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कभी भारत का हिस्सा था नेपाल का 'जनकपुर', एक संधि से चला गया उधर

नेपाल को मेची नदी के पूर्व और महाकाली नदी के पश्चिम के बीच का तराई क्षेत्र लौटा दिया गया था। इस कारण मिथिला का एक बड़ा भूभाग नेपाल में शामिल कर दिया गया, जिसमें जनकपुर भी था।

By Kamal VermaEdited By: Published: Fri, 18 May 2018 12:35 PM (IST)Updated: Sat, 19 May 2018 08:39 AM (IST)
कभी भारत का हिस्सा था नेपाल का 'जनकपुर', एक संधि से चला गया उधर

[पुष्परंजन]। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस जनकपुर से कूटनीति के बदले देवनीति का श्री गणेश किया, 1816 से पहले वह भारत का हिस्सा हुआ करता था। 2 दिसंबर, 1815 को सुगौली संधि पर हस्ताक्षर के बाद 4 मार्च, 1816 को इसका अनुमोदन किया गया था। नेपाल को मेची नदी के पूर्व और महाकाली नदी के पश्चिम के बीच का तराई क्षेत्र लौटा दिया गया था। इस कारण मिथिला का एक बड़ा भूभाग नेपाल में शामिल कर दिया गया, जिसमें जनकपुर भी था। बदले में काली और राप्ती नदियों के बीच का तराई क्षेत्र, मेची और तीस्ता के बीच का मैदानी इलाका, बुटवल को छोड़कर राप्ती व गंडकी के बीच का तराई क्षेत्र ब्रिटिश भारत के हवाले कर दिया गया। पीएम मोदी ने जिस भक्तिभाव से अपनी यात्रा को पशुपतिनाथ और मुक्तिनाथ तक जारी रखी, ऐसा किसी प्रधानमंत्री ने अब तक नहीं किया।

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भक्त भी विभोर

इससे राम मंदिर आंदोलन के भक्त भी विभोर थे। मोदी ने जनकपुरधाम से अयोध्या के लिए बस यात्रा की भी शुरुआत की। अयोध्या में उस बस के पहुंचने पर उसका स्वागत सीएम योगी आदित्यनाथ ने किया। यह वास्तव में राजनीति या कूटनीति नहीं, देवनीति थी। मगर क्या कभी ऐसा प्रयास किया जाना चाहिए कि कम से कम जनकपुर जैसा पौराणिक धर्मस्थल वापस भारत का भूभाग बन पाए? राम जन्मभूमि आंदोलन के लोगों को इस पर विचार करना चाहिए। यह एक ऐसी मुक्ति यात्रा होगी, जो त्रेतायुग से हमारी ऐतिहासिक धरोहर रही है।

1816 की संधि

अंग्रेज आए, 1816 की संधि की और राजा जनक की नगरी, भगवान राम की ससुराल, नेपाल को सौंप दिया। अंग्रेजों ने जहां भी संधि की, कोई न कोई झगड़ा फंसाकर रखा। लुंबिनी के साथ भी ऐसा ही किया। भगवान बुद्ध की जन्मस्थली लुंबिनी, भारत का हिस्सा हुआ करता था, उसे भी 1816 की सुगौली संधि में अंग्रेजों ने नेपाल को सौंप दिया। सबसे बड़ी बात यह है कि जनकपुर, हिंदुस्तान की 80 फीसद हिंदू आबादी की आस्था का केंद्र है, वह कैसे वापस भारत को मिले, इस बात को प्रधानमंत्री मोदी के रहते आगे बढ़ाना चाहिए।

नेपाल यात्रा से संदेश

प्रधानमंत्री मोदी की नेपाल यात्रा से एक संदेश तो गया कि भारतीय कूटनीति का ढब बदल रहा है। कूटनीति का नया नाम नेपाल के जनकपुरधाम में ही रखा गया ‘देवनीति’! यानी ऐसी विदेश नीति जिसमें देव स्थानों की बड़ी भूमिका हो, मगर क्या नाम बदल देने मात्र से भारत-नेपाल के बीच जिस तरह के दांव-पेच चीन पाकिस्तान रच रहे हैं, उससे हम पार पा जाएंगे? जनकपुरधाम से मुक्तिनाथ दर्शन की व्याख्या मोदी कूटनीति के टीकाकार यों कर रहे हैं, जैसे हिंदुत्व का एक विराट फैलाव तराई से लेकर चीन सीमा को छूने वाली मुस्तांग तक है।

संवेदनशील इलाका

मुस्तांग और खाम एक ऐसा संवेदनशील इलाका रहा है जो 1950 के दौर में चीन विरोधी तिब्बतियों का एपीसेंटर बना हुआ था। इस इलाके के खंपा लड़ाके सीआइए की मदद से एक बड़ा युद्ध लड़ चुके हैं। यों पीएम मोदी बौद्धों और विष्णुभक्तों के आस्था का केंद्र मुक्तिनाथ गए थे, पर चीन की खुफिया नजर यहां की सारी गतिविधियों पर रही है। चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग से दुरुस्त होते संबंधों का मतलब यह नहीं कि बीजिंग नेपाल पर से अपनी पकड़ ढीली कर ले।

वन बेल्ट वन रोड

चीन इस इलाके में वन बेल्ट वन रोड (ओबीओआर) को कैसे आगे बढ़ाए, यह शी चिनफिंग की व्यूह रचना का एक बड़ा हिस्सा रहा है? 27 मार्च, 2017 को माओवादी नेता प्रचंड और शी की बीजिंग में मुलाकात का सबसे बड़ा एजेंडा ‘ओबीओआर’ था। तिब्बत से नेपाल तराई तक सर्वे और ब्लूप्रिंट को ध्यान से देखिए तो लग जाता है कि 20 साल में चार हजार किलोमीटर ‘चीनी रेल डेवलमेंट प्लान’ क्या था? केरूंग से काठमांडू, पोखरा, बुटवल और फिर तराई में मेची से महाकाली तक चीनी रेल का विस्तार। यह तो डोकलाम की भू-सामरिक रणनीति से भी घातक है। इससे दिल्ली समेत उत्तर भारत के किसी भी शहर तक चीनी पहुंच कितनी आसान हो जाती है।

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