जानें क्या है इच्छामृत्यु, 42 साल कोमा में रहीं अरुणा को नहीं मिली थी जिसकी इजाजत?
इस मामले ने देश में इच्छामृत्यु को लेकर गंभीर बहस शुरू की। हालांकि अदालत ने उनकी याचिका खारिज कर दी थी।
नई दिल्ली [जागरण स्पेशल]। 2009 में सुप्रीम कोर्ट में एक महिला अरुणा शानबाग के जीवन को समाप्त करने के लिए एक याचिका दायर की गई थी। अरुणा मुंबई के एक अस्पताल में नर्स थी। 1973 में अस्पताल के ही एक सफाईकर्मी ने उनके साथ दुष्कर्म करने की कोशिश की। अरुणा द्वारा प्रतिरोध जताने के बाद उन्हें गंभीर चोटें आईं। उनका शरीर लकवाग्रस्त हो गया और दिमाग मृत हो चुका था।
42 साल तक वह एक अस्पताल में जिंदा लाश की तरह भर्ती रहीं। हादसे के 27 साल बाद सन् 2011 को सुप्रीम कोर्ट ने अरुणा की मित्र पिंकी बिरमानी की ओर से दायर इच्छामृत्यु याचिका को स्वीकारते हुए मेडिकल पैनल गठित करने का आदेश दिया था। हालांकि 7 मार्च 2011 को कोर्ट ने अपना फैसला बदल दिया था। इस मामले ने देश में इच्छामृत्यु को लेकर गंभीर बहस शुरू की। हालांकि अदालत ने उनकी याचिका खारिज कर दी थी। 18 मई, 2015 को इनकी मौत हो गई।
केईएम अस्पताल के डीन डॉक्टर अविनाश सुपे ने भोईवाड़ा शमशान घाट में अरुणा के शरीर को मुखाग्नि दी। इस दौरान अरुणा की देखभाल करने वाली नर्सें गमगीन थीं उनकी आंखों से लगातार आंसू निकल रहे थे। साथ ही अरुणा शानबाग अमर रहे के नारे लग रहे थे। अंतिम संस्कार के वक्त अरुणा के परिजन भी मौजूद थे।
क्या है इच्छामृत्यु
असहनीय पीड़ा से मुक्ति के लिए जानबूझकर जीवन को समाप्त करने का फैसला यूथेनेसिया [इच्छामृत्यु] की श्रेणी में आता है।
श्रेणियां: व्यक्ति की सहमति या असहमति के आधार पर इसको प्रमुख रूप से दो श्रेणियों में बांटा जा सकता है -
स्वैच्छिक : यदि कोई मरीज असाध्य कष्ट से पीड़ित है और वह अपने जीवन को समाप्त करना चाहता है तो वह डॉक्टर की मदद से ऐसा कर सकता है।
- बेल्जियम, लग्जमबर्ग, हॉलैंड, स्विटजरलैंड, जर्मनी और अमेरिका के ओरेगन और वाशिंगटन राज्यों में इसको कानूनी मान्यता मिली हुई है।
गैर स्वैच्छिक : यदि किसी मरीज की ऐसी हालत नहीं है कि वह इसके लिए सहमति दे सके।
- हॉलैंड में विशेष परिस्थितियों में इसके लिए कानूनी प्रावधान किया गया है। इसके अलावा पूरी दुनिया में यह पूरी तरह से गैर कानूनी है।
प्रकार
पैसिव यूथेनेसिया
जीवन रक्षण प्रणाली को हटाकर प्राकृतिक रूप से मौत के लिए छोड़ दिया जाता है।
दवाएं बंद कर दी जाती हैं।
खाना और पानी बंद कर दिया जाता है।
एक्टिव यूथेनेसिया
मौत के लिए सीधे कदम उठाए जाते हैं। इसमें जहरीला इंजेक्शन भी शामिल हो सकता है।
क्या है लिविंग विल
इसे एडवांस मेडिकल डायरेक्टिव भी कहते हैं। यह किसी भी व्यक्ति के वे दिशानिर्देश होते हैं जिसमें वह घोषणा करता है कि भविष्य में किसी ऐसी बीमारी या दशा से अगर वह ग्रस्त हो जाता है जिसमें तमाम आधुनिक इलाजों के बावजूद सुधार मुश्किल हो, तो उसका इलाज किया जाए या न किया जाए।
दुनिया में कहां प्रावधान: ऑस्ट्रेलिया में ‘एडवांस डायरेक्टिव’ का प्रावधान है जिसमें लोगों को यह पहले ही तय करने की सहूलियत दी गई है कि भविष्य में उनका कैसे इलाज किया जाए। दरअसल लाइलाज या मरणासन्न स्थिति में हो सकता है कि व्यक्ति अपनी राय देने में असमर्थ हो, लिहाजा लिविंग बिल का प्रावधान है। पेशेंट सेल्फ डिटरमिनेशन एक्ट अमेरिकी नागरिकों को यह अधिकार देता है कि वे अपने स्वास्थ्य से जुड़े निर्णय कर सकें। इस कानून में एडवांस डायरेक्टिव या लिविंग बिल का प्रावधान है। इसी कानून की तर्ज पर कॉमन कॉज संस्था ने भी लिविंग बिल की मांग की है।
भारत में चर्चित मामले, जिन्होंने इच्छा मृत्यु की बहस को गंभीर किया
वेंकटेश: 2004 में आंध्र प्रदेश के शतरंज खिलाड़ी के वेंकटेश मैस्कुलर डिस्ट्रॉफी का शिकार हो गए थे। उनको सात महीने से भी ज्यादा समय तक जीवन रक्षक प्रणाली पर रखा गया था। उनकी दयामृत्यु की याचिका को आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट ने खारिज कर दिया था। अब उनकी मृत्यु हो चुकी है।
अमेरिका में
टेरी शियावो: 27 साल की उम्र में ही दिल का दौरा पड़ने के बाद जिंदा लाश बन गईं। फ्लोरिडा की एक अदालत ने खाना खिलाने की उनकी ट्यूब को हटाने का आदेश दिया। मामला राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हुआ। उन्हें जिंदा रखने के लिए तत्कालीन राष्ट्रपति बुश ने नए कानून की पहल की, लेकिन 2005 में फीडिंग ट्यूब हटने के 13 दिन बाद ही उनकी मौत हो गई।
करेन क्विनलैन: पिछली सदी के छठे दशक में इस मामले ने पूरे अमेरिका में मौत के अधिकार पर बहस छेड़ दी। 21 साल की करेन स्थायी कोमा में चली गईं। उनके माता-पिता उनका वेंटिलेटर हटाए जाने का मामला जीत गए।
स्पेन
रेमोन सैनपेड्रो : इनके गर्दन के नीचे पूरे शरीर को लकवा मार गया। उनके बारे में लाश से जुड़ा सिर जैसी बातें कही जाने लगीं। किसी मदद से आत्महत्या के लिए 29 साल लड़ाई लड़े। हालांकि मुकदमा हार गए। 1998 में इन्होंने खुद को जहर देने के लिए कई लोगों को जुटा लिया जिससे किसी पर भी आरोप न लग सके।
देश में अधिकार की लड़ाई
- 1994 पी रथिनम बनाम केंद्र सरकार मामले में सुप्रीम कोर्ट की दो जजों की एक बेंच ने आइपीसी के सेक्शन 309 (आत्महत्या का प्रयास) को गैर संवैधानिक करार दिया।
- 1996 ज्ञान कौर के मामले में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने 1994 के उस फैसले को पलट दिया। कहा कि जीवन के अधिकार में मरने का अधिकार नहीं शामिल है। साथ ही सेक्शन 309 की वैधता को बरकरार रखा।
- 1996 इसी फैसले ने लाइलाज रोगियों को लेकर यूथेनेसिया पर चर्चा को हवा दी। कहा कि इसे कानून बनाकर ही अनुमति दी जा सकती है।
- 27 अप्रैल, 2005: इंडियन सोसायटी ऑफ क्रिटिकल केयर मेडिसिन द्वारा ‘इंड ऑफ लाइफ’ विषय पर दिल्ली में एक सेमिनार हुआ। इसमें तत्कालीन कानून मंत्री एचआर भारद्वाज ने इस बात को लेकर सहमति जताई कि मौत की ओर बढ़ रहे किसी मरीज से जीवन रक्षक प्रणाली को हटाए जाने को लेकर फ्रेमवर्क की जरूरत है। विधि आयोग से ऐसा किए जाने की अपेक्षा की।
- 28 अप्रैल, 2006: एक्टिव यूथेनेसिया को लेकर विधि आयोग ने एक कानूनी मसौदा पेश किया। इसमें कहा गया कि ऐसी कोई भी याचिका हाईकोर्ट में डाली जानी चाहिए जो विशेषज्ञों की राय के बाद इस पर निर्णय ले।
- 16 दिसंबर, 2009: अरुणा शानबाग को इच्छा मृत्यु की अनुमति देने के मामले में पिंकी विरानी की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने नोटिस जारी किया।
- 2 मार्च, 2011: विरानी की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुरक्षित किया।
- 7 मार्च, 2011: एक्टिव यूथेनेसिया को सुप्रीम कोर्ट ने अनुमति दी। हत्या के प्रयास को अपराध ठहराए जाने को लेकर दिशानिर्देश जारी किए।
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