Trending

    Move to Jagran APP
    pixelcheck
    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    Martyrs Day: 'तू न रोना के तू है भगत सिंह की मां, मर के भी लाल तेरा मरेगा नहीं'

    By Kamal VermaEdited By:
    Updated: Tue, 23 Mar 2021 10:27 PM (IST)

    भगत सिंह समेत राजगुरू और सुखदेव की शहादत को ये देश कभी नहीं भुला सकेगा। आज ऐसे ही लोगों की वजह से भारत आजाद हवा में सांस लेता है। अंग्रेज हुकूमत इनकी लोकप्रियता से खौफजदा थी। इसलिए इन्‍हें तय समय से पहले ही फांसी दे दी गई थी।

    Hero Image
    युगों युगों तक याद रहेंगे भगत सिंह

    नई दिल्‍ली (ऑनलाइन डेस्‍क)। 'तू न रोना के तू है भगत सिंह की मां, मर के भी लाल तेरा मरेगा नहीं।' ये महज कुछ शब्‍द या कोई लाइन ही नहीं है बल्कि एक सच्‍चाई है। 90 वर्ष बाद भी भगत सिंह, समेत राजगुरू और सुखदेव हर किसी के जहन में जिंदा हैं। जब तक भारत और ब्रिटेन का वजूद रहेगा तब तक भगत सिंह का नाम कभी धूमिल नहीं हो सकेगा। ऐसा इसलिए क्‍योंकि भारत की आजादी के लिए उन्‍होंने हंसते-हंसते अपनी जान दी और ब्रिटेन को भगत सिंह इसलिए याद रहेंगे क्‍योंकि वो उनसे इस कदर खौफजदा थी कि तय समय से पहले ही उन्‍हें फांसी दे दी गई थी।

    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    भारत हो या पाकिस्‍तान भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू को दोनों ही देशों में शहीद का दर्जा प्राप्‍त है। इसका सुबूत है कि लाहौर के शहादत स्‍थल शादमान चौक को अब शहीद भगत सिंह चौक के नाम पर जाना जाता है। हालांकि इसके लिए लंबी कानूनी जंग लड़ी गई थी। ये कानूनी जंग शहीद सिंह मेमोरियल फाउंडेशन के चेयरमैन इम्तियाज राशिद कुरैशी ने लड़ी थी। उनकी इच्‍छा ये भी है कि पाकिस्‍तान सरकार इन तीनों को निशान-ए-हैदर का खिताब दे।

    भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव देश के वो जांबाज थे जो बैखौफ अंग्रेजों के साथ दो-दो हाथ करने से पीछे नहीं हटते थे। इन तीनों को सेंट्रल असेंबली में बम फेंकने का दोषी ठहराया गया था। ये घटना 8 अप्रैल 1929 की है, जब भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने अंग्रेज हुकूमत को नींद से जगाने के लिए सेंट्रल असेंबली में बम फेंके थे। इनका मकसद किसी की हत्‍या करना नहीं बल्कि ये बताना था कि भारत आजाद होकर रहेगा और अंग्रेजों को यहां से जाना ही होगा। ये सभी इसके अंजाम से बखूबी वाकिफ भी थे। इसके बाद भी इन्‍होंने वहां से भागने की कोशिश नहीं की।

    बम फेंकने के बाद इन्‍होंने आजादी का नारा लगाया और असेंबली में आजादी की मांग को लेकर पर्चे बांटे। इस घटना के बाद इन्‍हें गिरफ्तार कर लिया गया था। कोर्ट ने इन तीनों को दोषी मानते हुए फांसी की सजा सुनाई थी। कोर्ट के इस फैसले का हर स्‍तर पर जबरदस्‍त विरोध हुआ था। लेकिन भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव ने इसका कभी कोई विरोध नहीं किया। उन्‍हें इस बात का मलाल नहीं था कि उन्‍हें कुछ समय बाद फांसी दी जानी है बल्कि वो इस बात को लेकर खुश थे कि देश में जो आजादी की अलख जगी है उसके बाद अंग्रेज सरकार ज्‍यादा समय तक बनी नहीं रह सकेगी और एक दिन भारत आजाद हवा में सांस लेगा।

    हालांकि इस फांसी के लिए 24 मार्च 1931 का दिन तय किया गया था। लेकिन अंग्रेज भगत सिंह से इतने खौफजदा थे कि इन तीनों को 23 मार्च 1931 को लाहौर के सेंट्रल जेल में फांसी दे दी गई। इसकी जानकारी इनके परिजनों को भी नहीं मिल सकी। जिस वक्‍त इन तीनों को फांसी दी जा रही थी उस वक्‍त पूरा जेल आजादी के नारों से गूंज रहा था। जेलर के हाथ कांप रहे थे। लेकिन इन तीनों के चेहरे पर मौत का कोई डर नहीं था। जब इनसे पूछा गया कि कोई आखिरी इच्‍छा हो तो बताओ। तब भगत सिंह ने तीनों के हाथों को खोल देने और आपस में गले लगने की इजाजत मांगी थी, जिसको पूरा किया गया। इसके बाद जल्‍लाद ने कांपते हाथों से लीवर खींच दिया। तय समय से पहले फांसी दिए जाने के बाद भी अंग्रेज भगत सिंह के खौफ से आजाद नहीं हो सके। उन्‍हें डर था कि इसके बाद जब लोगों को पता चलेगा तो वहां पर हजारों लोग एकत्रित हो जाएंगे, जिन्‍हें रोकना उनके बस की बात नहीं होगी।

    28 सितंबर, 1907 को ब्रिटिश भारत के पंजाब प्रांत के लायलपुर जिले के बंगा गांव में शहीद-ए-आजम भगत सिंह का जन्म हुआ था। लाहौर के डीएवी स्‍कूल से उनकी पढ़ाई हुई। पंजाबी, हिंदी और अंग्रेजी में उन्‍हें महारत थी। कॉलेज में उन्‍होंने ने इंडियन नेशनल यूथ आर्गनाइजेशन का गठन किया। बेहद कम लोग इस बात को जानते हैं कि वो एक अच्छे थियेटर आर्टिस्ट भी थे। भगत सिंह महज 13 वर्ष की उम्र में ही आजादी की लड़ाई से जुड़ गए थे। 13 अप्रैल, 1919 को हुए जलियांवाला बाग में हुए नरसंहार की घटना ने भगत सिंह को अंदर तक हिला कर रख दिया था। वो महात्‍मा गांधी की बहुत इज्‍जत करते थे लेकिन आजादी पाने का तरीका दोनों का ही अलग था।

    22 वर्ष की उम्र में उनकी पहली बार गिरफ्तारी हुई थी। साइमन कमीशन का विरोध करने के दौरान जब 1928 में अंग्रेजों द्वारा बरसाई गई लाठियों से लाला लाजपत राय शहीद हो गए तो उन्‍होंने चंद्र शेखर आजाद के साथ मिलकर इसके जिम्‍मेदार एसीपी सॉडर्स को उसके किए की सजा देने की ठानी थी। 17 दिसंबर 1928 को करीब सवा चार बजे, सांडर्स के ऑफिस के बाहर भगतसिंह और आजाद ने उसके बाहर आने का इंतजार किया। जैसे ही वो बाहर आया तभी इन दोनों ने उसके सीने में गोलियां उतार कर लाला जी मौत का बदला लिया था।

    ये भी पढ़ें:- 

    जानिए- जाते-जाते भारत की टेंशन बढ़ा गए अमेरिकी रक्षा मंत्री लॉयड ऑस्टिन, अब क्‍या फैसला लेगा भारत 

    पाकिस्‍तान को क्‍यों हो रही भारत से दोस्‍ती की जरूरत महसूस और क्‍यों बदले हैं सुर, जानें- एक्‍सपर्ट व्‍यू 

    comedy show banner