'मेरी चिंता उन घटनाओं को लेकर है, जो अभी अपराध में तब्दील नहीं हुई', खास बातचीत में बोले डॉ. जीएस बाजपेयी
इंदौर मेरठ और तेलंगाना की हालिया घटनाएं महिलाओं द्वारा किए गए अपराधों पर नई बहस छेड़ती हैं। कुछ लोग इसे महिलाओं की बढ़ती महत्वाकांक्षा से जोड़ते हैं जबकि अन्य इसे गलत मानते हैं। नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी दिल्ली के कुलपति डॉ. जीएस बाजपेयी के अनुसार ये अपराध सामाजिक संरचना और परिस्थितियों का परिणाम हैं। सशक्त महिलाएं अपने फैसले ले रही हैं जिसे समाज स्वीकार नहीं कर पा रहा है।

रुमनी घोष, नई दिल्ली। इंदौर की सोनम रघुवंशी हो, मेरठ की मुस्कान या फिर तेलंगाना की ऐश्वर्या, तीनों द्वारा की गई या करवाई गई हत्या सिर्फ चर्चा का विषय ही नहीं बल्कि इसने सामाजिक ताने-बाने में आ रहे बदलाव को लेकर नई बहस छेड़ दी है। एक बड़ा वर्ग है, इसे महिलाओं में बढ़ती महत्वाकांक्षा बताकर उसे सामाजिक कठघरे में खड़ा कर रहा है। वहीं, एक वर्ग चंद घटनाओं से पूरे वर्ग पर अंगुली उठाने पर आपत्ति दर्ज करवा रहा है।
इन दोनों धुरियों के बीच नेशनल ला यूनिवर्सिटी, दिल्ली के कुलपति डॉ. जीएस बाजपेयी समाज में आ रहे बदलाव और महिलाओं द्वारा किए जा रहे अपराध के कारणों के बारे में एक अलग ही पहलू पेश करते हैं। बतौर अपराध विज्ञान के प्रोफेसर वह सोशल लर्निंग आफ वायलेंस, प्रायर विक्टिमाइजेशन (पूर्व उत्पीड़न), आइडियल विक्टिम, पावर डॉयनामिक्स और गैस लाइटिंग जैसे शब्दों के जरिये अपराध घटित होने के पहले की स्थिति से परिचय करवाते हैं। वह इसे 'मेकिंग प्रोसेस आफ क्राइम' का नाम देते हैं।
महिलाओं द्वारा अपराध को अंजाम देने की संख्या में वृद्धि व सुधार की संभावनाओं को लेकर दैनिक जागरण की समाचार संपादक रुमनी घोष ने उनसे विस्तार से चर्चा की। उनका कहना है कि सशक्त हुईं महिलाएं खुद के फैसले ले रही हैं और समाज या पुरुष वर्ग इसे स्वीकार नहीं कर पा रहा है। सहमति और टकराव का यह द्वंद्व जाने-अनजाने लगभग हर परिवार में हो रहा है। इनमें से कुछ मामले अपराध में बदल जा रहे हैं। चिंता उन घटनाओं की होनी चाहिए, जो अभी तक अपराध के रूप में सामने नहीं आए हैं। डॉ. बाजपेयी भोपाल स्थित नेशनल ला इंस्टीट्यूट यूनिवर्सिटी के आपराधिक न्याय प्रशासन केंद्र में प्रोफेसर और अध्यक्ष के रूप में कार्यरत थे।
वह भारतीय लोक प्रशासन संस्थान, पुलिस अनुसंधान और विकास ब्यूरो, पंजाब पुलिस अकादमी में भी पदस्थ रहे हैं। मानवाधिकार और पुलिस पर लिखी पुस्तक के लिए उन्हें जी.बी. पंत पुरस्कार मिला। उन्हें फेलो आफ द इंडियन सोसायटी आफ क्रिमिनोलाजी की उपाधि से भी सम्मानित किया गया। प्रस्तुत हैं बातचीत के प्रमुख अंशः
इंदौर की सोनम हो या मेरठ की मुस्कान, सामान्य-सी दिखने वाली महिलाएं जघन्य अपराध को अंजाम दे सकती हैं, यह समाज यकीन ही नहीं कर पा रहा है। क्या महिला और पुरुषों द्वारा किए जाने वाले क्राइम की ‘डिग्री’ में अंतर होता है?
बहुत पहले एक फ्रेंच समाजशास्त्री हुए थे...इमाइल दुर्खीम। उन्होंने क्राइम पर काफी काम किया था। उन्होंने कहा था कि क्राइम इज नार्मल एंड फैक्चुअल, यानी अपराध सामान्य और तथ्यात्मक होता है। जब उन्होंने इसे नार्मल कहा था तो लोगों को इसका मतलब समझ नहीं आया था। फिर उन्होंने इसकी व्याख्या की कि समाज में जो मूल दशाएं होती हैं, क्राइम उसका प्रतिबिंब है। उसी लाइन को आगे बढ़ाते हुए बतौर क्रिमिनोलाजिस्ट मेरा मानना है कि कोई भी क्राइम अननेचुरल (अस्वाभाविक) या एबनार्मल (असामान्य) नहीं होता है।
यानी आपका कहना है महिलाओं द्वारा किए जाने वाले इस अपराध को वीभत्स या क्रूर की श्रेणी में नहीं रखा जाना चाहिए?
जी। अपराध चाहे महिलाएं करें या पुरुष, दोनों बराबर हैं। दरअसल, हम नंबर से चलते हैं। हमने धारणा बना ली कि जो चीज ज्यादा हो रही है, वह सामान्य है। पुरुष ज्यादा क्राइम करते हैं, तो हमने उसे सामान्य मानकर मान्यता दे दी। चूंकि महिलाओं द्वारा अपराध कम घटित होते हैं, इसलिए इसे असामान्य मानकर वीभत्स, विकृत की संज्ञा देना शुरू कर दिया। क्राइम व्यवहार भी है और प्रतिक्रिया भी है। महिलाओं के केस में अपराध प्रतिक्रिया के तौर पर हो रहा है।
प्रतिक्रिया से क्या आशय?
नहीं। प्रतिक्रिया का मतलब यह नहीं है, किसी ने कुछ कहा या किया तो उसने अपराध कर दिया। यह प्रतिक्रिया त्वरित नहीं, बल्कि 'बिल्डअप' है। इसके पीछे ऐतिहासिक कारण हैं। महिलाओं का शोषण हुआ। लंबे अरसे तक अत्याचार भी हुआ है, लेकिन वे कभी उस स्थिति में नहीं थीं कि इन सबके खिलाफ प्रबल प्रतिक्रिया दे सकें।
महिला सशक्तीकरण से दोनों चीजें हुई हैं। एक ओर जहां महिलाएं जागरूक हुईं। वहीं, आत्मनिर्भर, आत्मविश्वासी होने के साथ ही मुखर भी हुई हैं। मौके-बेमौके उन्होंने अपनी इसी प्रतिक्रिया के जरिये समाज को यह बताना शुरू किया कि वह बेवजह अत्याचार नहीं सहेंगी। अब यह अलग बात है कि कभी-कभी उनकी यह प्रतिक्रिया कानून के दायरे में अपराध की श्रेणी में आ जाती है। मैं मानता हूं कि आज भी महिलाओं द्वारा किए जाने वाले अधिकांश अपराध प्रतिक्रिया के बतौर ही होते हैं।
सोनम और मुस्कान के मामले में तो किसी प्रताड़ना की बात सामने नहीं आ रही है?
क्रिमिनोलाजी में एक शब्द का उपयोग होता है, ‘प्रायर विक्टिमाइजेशन’ या ‘पूर्व उत्पीड़न’। यह उत्पीड़न बचपन में उसके साथ हुए शोषण से लेकर उपेक्षा तक शामिल है। इसके अलावा करियर में बाधा, सपनों को कुचलना, महत्वाकांक्षा को दबाना भी अब बड़ा कारण बनकर उभर रहा है।
अब वे आगे जाकर कैसे उसे रैशनलाइज (युक्तिपूर्ण) करें, यह पता नहीं होता। अब जब धीरे-धीरे महिलाएं सशक्त हो रही हैं तो उसका टालरेंस सैचुरेशन पाइंट (सहने की क्षमता का शीर्ष स्तर) के बाद प्रतिक्रिया जाहिर करती हैं। सोनम और मुस्कान जैसे प्रकरणों में षड्यंत्र कर हत्या करने का मामला है, लेकिन इसके पीछे भी निश्चित रूप से किसी न किसी तरह का शोषण होगा, जिसकी प्रतिक्रिया बहुत ही योजनाबद्ध तरीके से देने की कोशिश की गई।
सोनम मामले की अभी जांच की जा रही है, फिर भी जो कारण सामने आ रहे हैं, उसमें फोर्स्ड मैरेज (दबाव में शादी) एक कारण हो सकता है। अब तक तो यह मानकर चलते आए हैं कि शादी करवा देंगे तो महिलाएं उसी रिश्ते में रहेंगी, लेकिन तीनों केस से पता चलता है कि अब वे यह मान लेने को तैयार नहीं हैं। बहरहाल, इन्होंने किस चीज की प्रतिक्रिया बतौर घटना को अंजाम दिया है, इसे गहराई से जानने के लिए उनके केस को पुलिस नहीं बल्कि क्रिमिनोलाजिस्ट के नजरिये से देखना होगा।
तो क्या पुलिस और क्रिमिनोलाजिस्ट दोनों के लिए अपराध अलग-अलग होता है?
बिल्कुल। क्राइम के साथ एक बड़ी दिक्कत है कि यह परिणाम के तौर पर देखा जाता है। यानी हत्या हुई है, चोट पहुंची या जलाकर मार डॉला है, तभी सामने आता है। अपराध घटित होने से पहले इसकी एक लंबी यात्रा होती है। हम इसे तभी देख पाते हैं, जब यह घटना के तौर पर दृश्य रूप में सामने आता है।
उसके बाद पुलिस सक्रिय होती है। बतौर क्रिमिनोलाजिस्ट मेरे लिए चिंता का विषय उन मामलों को डिकोड करना है, जो अभी तक अपराध में नहीं तब्दील नहीं हुआ है। ...और मैं आपको बताऊं कि यह संख्या काफी बड़ी है।
क्या महिलाओं द्वारा किए जा रहे अपराधों पर केंद्रित कोई शोध किया गया है?
समाजशास्त्री मार्बेन वूल्फगैंग ने अमेरिका के फिलाडेल्फिया में पति-पत्नी के बीच होने वाली हिंसाचार पर शोध किया। 588 केसों का अध्ययन किया गया। उन्होंने पाया कि 35 प्रतिशत मामले 'विक्टिम ट्रिगर' थे, यानी महिला प्रताड़ित हुई और बचाव में हत्या कर दी।
उदाहरण के लिए जैसे किचन में पति-पत्नी के बीच झगड़ा हुआ। बचाव में पत्नी ने वहां रखे चाकू से वार कर दिया। मगर शेष 65 प्रतिशत मामलों में हुई हत्याएं नियोजित तरीके से हुई थीं। अब देश के पांच राज्यों पर किए गए अध्ययन पर एक नजर डॉलते हैं। वर्ष 2020 से 2024 तक का डॉटा बताता है कि उप्र में 274, बिहार 186, राजस्थान में 138, महाराष्ट्र में 100, मप्र में 87 महिलाओं ने अपने पति को मारा, यानी पांच राज्यों में 785 केस हैं। वर्ष 2025 में बीते छह महीने में ही कई गंभीर मामले सामने आ गए हैं।
क्या यह सोच पूरे महिला वर्ग के खिलाफ नहीं? सशक्तीकरण के खिलाफ नहीं?
नहीं। क्राइम को लैंगिक आधार पर बांटना या कम-ज्यादा कर देखना ही गलत है। 'आइडियल विक्टिम' बनाकर हमने लंबे समय तक महिलाओं को एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया से वंचित रखा है।
सोशल लर्निंग आफ वायलेंस, आइडियल विक्टिम और पावर डॉयनामिक्स क्या है ?
सोशल लर्निंग आफ वायलेंस, आइडियल विक्टिम और पावर डॉयनामिक्स तीनों एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। 'सोशल लर्निंग आफ वायलेंस' यह है कि हम हमेशा से ही देखते आए हैं कि पुरुष अपराध करेंगे और महिलाएं अपराध सहेंगी। हमने इसे सामाजिक मान्यता भी दे दी है।
तभी तो पुरुषों द्वारा इतनी बड़ी संख्या में अपराध किए जाने के बाद भी यह सवाल नहीं उठता कि पुरुषों में अपराध करने की प्रवृत्ति क्यों बढ़ रही है। लेखक नील क्रिस्पी की एक किताब है 'आइडियल विक्टिम'। भारतीय समाज ने बहुत अच्छे से इस तस्वीर को गढ़ा और महिलाओं को 'आइडियल विक्टिम' बना दिया गया। यानी ऐसी पीड़िता, जो अपराध के खिलाफ आवाज नहीं उठाएंगी, चुप रहेंगी, हिंसा के खिलाफ थाने नहीं जाएंगी।
'पावर डॉयनामिक्स' हमारी सामाजिक संरचना है। इस संरचना के तहत पुरुष को शक्तिशाली मान लिया गया और महिलाओं को कमजोर। पावर डॉयनामिक्स में जब बदलाव होने लगा तो पुरुष 'हैंडल' नहीं कर पा रहे हैं। इसका नुकसान उन्हें उठाना पड़ रहा है।
पावर डॉयनामिक्स में बदलाव का नुकसान पुरुषों को कैसे?
पावर डॉयनामिक्स की संरचना से बातें तब तक ठीक-ठाक चल रही थीं, जब तक महिलाएं दबी हुई थीं। विरोध नहीं कर रही थीं, यानी समाज में किसी को इस व्यवस्था पर आपत्ति नहीं थी और सबकुछ एक सर्वसम्मति से चल रहा था। जैसे ही महिलाएं सशक्त हुईं, अपने फैसले खुद लेने लगीं तो टकराव शुरू हुआ।
इधर, सामाजिक मान्यता की वजह से पुरुष खुद को मजबूत साबित करने में ही तुला हुआ है। यदि वह पीड़ित है या खुद को पीड़ित महसूस कर रहा है तो भी वह न समाज के सामने खुलकर अपना दु:ख बता पा रहा है और न ही थाने तक पहुंचकर शिकायत कर पा रहा है। इसी टकराव का परिणाम ये घटनाएं हैं। इसे आप कंनसनसेस वर्सेस कन्फ्रन्टेंशन (सर्वसम्मति या सहमति विरुद्ध टकराव) का है।
मैं एक बार फिर कहना चाहूंगा कि इस वजह से जो घटनाएं घटित हो रही हैं, वह कानून के दायरे में अपराध हो सकता है, लेकिन बतौर क्रिमिनोलाजिस्ट हमारा काम अपराध तक पहुंचने वाले रास्तों का अध्ययन करना है। विदेश में तो यह विरोधाभास फिर भी कम हो रहा है, लेकिन भारतीय व्यवस्था में पुरुषों का एक वर्ग इस द्वंद्व से गुजर रहा है और अपनी पीड़ा किसी से कह नहीं पा रहा है। चिंता की बात है कि इसकी कोई संख्या हमारे सामने नहीं है।
क्या सशक्त होने के बाद महिलाएं पीड़ित नहीं हो रही हैं। सिर्फ पुरुष पीड़ित हो रहे हैं?
नहीं। बिलकुल ऐसा नहीं है। बदलाव तो पूरे समाज में हो रहा है। महिलाओं को अब 'गैस लाइटिंग' का सामना करना पड़ रहा है। गैस लाइटिंग एक मैकानिज्म है, जिसमें पढ़ा-लिखा पुरुष क्रूरता (वायलेंस, मारपीट, घर से निकालना या चिल्लाना) नहीं करता है। वह बहुत ही सुनियोजित ढंग से महिलाओं को तर्क के साथ यह यकीन दिलाता है कि वह गलत है। उसकी सोच गलत है।
धीरे-धीरे महिलाओं का आत्मविश्वास तोड़ा जाता है। यही वजह है कि पढ़ी-लिखी शहरी महिलाओं में मेंटल डिप्रेशन के मामले ज्यादा आ रहे हैं। अधिकांश महिलाएं इस पीड़ा को सहते हुए जीवन गुजार देती हैं, लेकिन सोनम, मुस्कान, ऐश्वर्या जैसी कुछ महिलाएं इसका प्रतिकार करती हैं और अपराध को अंजाम दे देती हैं।
क्या नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो को महिला व पुरुषों द्वारा किए गए अपराधों के आंकड़ों को अलग-अलग लेना चाहिए ?
बिलकुल। इससे ही सही तस्वीर सामने आ पाएगी। क्राइम का एक फार्मूला है कि समाज में जितना दमन होगा, उतना अपराध बढ़ेगा। इसमें महिला-पुरुष के बीच कोई विभाजन नहीं है। अमेरिका में तो महिला और पुरुषों द्वारा घटित अपराधों की संख्या में भी ज्यादा अंतर नहीं है। भारत में अभी भी बड़ी संख्या में महिलाएं समाज या परिवार के दबाव में हैं और चाहकर भी विरोध नहीं कर पा रही हैं। जिस दिन यह डर हटेगा, उस दिन महिलाओं द्वारा किए जाने वाले अपराध और बढ़ेंगे और इसे सामान्य दृष्टि से देखा जाना चाहिए।
आने वाले समय में समाज का परिदृश्य कैसा होगा?
इस तरह के केस बढ़ेंगे। सब लोग इन घटनाओं पर तब बात कर रहे हैं, जब अपराध घटित हो गया है। मेरी चिंता उनके बारे में है, जो किसी भी समय अपराध में बदल सकती है। इनकी संख्या बहुत बड़ी है। मरने के पहले भी तो वह बहुत-सी समस्याओं को झेल रही हैं और उसका कोई डॉटा सामने नहीं आ रहा है।
क्या इस तरह की चंद घटनाओं को महिलाओं के बारे में गलत धारणा बनाने में उपयोग नहीं होगा?
महिलाओं के उत्पीड़न की संख्या तो बहुत ज्यादा है, लेकिन अब हमें यह स्वीकारना होगा कि पुरुष भी पीड़ित हैं। धारणाएं तो बदलती रहती हैं, लेकिन आप समाज में सुधार चाहते हैं, तो सामाजिक सत्य को स्वीकार करना पड़ेगा। यदि समस्या बढ़ रही है तो उसका वैज्ञानिक हल ढूंढने के लिए हमें सबसे पहले इसे स्वीकारना होगा।
1989 के आसपास महिला किलर का उल्लेख आता है। इस तरह के अपराध के पीछे क्या कारण होता है? क्या पुनर्वास संभव है ?
यह क्राइम आफ पैशन का केस है। इसमें अपराध दूसरों को नुकसान पहुंचाने के लिए नहीं, बल्कि खुद को सुख पहुंचाने के लिए किया जाता है। वह सुख, जो उसके साथ पूर्व में हुए उत्पीड़न पर मरहम लगा सके। यह क्राइम का बहुत काला पहलू है। यह जरूर है कि अपराध कर चुकी महिलाओं के पुनर्वास के लिए अभी हमारे पास कोई खास व्यवस्था नहीं है। हमारी जेलें उसके लिए तैयार नहीं हैं।
क्या सामाजिक संरचना में सुधार संभव नहीं है? क्या करना चाहिए?
इसके दो रास्ते हैं। समाज में आ रहे बदलाव को रोकें या फिर बदलाव को एक दिशा दे दी जाए। बदलाव को रोकना तो संभव नहीं है, लेकिन थोड़ी-सी आजादी देकर हम बदलाव को सही दिशा दे सकते हैं। महिलाओं को फैसले करने का अधिकार दें, उनके फैसलों को स्वीकारें। वहीं पुरुषों को भी मजबूत दिखने की झूठी आभा से निकलकर सामान्य तरीके से जीने का तरीका सीखना चाहिए।
भारतीय समाज में शादी जैसी संस्था बहुत-सी चुनौतियां झेल रही हैं। उसमें काफी सुधार की जरूरत है। जैसे पसंद की शादी या लव मैरेज को अभी भी एक अलग दृष्टि से देखा जाता है। इस व्यवस्था को स्वतः अपनाने पर विचार करना चाहिए। यह समय की मांग है। हमारी पुरानी सामाजिक संरचना को पुनर्जीवित करना चाहिए। जैसे पहले कोई लड़का सिगरेट पीता हुआ मिल जाता था तो बुजुर्ग टोक देता था। अब न कोई टोकता है, न कोई सुनता है। यह संवाद फिर शुरू होना चाहिए।
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