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    कुछ ऐसे थे महान लेखक खुशवंत सिंह जिन्हें कुछ बातों का था मलाल

    By Lalit RaiEdited By:
    Updated: Fri, 02 Feb 2018 05:20 PM (IST)

    खुशवंत सिंह की लेखनी पर बहुत से लोग उनकी आलोचना करते थे। लेकिन एक बात ये भी है वो एक जिंदादिल इंसान थे।

    कुछ ऐसे थे महान लेखक खुशवंत सिंह जिन्हें कुछ बातों का था मलाल

    नई दिल्ली [स्पेशल डेस्क]। कहा जाता है कि महान दार्शनिक सुकरात ईश्वर में विश्वास नहीं करते थे। लेकिन जब राजद्रोह के आरोप में उन्हें विष का प्याला दिया गया तो उन्होंने अपने शिष्य से बकरे की बलि देने को कहा। सुकरात के दृष्टिकोण में इस तरह के बदलाव पर उनका शिष्य हैरान था। कहने का अर्थ ये है कि जीवन पर नास्तिक विचार का प्रसार करने वाले सुकरात को दैवीय शक्ति पर भरोसा हो चला था, ठीक वैसे ही मशहूर लेखक खुशवंत सिंह अपनी किताब द लेसंस ऑफ लाइफ में उन्होंने दुख जताया था कि उन्होंने अपने शुरुआती जीवन में कई बुरे काम किए जैसे गोरैया, बत्तख और पहाड़ी कबूतरों को मारना। उन्होंने लिखा है कि मुझे इस बात का भी दुख है कि मैं हमेशा अय्याश व्यक्ति रहा।

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    वो लिखते हैं कि मैंने कभी भी इन भारतीय सिद्धांतों में विश्वास नहीं किया कि मैं महिलाओं को अपनी मां, बहन या बेटी के रूप में सम्मान दूं। उनकी जो भी उम्र हो मेरे लिए वे वासना की वस्तु थीं और हैं।  अगर वो जिंदा होते तो जीवन के 103 बसंत देख चुके होते। हम आपको उनके जीवन की कुछ अनछुए पहलुओं से रूबरू कराएंगे।

    ऐसे थे खुशवंत सिंह

    देश के जाने-माने लेखक, कवि और स्तंभकार खुशवंत सिंह जन्म 2 फरवरी 1915 को हुआ था। खुशवंत सिंह भले ही आज हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी रचनाएं जिंदा हैं। ट्रेन टू पाकिस्तान और कंपनी ऑफ वूमन जैसी बेस्टसेलर किताब देने वाले सिंह ने 80 किताबें लिखीं। अपने कॉलम और किताबों में संता-बंता के चरित्र से लोगों को गुदगुदाया भी। उन्हें आज भी ऐसे शख्स के तौर पर पहचाना जाता है, जो लोगों को चेहरे पर मुस्कान ला दें। वो अपने अंतिम दिनों मे कहा करते थे कि जिस्म बूढ़ा हो चुका है लेकिन आंखों में बदमाशी आज भी मौजूद है। 

    वो तीन चीजों से करते थे जिसमें पहला दिल्ली से लगाव, दूसरा प्यार ‘लेखन’ और तीसरा खूबसूरत महिलाएं थीं। वो खुद को दिल्ली का सबसे यारबाज और दिलफेंक बूढ़ा मानते थे। अपनी जिंदगी की आखिरी सांस तक उन्होंने लिखना नहीं छोड़ा। वह 99 साल की उम्र तक भी सुबह चार बजे उठ कर लिखना पंसद करते थे।

    खुशवंत सिंह का बचपन से ही राजनीति से नाता था। उनके चाचा सरदार उज्जवल सिंह पंजाब और तमिलनाडु के राज्यपाल रहे थे। राजनीतिक पृष्ठभूमि की वजह से खुशवंत सिंह भी राजनीति के मैदान में उतरे। खुशवंत सिंह 1980 से 1986 तक राज्य सभा के सदस्य रहे। इस दौरान उन्होंने अपनी बात को हमेशा संसद में रखा। उन्हें 2007 में पद्म विभूषण पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया।

     चार साल में ही छोड़ी विदेश सेवा की नौकरी

    खुशवंत सिंह ने अपने करियर की शुरुआत बतौर वकील की थी। शुरुआत में उन्होंने आठ साल तक लाहौर कोर्ट में प्रैक्टिस की थी। इसके बाद उन्होंने कुछ दिनों के लिए वकालत छोड़ दी।वकालत करते हुए ही खुशवंत सिंह ने विदेश सेवा के लिए की तैयारी शुरू कर दी थी। वह 1947 में इसके लिए चुने गए। उन्होंने स्वतंत्र भारत में सरकार के इंफॉरमेशन ऑफिसर के तौर पर टोरंटो और कनाडा में सेवाएं दी। 

    खुशवंत सिंह मानते थे कि भगवान नाम की कोई चीज नहीं होती है। वह मानते थे कि जो जितनी और जिस तरह से मेहनत करता है उसे उसी हिसाब से परिणाम मिलता है। उनका मानना था कि पुनर्जन्म जैसी भी कोई चीज नहीं होती है। खुशवंत सिंह को लगता था कि उन्होंने बेकार के रिवाजों और सामाजिक बनने में अपना बहुमूल्य समय बर्बाद किया और वकील एवं फिर राजनयिक के रूप में काम करने के बाद लेखन को अपनाया। उन्होंने लिखा है कि मैंने कई वर्ष अध्ययन और वकालत करने में बिता दिए जिसे मैं नापसंद करता था। मुझे विदेशों और देश में सरकार की सेवा करने और पेरिस स्थित यूनेस्को में काम करने का भी दुख है।

    1974 में उन्हें पद्म भूषण पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। लेकिन जब केंद्र सरकार ने अमृतसर के स्वर्ण मंदिर पर ब्लू स्टॉर ऑपरेशन को अंजाम दिया, तो उन्होंने पुरस्कार वापस लौटा दिया। उसके बाद वर्ष 2007 में पद्म विभूषण से भी सम्मानित किया गया।