सर्विसेज सेक्टर में तेजी तो फिर देश में क्यों सुस्त है मैन्युफैक्चरिंग; क्या हैं तीन बड़े कारण?
भारत की आर्थिक वृद्धि 1991 के बाद तेज हुई लेकिन मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर जीडीपी में 15-16% पर ही अटका रहा जबकि सर्विसेज सेक्टर 55% तक पहुंच गया। फिस्मे (FISME) की रिपोर्ट के अनुसार भारत को मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ावा देने के लिए तीन श्रेणियों में नई पीढ़ी के सुधारों की जरूरत है..

डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली। दशकों तक भारतीय आर्थिक विकास की गति सुस्त रही। 1991 के आर्थिक सुधारों के बाद विकास ने गति पकड़ी। बाद में विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के नेतृत्व वाले उदारीकरण ने इस गति को और बढ़ाया। बीच में राजनीतिक अस्थिरता के बावजूद, राष्ट्र ने 1991 के बाद, पिछले पांच दशकों की तुलना में दोगुनी दर से वृद्धि की।
ये सुधार मुख्य रूप से व्यापार और बाहरी क्षेत्र पर केंद्रित थे। इससे घरेलू मैन्युफैक्चरिंग के लिए वैश्विक प्रतिस्पर्धा तो बढ़ी, लेकिन आंतरिक सुधारों के आभाव के कारण औद्योगिक विस्तार रूका और केवल सर्विसेज सेक्टर बढ़ा।
सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में मैन्युफैक्चरिंग का योगदान लगातार 15-16 प्रतिशत के आसपास ही बना रहा है, जबकि सर्विसेज सेक्टर 38 प्रतिशत से 55 प्रतिशत तक पहुंच गया। पर्याप्त संख्या में अच्छी तनख्वाह वाली मैन्युफैक्चरिंग में नौकरियों की कमी तब से एक स्थायी चुनौती रही है।
विशेषज्ञों और जाने-माने अर्थशास्त्रियों के बीच आम सहमति है कि स्व-निर्मित बाधाओं के कारण भारत की अर्थव्यवस्था 2-3 प्रतिशत तक कम प्रदर्शन कर रही है। वे ‘नई पीढ़ी के सुधारों’ की बात करते हैं जो इन बाधाओं को दूर कर सकते हैं।
क्या हैं ये सुधार?
सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों का अनुभव भी इन दावों की पुष्टि करता है। भारत के विनिर्माण पारिस्थितिकी तंत्र में अंतर्निहित बाधाएं उद्यमियों को उनकी पूरी क्षमता का उपयोग करने से रोकती हैं। 6.4 करोड़ उद्यमों में 99 प्रतिशत सूक्ष्म बने रहते हैं और बमुश्किल एक प्रतिशत छोटे हैं जबकि मध्यम उद्यमों का आकार इतना छोटा है कि यह 0.5 प्रतिशत से कम है।
140 करोड़ के राष्ट्र में 30 लाख से अधिक औद्योगिक बिजली कनेक्शन नहीं हैं और 10 से अधिक लोगों को रोजगार देने वाली फैक्ट्रियों की संख्या बमुश्किल 2.5 लाख है। इसका नतीजा बहुत छोटे पैमाने के उद्योग, अनौपचारिक रोजगार और वैश्विक प्रतिस्पर्धा का सामना करने में असमर्थता के रूप में हमारे सामने है।
सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों की दृष्टि में मजबूत और टिकाऊ औद्योगिक विकास प्राप्त करने के लिए संरचनात्मक सुधारों की एक नई लहर शुरू करने की आवश्यकता है। लघु उद्योगों के राष्ट्रीय संगठन ‘फिस्मे’ के अनुसार ये सुधार तीन श्रेणियों में विभाजित किये जा सकते हैं:
श्रेणी नंबर-1
नियामक सुधार उत्पादन के कारक बाजार तथा पारिस्थितिकी तंत्र को विनिर्माण-अनुकूल बनाने के लिए सुधार। जहां एक ओर घरों और अनधिकृत स्थानों से काम कर रहे उद्यमों को औपचारिक मान्यता देने होगी, वहीं पब्लिक-प्राइवेट सहयोग से उद्योगों के नियामक तंत्र का सरलीकरण करना होगा।
आर्थिक विकास को मूल में रख कर, शहरों की प्रशासनिक व्यवस्था, विकास और मास्टर प्लान डिजाइन पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है। प्रोप्राइटरशिप और पार्टनरशिप को आईबीसी कानून के अंतर्गत लाना होगा जिससे असफलता के बाद भी उद्यमी को नए उद्योग स्थापित करने के लिए सक्षम बनाया जा सके और उद्यमियों द्वारा असफलता के बाद आत्महत्याओं के सिलसिले को रोका जा सके।
श्रेणी नंबर-2
बैंकिंग और वित्त क्षेत्र में भी सुधार की आवश्यकता है। मौजूदा स्थिति में आरबीआई ग्राहकों और उद्यमियों के हितों की रक्षा करने में विफल रहा है। इस समस्या के समाधान के लिए बैंकिंग, फिनटेक और बीमा को शामिल करते हुए एक नया एकीकृत नियामक स्थापित करने की आवश्यकता है।
श्रेणी नंबर-3
कच्चे माल की उपलब्धता और कीमत भी एक बड़ी समस्या है। प्रतिबंधात्मक व्यापार नीतियों ने बाजार में एकाधिकार पैदा कर दिया है, जिससे डाउनस्ट्रीम एमएसएमई अप्रतिस्पर्धी हो गए हैं। इसलिए, कच्चे माल पर शुल्क कम करके और तैयार उत्पादों पर अधिक शुल्क लगाकर आर्थिक सिद्धांत का पालन किया जाना चाहिए। प्रायः एमएसएमई क्लस्टर्स तकनीकी पिछड़ेपन से ग्रस्त हैं।
एमएसएमई महत्वपूर्ण उत्पाद श्रेणियों/उप-क्षेत्रों में तकनीकी कमियों की पहचान करने और इस कमी को स्वदेशी अनुसंधान एवं विकास संस्थानों के माध्यम से या विशेष रूप से पूर्वी और दक्षिण पूर्व एशिया की उन्नत अर्थव्यवस्थाओं के साथ संयुक्त उद्यमों को प्रोत्साहित करके पूरा करने के लिए एक प्रौद्योगिकी मिशन की आवश्यकता है।
यह मिशन चरणबद्ध तरीके से अध्ययन कर सकता है और सबसे अधिक संकटग्रस्त उत्पादों को प्राथमिकता दे सकता है।
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(Source: उत्तर प्रदेश आर्थिक सलाहकार समूह फिस्मे के महानिदेशक अनिल भारद्वाज से बातचीत)
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