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    जेनेरिक दवाओं को लेकर बड़ी पहल, लेकिन इसके बारे में कितना जानते हैं आप

    By Kamal VermaEdited By:
    Updated: Tue, 24 Jul 2018 12:46 PM (IST)

    लगातार बढ़ती जनसंख्या के चलते देश के सामने एक बड़ी चुनौती स्वास्थ्य के देखभाल की भी है। देश की इतनी बड़ी आबादी को स्वास्थ्य सहूलियतें मुहैया करा पाना आसान नहीं था, लिहाजा स्वास्थ्य सेवा के लिए निजीकरण की राह खोली गई।

    जेनेरिक दवाओं को लेकर बड़ी पहल, लेकिन इसके बारे में कितना जानते हैं आप

    शिल्प कुमार। लगातार बढ़ती जनसंख्या के चलते देश के सामने एक बड़ी चुनौती स्वास्थ्य के देखभाल की भी है। चूंकि सरकारी क्षेत्र द्वारा देश की इतनी बड़ी आबादी को स्वास्थ्य सहूलियतें मुहैया करा पाना आसान नहीं था, लिहाजा स्वास्थ्य सेवा के लिए निजीकरण की राह खोली गई। हालांकि पहले से भी चिकित्सक अपनी तरह से निजी प्रैक्टिस कर ही रहे थे। बहरहाल निजीकरण के बाद उभरे विशाल स्वास्थ्य बाजार में बढ़ी दवाओं और दूसरे स्वास्थ्य सामानों की मांग ने इसे बड़ा बना दिया। आज देश का घरेलू फार्मास्युटिकल बाजार लगभग एक लाख करोड़ रुपये का है। जिसका 90 फीसद हिस्सा ब्रांडेड दवाओं का है। इसमें सबसे ज्यादा खर्च ग्रामीण इलाकों में हो रहा है, लेकिन इस दिशा में एक बड़ी पहल जेनेरिक दवाओं की हुई है।

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    जब कोई दवा कंपनी किसी बीमारी के लिए अपने शोध के द्वारा कोई नई दावा विकसित कर अपने उस अनुसंधान का पेटेंट (एक निश्चित अवधि के लिए बनाने व बेचने का एकाधिकार) हासिल कर लेती है तो वह ब्रांडेड दवा कहलाती है। ज्ञात हो कि पेटेंट दवा निर्माण प्रक्रिया का होता है न कि उसके सक्रिय घटकों का। पेटेंट की हुई दवा को बाजार में लाने के लिए शोध, विकास, विपणन व प्रमोशन पर बहुत बड़ी राशि खर्च करनी पड़ती है। बिना पेटेंट की बनाई जाने वाली दवा जेनेरिक होती है जो ब्रांडेड दवा की कॉपी होती है। जेनेरिक दवाइयां गुणवत्ता में किसी भी प्रकार से ब्रांडेड दवाओं से कम नहीं होतीं। वे उतनी ही असरदार होती हैं, जितनी ब्रांडेड दवाएं। यहां तक कि उनके दोष, प्रभाव-दुष्प्रभाव, सक्रिय तत्व आदि ब्रांडेड दवाओं के जैसे ही होते हैं।

    लोगों को गलतफहमी है कि जेनेरिक दवाइयों का उत्पादन खराब उत्पादन प्रक्रियाओं में किया जाता है या उनकी गुणवत्ता ब्रांडेड दवाओं की तुलना में कमतर होती है या जेनेरिक दवाओं का असर देर से होता है। जेनेरिक दवाएं सस्ती होने के कारण भी लोगों को गलतफहमी रहती है कि उनकी गुणवत्ता व प्रभाव कम होगा, जबकि ऐसा नहीं है। जेनेरिक दवाइयां सस्ती होने का कारण है कि उनका निर्माण करने वाली कंपनियों को उनके शोध, विकास, विपणन व प्रचार पर खर्च नहीं करना पड़ता। जब उसी दवाई को कई दवा निर्माता कंपनियां बना कर बेचना शुरू कर देती हैं तो बाजार की प्रतिस्पर्धा के कारण उसकी कीमत और भी कम हो जाती है। किसी रोग विशेष के लिए अनुसंधान के बाद एक रासायनिक तत्व/यौगिक को दवाई के रूप में देने की संस्तुति की जाती है।

    इसे अलग-अलग कंपनियां अलग-अलग नामों से बेचती हैं। जेनेरिक दवाओं का नाम उस औषधि के सक्रिय घटक के नाम के आधार पर एक विशेषज्ञ समिति द्वारा तय किया जाता है, जो पूरे विश्व में समान होता है। किसी बीमारी के लिए डॉक्टर जो दवा लिखते हैं, वही वाली जेनेरिक दवाई उससे काफी कम दाम पर बाजार में आसानी से उपलब्ध होती है। यह अंतर दो से दस गुना तक हो सकता है। देश की लगभग सभी दवा कंपनियां ब्रांडेड के साथ-साथ जेनेरिक दवाएं भी बनाती हैं। ज्यादा लाभ के चक्कर में डॉक्टर, कंपनियां, दवा विक्रेता लोगों को अंधेरे में रखते हैं। जानकारी न होने के कारण अधिकांश लोग दवा विक्रेताओं से महंगी दवाएं खरीदते हैं।

    यदि सभी डॉक्टर मरीजों को जेनेरिक दवा लिखने लगे तो चिकित्सा व्यय में भारी कमी होगी, जिससे देश के करोड़ों लोगों को लाभ होगा। देश की दवाइयों की घरेलू खपत 1,00,000 करोड़ में से 90 फीसद ब्रांडेड दवाओं का है और उसका आधा करीब 50,000 करोड़ रुपये का दवा बाजार निश्चित खुराक संयोजन (एफडीसी) दवा का है। एफडीसी ऐसी दवा को कहते हैं, जिसमें दो या दो से ज्यादा सक्रिय औषधियां होती हैं जो एक गोली में विद्यमान होती हैं। भारत में फार्मास्युटिकल उद्योग 2017 में लगभग 33 अरब डॉलर था, जिसके 2020 तक 55 अरब डॉलर होने की संभावना है। इसी तरह इस उद्योग का निर्यात 2017-18 में लगभग 17.25 अरब डॉलर था, जो 2020 तक बढ़कर 20 अरब डॉलर होने की संभावना है। ध्यान देने की बात है कि इस निर्यात का लगभग 55 फीसद जेनेरिक दवाओं का है, वहीं शेष 45 फीसद थोक दवाओं का है।

    आपको जानकार ताज्जुब होगा कि जिस भारत में अब भी करोड़ों लोगों तक बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं पहुंच पाई हैं, उसी भारत में बनी जेनेरिक दवाओं की अमेरिका की जेनेरिक दवाओं की खपत में हिस्सेदारी 40 फीसद है, जबकि ब्रिटेन की सभी दवाइओं की आवश्यकता का 25 फीसद आपूर्ति भारत ही करता है। इसके अलावा भारत दुनिया की जेनेरिक दवाओं की कुल आवश्यकता का 20 फीसद आपूर्ति करता है। पिछले वित्तीय वर्ष के आंकड़ों के अनुसार भारत का फार्मा उद्योग विश्व के 200 देशों को 76,700 करोड़ रुपये का निर्यात करता है। सस्ती दवा उपलब्ध कराने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वयं विशेष रुचि ले रहे हैं। इसके लिए बड़ी संख्या में जन-औषधि केंद्र खोले जा रहे हैं, जिनके माध्यम से सस्ती दरों पर गुणवत्ता युक्त जेनेरिक दवाओं की आपूर्ति सुनिश्चित की जा सके। इन जन-औषधि केंद्रों में 700 से भी ज्यादा दवाएं और लगभग 200 सर्जिकल उपकरण भी उपलब्ध कराए जा रहे हैं।

    यदि चिकित्सक को जेनेरिक दवा के साथ-साथ अभी निजी एवं सरकारी अस्पतालों में जेनेरिक दवा स्टोर खोलना आवश्यक कर दिया जाए और ये जेनेरिक दवाओं के स्टोर का लाइसेंस बेरोजगार और सेवानिवृत्त फार्मेसी डिग्री/डिप्लोमा वालों को दे दिया जाय तो स्थिति बेहतर हो सकती है। इसके अतिरिक्त सभी सरकारी/निजी अस्पतालों, नर्सिग होम एवं क्लीनिकों के परिसर के आसपास जेनेरिक मेडिकल स्टोर खोलने को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। देश भर में आज लगभग 8 लाख मेडिकल स्टोर्स हैं। यदि उनको भी जेनेरिक दवाएं रखने और बेचने के लिए प्रोत्साहित किया जाय तो स्थिति और बेहतर होगी। ऐसी वेबसाइट एवं एप भी बनाए जा सकते हैं, जिनमें कोई भी ब्रांडेड दवा का नाम डालने पर उसका जेनेरिक विकल्प और उनकी कीमत का अंतर, उसकी उपलब्धता वाले नजदीकी केंद्र का ब्यौरा हो। ऑनलाइन जेनेरिक फार्मेसी को भी अनुमति देने पर विचार किया जाना आवश्यक है। तभी सब को सस्ता इलाज मिलने का सपना पूरा हो सकेगा।

     (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)