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अब भी हकीकत से कोसों दूर है दवाइयों की सुरक्षा व गुणवत्ता को बरकरार रखना

ब्रांडेड जेनेरिक दवाओं और जेनेरिक दवाओं के फर्क को हमें समझना होगा ताकि भारतीय हेल्थकेयर सिस्टम के प्रति व्यापक भरोसा कायम हो सके

By Kamal VermaEdited By: Published: Fri, 03 Aug 2018 12:57 PM (IST)Updated: Fri, 03 Aug 2018 12:57 PM (IST)
अब भी हकीकत से कोसों दूर है दवाइयों की सुरक्षा व गुणवत्ता को बरकरार रखना
अब भी हकीकत से कोसों दूर है दवाइयों की सुरक्षा व गुणवत्ता को बरकरार रखना

आमिर उल्लाह खान। इस साल के वार्षिक बजट में यह साफ हो गया कि स्वास्थ्य के क्षेत्र को बेहद महत्वपूर्ण माना गया है। तभी इसमें पब्लिक हेल्थकेयर सिस्टम को विकसित करने के लिए प्राइवेट-पब्लिक पार्टनरशिप को लांच किया गया। केंद्र सरकार ने स्वास्थ्य के क्षेत्र में सुधार करने और लोगों तक सुविधाएं पहुंचाने के लिए कई कदम उठाए हैं। इन्हीं अभियानों में जेनेरिक दवाओं को बढ़ावा देने के लिए जन औषधि अभियान को दोबारा लांच किया गया। इसके पीछे यह मंशा थी कि आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों को कम दाम में दवाएं उपलब्ध हो सकें। इन्हीं प्रयासों को मजबूत करने के लिए फार्मास्यूटिकल नीति भी एक अन्य प्रयास है। किंतु समस्या यह है कि भारत में दवाइयों की कीमतों में कमी करने के बावजूद हेल्थकेयर के लिए दवाइयों की सुरक्षा व गुणवत्ता को बरकरार रखना हकीकत से कोसों दूर है। सरकार को इस मुद्दे को समझने और समस्याओं का समाधान तलाशने की जरूरत है। सरकार व लोगों को यह बताना बहुत आवश्यक है कि सिर्फ कीमतों पर ध्यान देने से असुरक्षित व कम स्टैंडर्ड की दवाओं का रिस्क बढ़ सकता है।

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जेनेरिक दवाओं का प्रमोशन 

जेनेरिक दवाओं को प्रमोट करना पहली नजर में सही दृष्टिकोण लगता है और इसे बेहद सरल भी माना जाता है, लेकिन लंबे समय के लिए यह लागू करना काफी संशय पैदा करता है, क्योंकि इससे हेल्थकेयर सिस्टम को कोई प्रोत्साहन नहीं मिलता। सरकार को हेल्थकेयर बुनियादी सुविधाओं व हेल्थकेयर प्रोफेशनल्स के प्रशिक्षण में निवेश करने के अलावा दवाओं की गुणवता और सर्जिकल प्रोटोकोल को सख्ती से लागू करना चाहिए। अगर हम हकीकत में देखें तो जन औषधि अभियान 2008 में यूपीए सरकार ने लांच किया था जिसे बाद में भाजपा ने साल 2016 में दोबारा लांच कर दिया। इसके बावजूद यह कहना मुश्किल है कि यह योजना सफल है। इस अभियान का मकसद विशेष केंद्रों के माध्यम से लोगों को कम कीमतों पर गुणवत्तायुक्त दवाएं प्रदान करना है। हालांकि मरीजों की अकसर शिकायत रहती है कि इन केंद्रों में दवाओं का स्टॉक खराब मिलता है या कई महत्वपूर्ण दवाएं उपलब्ध नहीं होतीं।

जन औषधि स्टोर

हाल ही में आई एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले 3 सप्ताह में जन औषधि स्टोर से गुणवत्ता की कमी के चलते पांच दवाइयां वापस मंगाई गईं। इसके अलावा जनवरी और मार्च के बीच छह बार दवाइयां वापस मंगाई गईं और कुल मिलाकर साल 2018 के पहले चार महीनों में यह आंकड़ा 11 हो चुका है। भारत का ब्यूरो ऑफ फार्मा इस अभियान को लागू करने के लिए जिम्मेदार है और फिलहाल कोई भी गुणवत्ता नियंत्रण, नियमों से जुड़े मुद्दों या दवाओं की खरीद का नेतृत्व नहीं कर रहा तो फिर इन दवाइयों की सुरक्षा व प्रभाविकता को सुनिश्चित करने के लिए कौन जिम्मेदार होगा? सोशल मीडिया पर ब्रांडेड जेनेरिक और शुद्ध जेनेरिक की कीमतों की तुलना करते हुए काफी कुछ लिखा जाता है। हालांकि कीमतों की तुलना करते समय उसमें गुणवत्ता का बिंदु अकसर छोड़ दिया जाता है। विकसित देशों की बात करें तो ब्रांडेड दवाओं और उसके जेनेरिक में काफी फर्क होता है, क्योंकि जेनेरिक दवाओं को एफडीए कड़े मापदंडों की कसौटी पर मापकर ही मंजूरी देता है।

सुरक्षा को लेकर कोई चिंता नहीं

लेकिन भारत में ऐसा नहीं होता। यहां दवाइयों की गुणवत्ता और सुरक्षा को लेकर कोई चिंता नहीं है। पब्लिक हेल्थ सर्विसेज में मुफ्त जेनेरिक दवाइयां देना बढ़िया है, लेकिन इन दवाइयों की प्रभाविकता पर संशय है जो सेहत को नुकसान पहुंचा सकती है। अभी तक राज्यों में खराब गुणवत्ता या घटिया गुणवत्ता की दवाइयों पर कोई गहन अध्ययन नहीं किया गया है और न ही इसे परिभाषित किया गया है। इसलिए दवाइयों के लिए रेगुलेटरी सिस्टम न होने की वजह से अभी तक भारतीय डॉक्टर कंपनी की साख पर ही दवाइयों की गुणवत्ता को मापते हैं। कई बार दवा निर्माता कुछ गुणवत्ता का ध्यान रखते हैं, लेकिन ठीक से रखरखाव न करने या सप्लाई चैन में दिक्कत आने पर रोगियों को जो दवाई मिलती है, उसमें एक्टिव इनग्रेडिएंट की प्रभाविकता खत्म हो जाती है। इसके अलावा दवा निर्माताओं के निर्माण स्थल पर नियमित चैकिंग न करने और सुविधाओं की कमी के चलते प्रयोगशालाओं में दवाओं की टेस्टिंग सही न होने से समस्या ज्यादा बदतर हो जाती है। निर्माण करने वाली कई यूनिट डब्लूएचओ के गुड्स मैन्युफैक्चरिंग प्रैक्टिस (जीएमपी) के अनुरूप भी नहीं है।

जीएमपी मापकों पर खरी

भारत में करीब 12,000 निर्माण यूनिट हैं, जिनमें से सिर्फ 25 फीसद ही जीएमपी मापकों पर खरी उतरती हैं। देश में कुछ ही नेशनल एक्रेडिट लैब हैं। ऐसे में दवाओं की गुणवत्ता को बेहतर बनाने के लिए भारत में निर्माण यूनिट की लगातार समीक्षा करना जरूरी है ताकि रोगियों की सुरक्षा सुनिश्चित हो और क्लिनिकल रिसर्च की दशा में सुधार हो सके। इसलिए ड्रग रेगुलेटरी और टेस्टिंग के बुनियादी ढांचे को बेहतर बनाने के लिए निवेश की जरूरत है। ब्रांडेड जेनेरिक दवाएं रिसर्च आधारित कंपनियों की होती हैं, जो उच्च गुणवत्ता के साथ विश्वसनीयता प्रदान करती हैं। प्रत्येक रोगी के लिए जरूरी है कि उसे गुणवत्तायुक्त, सुरक्षित और प्रभावशील, बेहतर तरीके से अवशोषित और कम साइड इफैक्ट्स वाली दवाओं का फायदा मिले।

जेनेरिक दवाओं के फर्क को समझना होगा

इसके लिए रोगियों को ब्रांडेड जेनेरिक दवाओं और जेनेरिक दवाओं के फर्क को समझना होगा और उन्हें जागरूक करना होगा ताकि लोगों में भारतीय हेल्थकेयर सिस्टम के प्रति व्यापक भरोसा कायम हो सके। हर साल कंपनियां, विश्वविद्यालय और सरकारें नवचार लाने और लाखों लोगों की जिंदगियाें में सुधार करने के लिए करोड़ों खर्च करती हैं। हालांकि निरंतर अनुसंधान और मेडिकल नवाचार स्थाई बिजनेस माहौल प्रदान करते हैं। हमें नई खोजों को नहीं रोकना चाहिए और हेल्थकेयर से जुड़े निर्णय लेने के लिए विज्ञान और सुबूतों को आगे रखना चाहिए, तभी हम देश के ग्रामीण इलाकों में नजरअंदाज हो रही बीमारियों का इलाज करने में सक्षम हो सकते हैं।

(लेखक इक्वीटस के डायरेक्‍टर हैं) 

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