूंकि पर्यावरण का मुद्दा अभी भी हमारी प्राथमिकताओं में नहीं आ सका है इसलिए शहरों में रोज जमा हो रहा कचरा धीरे-धीरे एक पहाड़ का रूप ले लेता है और फिर हमारी अनगिनत समस्याओं का केंद्र बन जाता है। फाइल

अभिषेक कुमार सिंह। तरक्की को दर्शाने के लिए ज्यादातर देश अपने शहरों, वहां की ऊंची आधुनिक इमारतों और उनके मजबूत इंफ्रास्ट्रक्चर को गिनाते हैं। इससे यह अंदाजा लगाया जाता है कि उस देश की अर्थव्यवस्था का क्या हाल है और वहां के नागरिकों का जीवनस्तर कैसा है। भारत में भी शहरीकरण की तेज होती रफ्तार के बीच केंद्र सरकार ने बीते कुछ वर्षो में स्मार्ट सिटी परियोजना और स्वच्छ भारत अभियान के जरिये यह संदेश देने की कोशिश की कि हमारे शहर दूसरे तमाम विकासशील और गरीब देशों के लिए रोल माडल हो सकते हैं। नि:संदेह ये अभियान हमारे शहरों की अवस्था में सुधार के कई मौके पैदा कर रहे हैं, पर इन्हीं सार्थक बदलावों के बीच जब हमारे महानगरों में कचरे के उठते पहाड़ नजर आते हैं और उनमें आग लगने की घटनाएं होती हैं तो विकास के दावे सवालों में घिर जाते हैं।
अभी कुछ ही दिन हुए हैं, जब देश की राजधानी दिल्ली के उत्तरी इलाके में स्थित भलस्वा लैंडफिल साइट (कचरे के विशालकाय ढेर) में भीषण आग लग गई। उसमें आग लगने के बाद नजदीक में स्थित एक स्कूल को अस्थायी रूप से बंद कर दिया गया। कहा गया कि आग के साथ पैदा हो रहे धुएं के कारण बच्चों को स्कूल में रखना उनकी सेहत को गंभीर खतरे में डालने वाला साबित होगा। असर सिर्फ स्कूली बच्चों पर नहीं पड़ रहा है, बल्कि उस लैंडफिल से लगती हुई कई कालोनियां हैं, जिनमें हजारों लोग रहते हैं। वे लोग कचरे के ढेर से निकलने वाले धुएं से सतत घिरे रहते हैं, जिस कारण न तो ठीक से सांस ले पाते हैं और न ही साफ देख पाते हैं। भलस्वा की तरह दिल्ली के पूर्वी इलाके में गाजीपुर लैंडफिल साइट भी है। इस साल ही उस पर आग लगने की तीन घटनाएं हो चुकी हैं, जिनमें से 28 मार्च को लगी आग को बुझाने में दो दिन से ज्यादा का वक्त लग गया था। ऐसी ही एक घटना मुंबई की देवनार लैंडफिल साइट में वर्ष 2016 में हुई थी। तब वहां महीनों तक कचरा जलता रहा था, जिसका धुआं मुंबई के बड़े इलाके में फैल गया था। आग लगने के अलावा कचरे के पहाड़ के अचानक ढहने के हादसे भी हो चुके हैं। वर्ष 2017 में गाजीपुर डंपिंग ग्राउंड में कूड़े के पहाड़ का एक हिस्सा ढहने से उसकी चपेट में कई कारें और बाइक आ गई थीं।
रोजगार पर भारी पड़ता कचरा : समस्या अकेले दिल्ली की नहीं है। देश की वाणिज्यिक राजधानी का दर्जा रखने वाले महानगर मुंबई के देवनार और मुलुंड डंपिंग ग्राउंड-दो ऐसे इलाके हैं, जहां कचरे के विशाल पहाड़ बन चुके हैं। उनके इर्दगिर्द आवासीय कालोनियां भी हैं। अहमदाबाद के जिस इलाके में शहर के कचरे को डंप किया जाता है, उसके ठीक नीचे बसे पिराना गांव में 16-20 हजार लोग रहते हैं। चूंकि हमारे देश में तमाम आह्वानों और योजनाओं के बावजूद कचरे के निस्तारण की ठोस व्यवस्था नहीं बन पाई है, इसलिए कचरे के ये पहाड़ बढ़ते ही जा रहे हैं। गैर-सरकारी संगठन सेंटर फार साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) ने वर्ष 2020 में अपने अध्ययन में पाया था कि भारत में ऐसे 3,159 कचरे के पहाड़ हैं, जिनमें 80 करोड़ टन कचरा मौजूद है। अंतरराष्ट्रीय पत्रिका-नेचर नवंबर 2013 में ही दावा कर चुकी है कि भारत दुनिया में सबसे बड़े कचरा उत्पादक देश बनने की ओर अग्रसर है।
द एनर्जी एंड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट के मुताबिक अगले 25 वर्षो में यानी 2047 तक भारतीय शहरों में कचरे का उत्पादन पांच गुना बढ़ जाएगा, लेकिन उसके निस्तारण की कोई ठोस व्यवस्था शायद तब तक न बन पाए। कचरे के मौजूदा ढेर कितने बड़े हैं, इसका एक अंदाजा मुंबई के देवनार डंपिंग ग्राउंड से लग जाता है। करीब 300 एकड़ इलाके में फैले देवनार के आठ कचरे के पहाड़ों में अनुमानत: एक करोड़ 60 लाख टन कूड़ा जमा है। वहां कचरे के पहाड़ों की औसत ऊंचाई 120 फीट तक है, जिनकी तलहटी में सैकड़ों झुग्गियां हैं और उनमें हजारों लोग रहते हैं। कचरे के पहाड़ों में जरूरी नहीं कि आग लगे या ये ढह जाएं, तभी उनसे कोई समस्या पैदा होती है। असल में लैंडफिल साइटों पर जमा कचरा जल्द निस्तारित नहीं किए जाने के कारण सड़ने लगता है। सड़ते कचरे से मीथेन, हाइड्रोजन सल्फाइड और कार्बन मोनोआक्साइड आदि जहरीली गैसें निकलती हैं। ये गैसें मानव स्वास्थ्य पर असर डालती हैं। इसके अलावा कचरे के ढेर में आग लगने की घटनाएं वायु प्रदूषण की समस्या को और गंभीर करती हैं। भारत के प्रदूषण नियामक के अनुसार वर्ष 2011 में ही शहरों में होने वाले वायु प्रदूषण में कचरे की आग से पैदा हुए पार्टिकुलेट मैटर (पीएम) का हिस्सा 11 फीसद तक था।
समाधान की जटिल राह : कचरे के ढेर से निजात देने की पहलकदमी अक्सर भ्रष्टाचार और राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव के आगे दम तोड़ देती है। हालांकि सरकारें इस समस्या के समाधान के लिए कटिबद्ध दिखती हैं। जैसे पिछले ही साल प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राष्ट्रीय स्वच्छता अभियान के लिए करीब 13 अरब डालर की राशि देने की घोषणा की थी। इस अभियान का उद्देश्य गाजीपुर, भलस्वा और देवनार जैसी लैंडफिल साइट को सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट में बदलना है। ऊपरी तौर पर योजना का मकसद सकारात्मक नजर आता है, लेकिन क्रियान्वयन के स्तर पर इसमें खामियां हैं। विशेषज्ञों के अनुसार छोटे शहरों में कचरा स्थलों को ट्रीटमेंट प्लांट में फिर भी बदला जा सकता है, लेकिन गाजीपुर, भलस्वा या देवनार जैसे कचरे के पहाड़ों को पूरी तरह हटाए बिना वहां ऐसे प्लांट लगाना आसान नहीं है। ऐसा करने के लिए शहरों से हर रोज भारी मात्र में निकलने वाले कूड़े के निस्तारण की व्यवस्था किसी अलग स्थान पर करनी होगी, जो कि पहले से ही आबादी का दबाव ङोल रहे महानगरों में संभव नहीं दिखता है। इससे संबंधित आंकड़ों से यह बात और स्पष्ट हो जाती है। असल में हमारे देश में प्रतिवर्ष औसतन 277 अरब किलोग्राम कचरा निकलता है। आकलन कहता है कि यह मात्र प्रति व्यक्ति करीब 205 किलोग्राम ठहरती है। समस्या यह है कि इस कचरे में से सिर्फ 70 फीसद ही जमा किए जाते हैं। शेष 30 फीसद कचरे खुले में फेंक दिए जाते हैं, जिससे रिसने वाले खतरनाक रसायन जमीन के अंदर और पानी में मिल जाते हैं। इस तरह जमा किए कचरे में से सिर्फ पांच फीसद कचरे की ही नियमित रिसाइक्लिंग हो पाती है।
प्रदूषण पैदा कर रहा कचरा : बात चाहे महानगरों, बड़े शहरों की हो या छोटे शहरों की, ज्यादातर जगहों पर खुले में जमा हो रहा कचरा पर्यावरण प्रदूषण पैदा करता है, जो अंतत: इंसानों में कैंसर जैसे रोग उत्पन्न करता है। चूंकि पर्यावरण का मुद्दा अभी भी हमारी प्राथमिकताओं में नहीं आ सका है, इसलिए ऐसे मामलों में अदालती कार्रवाई भी अक्सर बेहद सुस्त रहती हैं। जैसे मुंबई में देवनार डंपिंग ग्राउंड को बंद कराने के लिए करीब ढाई दशक से मामला अदालत में चल रहा है, लेकिन उसका स्थायी हल नहीं निकल सका है। हालांकि एक योजना जरूर है, जिसके अनुसार देवनार में कचरे से बिजली बनाने के दो प्लांट लगाए जाने हैं। इसी तरह वर्ष 2000 के बाद से ऐसे कई नियम पारित किए गए हैं, जिनमें देश की नगर पालिकाओं के लिए कचरे को संसाधित करना जरूरी बनाया गया है, लेकिन अधिकतर नगर पालिकाओं का संकट यह है कि उनके पास रोज आने वाले कचरे के ढेर के ट्रीटमेंट के लिए पर्याप्त संख्या में कचरा ट्रीटमेंट प्लांट (अपशिष्ट उपचार संयंत्र) नहीं हैं। ऐसे में रोज जमा होता कचरा धीरे-धीरे एक पहाड़ का रूप ले लेता है और अनगिनत समस्याओं का केंद्र बन जाता है।
वैसे तो जागरूकता और कड़े नियम-कानून हर समस्या का इलाज हो सकते हैं, लेकिन आज के युग में कचरे से जुड़ी समस्याओं का समाधान तकनीक में मिल सकता है। इनके कई स्तर हो सकते हैं। जैसे-पहले स्तर पर कचरे के ढेर के कारण पैदा होने वाली समस्याओं का पूर्वानुमान लगा सकते हैं। यानी भूस्खलन (कचरे के पहाड़ के ढहने) का पता लगाकर लोगों को वहां से समय रहते हटाया जा सकता है। इस समस्या का एक हल आस्ट्रेलियाई शोधकर्ताओं ने खोज है। उन्होंने आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस पर आधारित एक ऐसा साफ्टवेयर तैयार किया है, जो कचरे के ढेर में भूस्खलन लायक हलचल को समय रहते पकड़ सकता है और फिर लोगों को वहां से हटाया जा सकता है।
कचरे के इस्तेमाल, उसकी रिसाइक्लिंग और कचरे से बिजली बनाने के तकनीकी उपायों से भी इस समस्या को खत्म या कम किया जा सकता है। कचरे का एक इस्तेमाल सड़क बनाने में हो सकता है। कुछ ही समय पहले दिल्ली नगर निगम ने केंद्रीय सड़क अनुसंधान संस्थान के साथ मिलकर सड़क बनाने के एक पायलट प्रोजेक्ट की शुरुआत की है, जिसके तहत गाजीपुर लैंडफिल साइट के कचरे से राजधानी दिल्ली की सड़कें बनाई जाएंगी। इसके लिए करीब 25 हजार मीटिक टन कचरे के इस्तेमाल से कल्याणपुरी में एक किलोमीटर लंबी सड़का का निर्माण प्रस्तावित है, जो देश में अपनी तरह की पहली परियोजना है। इस परियोजना से न केवल कचरे का इस्तेमाल सुनिश्चित होगा, बल्कि गाजीपुर लैंडफिल साइट पर खड़े कचरे के पहाड़ की ऊंचाई भी कम हो सकेगी।
कचरे की रिसाइक्लिंग भी एक प्रभावी उपाय है। उल्लेखनीय है कि खुले में फेंके गए कचरे में निकल, जिंक, आर्सेनिक, क्रोमियम समेत कई जहरीली और भारी धातुएं होती हैं। फल-सब्जी के छिलकों, कागज, प्लास्टिक, कांच, धातुओं और इलेक्ट्रानिक उपकरणों की मौजूदगी के कारण कचरे का निपटान काफी कठिन हो जाता है। ऐसे में कचरे की छंटाई और उसके बाद रिसाइक्लिंग में मददगार तकनीक कचरे की समस्या से निजात दिलाने में काफी काम की साबित हो सकती है। इस मायने में लैंड फिल माइनिंग और बायोसेल डेवलपमेंट जैसी तकनीक काम आ सकती हैं। लैंड फिल माइनिंग में कचरे की खुदाई कर उसमें से प्लास्टिक, धातुओं, कागज, कपड़े, कांच, टूटे-फूटे एवं बेकार इलेक्ट्रानिक उपकरणों को अलग कर उन्हें वेस्ट मैनेजमेंट प्लांट में भेजा जाता है। इसके बाद इन सभी चीजों की या तो रिसाइक्लिंग की जाती है या बायोसेल डेवलपमेंट में एंजाइमों के इस्तेमाल से गलाकर खत्म किया जाता है।
[संस्था एफआइएस ग्लोबल से संबद्ध]
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