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    Interview: 'अर्बन फ्लड' से निपटने के लिए SPA ने बनाया मास्टरप्लान; शहरों में जलजमाव के परेशानियों से मिलेगी निजात

    By Rumani GhoshEdited By: Piyush Kumar
    Updated: Sat, 14 Jun 2025 07:45 PM (IST)

    शिक्षा मंत्रालय के अधीन आने वाले एसपीए जैसी देशभर की शैक्षणिक संस्थाएं साल के अंत तक 1000 से ज्यादा अर्बन मैनेजर्स को प्रशिक्षित करने की तैयारी में हैं। आने वाले समय में यही लोग आंगन से प्रांगण तक पानी पहुंचने की गति को थामकर अर्बन फ्लड से लेकर अर्बन हीट जैसी शहरीकरण की समस्याओं से निजात दिलाएंगे।

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    स्कूल ऑफ प्लानिंग एंड आर्किटेक्चर के निदेशक डॉ. वीके पॉल ने 'अर्बन फ्लड' को लेकर जानकारी दी।(फोटो सोर्स: जागरण ग्राफिक्स)

    रुमनी घोष, नई दिल्ली। भारत की सिलिकान सिटी कहलाने वाले बेंगलुरु में हाल ही बारिश के बाद जल-जमाव से बाढ़ जैसी स्थिति बन गई थी। थोड़ी-सी बारिश होते ही कमोबेश यही हालत देश के हर बड़े-छोटे शहरों में हो जाती है। इस बदइंतजामी का डर इतना है कि लोग खुलकर मानसून का मजा लेना ही भूल गए हैं।

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    पानी की किल्लत दूर करने से लेकर फसलों को जीवनदान देने के बावजूद मानसून चेहरों पर खुशी लाने के बजाय आखिर माथे पर बल क्यों डालने लगा है? इसके जवाब में स्कूल आफ प्लानिंग एंड आर्किटेक्चर (एसपीए) के निदेशक डा. वीके पाल कहते हैं कि शहरीकरण की इन्हीं समस्याओं से निजात दिलाने के लिए साल के अंत तक सरकार द्वारा 1000 से ज्यादा अर्बन मैनेजर्स तैयार करने जा रही है।

    आने वाले समय में यही लोग बारिश के दौरान आंगन से प्रांगण तक पानी पहुंचाने की गति को थामकर अर्बन प्लानिंग में कई नवाचार करेंगे। शिक्षा मंत्रालय के अधीन आने वाले एसपीए सहित देशभर की आर्किटेक्ट व प्लानिंग के क्षेत्र में काम करने वाली संस्थाएं इसमें सहयोग कर रही हैं। दैनिक जागरण की समाचार संपादक रुमनी घोष ने उनसे इससे जुड़े हर पहलू पर बात की। डा. पाल के नाम दो पेटेंट और 180 शोध पत्र हैं। वह एम्स सहित देश के कई महत्वपूर्ण परिसरों के टेक्निकल एडवाइजर भी हैं। बतौर आर्किटेक्ट शिक्षक व नए शोधों को बढ़ावा देने के लिए पहचाने जाने वाले प्रो. पाल शायर भी हैं। वह 'अजीज' उपनाम से शायरी करते हैं। सेक्सोफोन और बांसुरी बजाने में माहिर हैं। वह अंगदान अभियान से भी जुड़े हैं और उन्होंने अपने दोस्त को अपनी एक किडनी दान की है। शहर हो, बिल्डिंग हो या फिर जिंदगी को खूबसूरत बनाने वाली चीजों को करीने और सलीके से गढ़ना ही उनका शौक है। प्रस्तुत हैं बातचीत के अंश:

    थोड़ी-सी बारिश में ही जल-जमाव से 'अर्बन फ्लड' की स्थिति क्यों बन रही है?

    बेंगलुरु ही नहीं बल्कि हर छोटे-बड़े शहर को इसी तरह अर्बन या लोकल फ्लड का सामना करना पड़ रहा है। मानसून के आने के साथ यह स्थितियां और विकराल हो जाती हैं। हमारा ड्रेनेज इंफ्रास्ट्रक्चर पुराना है और क्षमता सीमित है। इसमें गाद भी बाधा उत्पन्न करता है। संसाधनों पर दबाव है और उस अनुपात में रखरखाव नहीं हो पाता है। बावजूद इसके मैं यह मानता हूं कि उनकी कैरिइंग कैपेसिटी (धारण क्षमता) उतनी कम नहीं है। यदि इसमें थोड़ा-सा बदलाव कर दिया जाए तो अभी भी यह शहरों में जमा होने वाले बारिश के पानी को आसानी से निकाल सकता है।

    जलवायु परिवर्तन की वजह से कम समय में बहुत ज्यादा बारिश हो रही है। इससे भी संसाधनों पर अतिरिक्त दबाव पड़ रहा है। जिस अनुपात में पानी इकट्ठा हो रहा है, उतनी रफ्तार से पानी नहीं निकल पा रहा है। इससे बाढ़ जैसी स्थिति उत्पन्न हो रही है। आंगन से प्रांगण तक इसी पानी की गति को थामना और फिर धीरे-धीरे इसे निकालना ही 'अर्बन प्लानिंग' है।

    आपका कहना है कि बारिश के पानी को रोक-रोककर बहाना। यह कैसे संभव है?

    – जी, बिलकुल। हमारे यहां अधिकांश बड़े शहरों में ड्रेनेज सिस्टम अंग्रेजों के समय बना है। तब शहरीकरण कम था और आबादी भी आज से कई गुना कम थी। शहरों के बड़े हिस्से में 'साफ्ट सरफेस' था, यानी हरियाली और घास से ढंका हुआ होता था। इस वजह से मानसून के दौरान अधिक बारिश होने के बावजूद पानी का बहाव इन घास-हरियाली, छोटे-छोटे तालाबों से गुजरते हुए धीरे-धीरे ड्रेनेज के मुहाने तक पहुंचता था।

    अब शहरों में सब जगह हार्ड सरफेस (ईंट-कांक्रीट के जंगल) हैं। पानी को ठहरने का मौका नहीं मिलता है और वह एक साथ ड्रेनेज के मुहाने पर जमा हो जाता है। यहीं से वाटर लागिंग (जल-जमाव) शुरू होता है और अर्बन फ्लड में बदल जाता है। अब यदि पानी के बहाव को जगह-जगह रोककर धीरे-धीरे ड्रेनेज के मुहाने तक भेजा जाए तो जल-जमाव नहीं होगा। इसके लिए हमें शहरों के अलग-अलग हिस्सों में वाटर रिजर्ववार (पानी को इकट्ठा करने के लिए कृत्रिम छोटे-छोटे तालाब) बनाने होंगे। इससे पानी को रोका जा सकता है।

    मेट्रो शहरों या घनी आबादी वाले पुरानी बसाहट वाले शहरों में यह कैसे संभव है?

    यही तो प्लानिंग है, जो मौजूदा व्यवस्था में थोड़ा-बहुत बदलाव कर नया रास्ता तलाश लेना। इसे आर्किटेक्ट की भाषा में री-स्ट्रक्चरिंग कहते हैं। मिनिस्ट्री आफ हाउसिंग एंड अर्बन अफेयर्स (एमओएचयूए) के साथ मिलकर हम लोग इस पर काम कर रहे हैं। शहरों की हर कालोनी में ग्रीन बेल्ट होता है, गार्डन होता है। इनमें ही वाटर रिजर्ववोर बनाकर मानसून के दौरान बारिश के पानी को इनमें रोक-रोककर गुजारा जा सकता है। बेंगलुरू हो या मुंबई या फिर दिल्ली... यदि आप जल-जमाव का पैटर्न देखेंगे तो पाएंगे कि चार-पांच घंटे तक जल-जमाव रहने के बाद पानी धीरे-धीरे उतरने लगता है, यानी पानी जाने की जगह तो है बस उसे थोड़ा समय चाहिए।

    ड्रेनेज के मुहाने पर भी छोटा-सा स्टोरेज बनाया जा सकता है। नाली या ड्रेनेज का मुंह खुला हुआ रहता है। इससे प्लास्टिक सहित अन्य चीजें जाती हैं। गाद को भी पूरी तरह से साफ करने का कोई उन्नत सिस्टम नहीं है। ऐसे में नाली और ड्रेनेज के मुंह पर ऐसी जाली लगानी होगी। इससे गंदगी, प्लास्टिक या अन्य चीजें वहीं अटक जाएंगी और सिर्फ पानी ही ड्रेनेज तक पहुंचेगा। छोटे से बदलाव से काफी समस्याएं कम हो जाएंगी।

    अभी तक इस पर काम क्यों नहीं हुआ?

    जलवायु परिवर्तन के संकेत तो बहुत समय से मिल रहे थे, लेकिन हम और हमारे शहर उस हिसाब से तैयार नहीं हो पाए। न ही हमारे पास इन समस्याओं से निपटने के लिए तकनीकी तौर पर कुशल कर्मचारी हैं। अब समस्या विकराल रूप ले चुकी है। हालांकि अच्छी बात यह है कि मिनिस्ट्री आफ हाउसिंग एंड अर्बन अफेयर्स का सारा फोकस अब अर्बन फ्लडिंग जैसी समस्याओं को दूर करने पर है और इस दिशा में काम शुरू हो गया है। इस साल के अंत तक 1000 अर्बन मैनेजर्स तैयार करने की योजना है। अगले छह-आठ महीने में इससे जुड़ी हुई बड़ी जानकारी सामने आएगी।

    अर्बन मैनेजर्स क्या काम करेंगे?

    अर्बन मैनेजर्स... आने वाले समय में लोगों का परिचय इस नए शब्द और नए तरह के काम से होगा। हर शहर में जो आर्किटेक्ट, प्लानर, इंजीनियर्स, हाउसिंग बोर्ड के कर्मचारियों, फोरमैन और तकनीशियनों को एक छतरी के नीचे लाकर प्रशिक्षित किया जाएगा। इन्हें 'अर्बन मैनेजर्स' का नाम दिया गया है। इन्हें सिर्फ मानसून के दौरान होने वाले जल-जमाव या बाढ़ जैसी स्थिति से ही नहीं निपटने के लिए ही नहीं बल्कि स्मार्ट सिटीज में आ रही समस्याओं को भी दूर करने के लिए प्रशिक्षित किया जाएगा। मेरी जानकारी के हिसाब से सरकार 18000 करोड़ रुपये की योजना लाने जा रही है। इसमें री-स्ट्रक्चरिंग के साथ-साथ अर्बन मैनेजर्स का प्रशिक्षण भी शामिल हैं।

    इसमें आप लोगों की क्या भूमिका है?

    एमओएचयूए ने एसपीए सहित देशभर के शिक्षण संस्थानों से आह्वान किया है कि इस दिशा में काम शुरू करें। जहां तक हमारी, यानी स्कूल आफ प्लानिंग एंड आर्किटेक्चर (एसपीए) की बात है तो हम तीन स्तर पर काम कर रहे हैं। पहला, अलग-अलग विभागों में पदस्थ इंजीनियर्स, आर्किटेक्ट, प्लानर, टेक्नीशियन सहित अन्य जो कर्मचारी फील्ड पोस्टिंग में हैं, उन्हें अपग्रेड करना है। इनमें अधिकांश ने 20-25 साल पहले डिग्री ली होगी। उन्हें नई तकनीकों की जानकारी देकर प्रशिक्षित करेंगे।

    दूसरा, दुनिया में जहां जो 'बेस्ट प्रैक्टिस' है, उस पर चर्चा शुरू करना और अनुभवों को आपस में साझा करना। यही नहीं, जो लोग अभी फील्ड में काम कर रहे हैं, उनके अनुभवों से भी कई नए विकल्प मिल सकते हैं। उसे साझा करने के लिए एक मंच तैयार करना और उन्हें अपनी बात रखने का मौका देना। तीसरा, अर्बन प्लानिंग से जुड़े पाठ्यक्रमों में ही इन सभी विषयों को शामिल कर दिया जाएगा, ताकि आने वाले पांच-दस सालों में जो आर्किटेक्ट व प्लानर्स पढ़कर निकलेंगे, वे अर्बन प्लानिंग के लिए प्रशिक्षित होंगे।

    क्या पांच-दस साल में पूरा सिस्टम इतना अपग्रेड हो जाएगा कि पूरे देश में शहरीकरण की समस्याओं से निजात मिल जाए?

    नहीं। एकाएक तो बदलाव नहीं होगा, लेकिन इसकी शुरुआत हो जाएगी और असर भी नजर आने लगेगा। सरकार ने विकसित भारत के लिए 2047 का लक्ष्य रखा है। इस समयावधि के भीतर यह बहुत आसानी से हो सकता है।

    क्या प्लानर और आर्किटेक्ट पर्याप्त हैं?

    नहीं। वर्तमान की तुलना में देशभर में तीन से चार गुना सिटी प्लानर्स की जरूरत है। मेरे हिसाब से हर नगर निगम के अधीन पांच से दस सिटी प्लानर होना चाहिए। जो शहर से जुड़ी हुई समस्याओं का डाटा इकट्ठा करें। उनका विश्लेषण कर समस्याओं की तह तक जाएं और हल निकालें। जैसे दिल्ली नगर निगम में पांच-सात प्लानर्स की टीम होनी चाहिए।

    अर्बन हीट...इससे कैसे निजात मिलेगा?

    अर्बन फ्लड की तरह अर्बन हीट भी बड़ी समस्या बनकर उभर रही है। इसमें शहर के एक हिस्से में गर्म और एक ठंडा है। चूंकि विकास के दौरान सही तालमेल नहीं रखा गया है, इसलिए हर बड़े शहर ने अपना ही एक गर्म मौसम तैयार कर लिया। जैसे दिल्ली में ही लोधी गार्डन ठंडा है और आइटीओ गर्म।

    हम लोग दिल्ली सरकार के साथ मिलकर इस प्रोजेक्ट पर काम कर रहे हैं। इसके साथ ही फ्लडिंग पर भी काम करेंगे। दिल्ली में 100 से ज्यादा फ्लाय ओवर हैं। इसके नीचे सुंदरीकरण कर हरियाली बढ़ाई जा सकती है। शहर के तापमान को कुछ हद तक नियंत्रित किया जा सकता है। इनके नीचे गार्डन विकसित कर वाटर रिजर्ववार बनाकर मानसून के दौरान पानी को रोकने की व्यवस्था की जा सकती है, वहीं इससे वाटर रिचार्जिंग भी हो जाएगी। कल्पना कीजिए यदि यह हो गया तो दिल्ली की शक्ल ही बदल जाएगी। इसको लेकर एसपीए ने सरकार को प्रस्ताव भी दिया है।

    आप अर्बन प्लानिंग की जगह रीजनल प्लानिंग की भी बात कहते हैं। यह क्या है?

    देखिए, रीजनल प्लानिंग एक आदर्श बसाहट की परियोजना है। इस पर सरकार से लेकर प्लानर और तमाम एजेंसियों के साथ-साथ आम लोगों को सचेत होने की जरूरत है। इसके तहत हमें नदी-पहाड़, पानी, जंगल, कृषि के साथ-साथ कैसे रहना है, इसका एक फार्मूला बनाना होगा। इसे हम तीन हिस्सों में बांटते हैं-अर्बन (शहरी), पेरी अर्बन (शहरी और ग्रामीण के बीच का हिस्सा) और रीजनल (ग्रामीण या क्षेत्रीय)। संस्कृति, प्रकृति और विकास के बीच तालमेल के साथ की गई बसाहट ही रीजनल प्लानिंग है। आसान भाषा में कहे तो शहरी क्षेत्र में रीजनल क्षेत्र का सटीक समावेश।

    भारत में कौन सा राज्य है, जहां की अर्बन और रीजनल प्लानिंग का तालमेल देखने को मिलता है। दूसरे राज्य क्या सीख सकते हैं?

    केरल इस मामले में अन्य राज्यों से बेहतर है। वहां लोगों का शहर के प्रति कोई रुझान नहीं है। लोगों को फर्क नहीं पड़ता कि वह शहर में रह रहे हैं या फिर गांव में। सड़क के दोनों ओर सभी शहर समान रूप से विकसित हो रहे हैं। जो जहां रह रहा है, उसे वहीं पर सारी सुविधाएं मिल रही है, इसलिए शहरों की ओर आने का होड़ नहीं है। हिमाचल में भी बहुत कुछ ऐसा है।

    चंडीगढ़ को तो देश का सबसे प्लान शहर कहा जाता है। आपने खुद वहां से आर्किटेक्चर की पढ़ाई की है। आपने इसका नाम क्यों नहीं लिया?

    यह सही है कि चंडीगढ़ को प्लानिंग के साथ बसाया गया था, लेकिन अब वहां भी समस्याएं उभर रही हैं। शहर की प्लानिंग ऐसी होनी चाहिए कि वह अपने आप में खुद का और लोगों का विकास कर सके। क्या चंडीगढ़ का ग्रोथ ऐसा है, जैसा दूसरे शहरों का है? उसे विकास के एक खांचे में बांध दिया गया, जिसकी वजह से उसका प्राकृतिक विकास नहीं हो रहा है। केरल के शहरों में ऐसा नहीं है।

    अब शहर की धारण क्षमता (कैरिंग कैपासिटी) के बारे में बात होनी लगी है? क्या भारत में इसे लागू किया जा सकता है?

    हर वस्तु की तरह हर शहर की भी धारण क्षमता होती है। शहर की धारण क्षमता से ज्यादा आबादी होते ही सिस्टम अलर्ट करे। उस आधार पर प्रशासन बसाहट को रोककर आबादी को आगे फ्लो कर दें। हालांकि व्यवहारिक रूप से यह संभव होता नजर नहीं आता है। कुछ इसी तरह की अवधारणा के साथ ही ग्रेटर नोएडा को बसाया गया था, लेकिन यह कारगर साबित नहीं हुआ। यह सभी इलाके अपने आसपास के गांवों को खत्म करते जा रहा है। सोनीपत भी इसका सटीक उदाहरण है। सोनीपत बढ़ रहा है, लेकिन आसपास कोई गांव, कस्बा विकसित नहीं हो रहा है।

    आप कहते हैं कि हर शहर की प्लानिंग वहां के परिवेश, आबादी और संस्कृति के आधार पर होना चाहिए? यह कैसे संभव है?

    स्मार्ट सिटीज में जो परेशानी आ रही है, यह उसी का जवाब है। जैसे मुझे वाशिंगटन बहुत पसंद है, लेकिन मैं न वहां रहता हूं और न ही रह सकता हूं न ही मेरा परिवेश या सोसायटी वैसी है, न रहन-सहन। यदि मैंने उसके आधार पर प्लानिंग की तो सब फेल हो जाएगा।

    भारत में हर पचास-साठ किमी में संस्कृति और परिवेश बदल जाता है। चंडीगढ़ में पंजाब, हरियाणा, हिमाचल का कल्चर है, लेकिन अमृतसर की संस्कृति बिलकुल अलग है। उनकी प्लानिंग भी अलग-अलग होना चाहिए। यदि आप कोलकाता शहर के लिए प्लानिंग कर रहे हैं तो आपको हजारों-लाखों दुर्गा पूजा व पांडालों की व्यवस्था को सोचकर ही व्यवस्था करनी होगी, क्योंकि चाहे बाढ़ आए या सूखा... वहां हर साल यह आयोजन होगा ही। यदि हमारी प्लानिंग में यह सोच नहीं है तो फिर हम सिर्फ सड़कों और गाड़ियों के लिए शहर बसा रहे हैं, लोगों के लिए नहीं।