भारत कैसे बनेगा विकसित देश, कौन-से हैं वो आठ सुधार जिनसे GDP को मिलेगा बूस्ट?
1750 तक भारत दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश था लेकिन ब्रिटिश शासन ने 20वीं सदी तक आते-आते अर्थव्यवस्था को पूरी तरह से बर्बाद कर दिया। साल 1991 के बाद से भारतीय अर्थव्यवस्था का उभार फिर शुरू हुआ और आज भारत विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के करीब है। फिर भी व्यवस्थागत कमियां पुराने कानून और प्रशासनिक कमजोरियां ग्रोथ...

जागरण टीम, नई दिल्ली। आज यानी 22 सितंबर से देशवासियों को जीएसटी दरों में कटौती का फायदा मिलना शुरू हो गया। लोगों को यह राहत दूसरी पीढ़ी के सुधारों से मिली है। ये सुधार महंगाई से राहत देने के साथ मांग और खपत के चक्र को वह बूस्ट देंगे, जिसकी दरकार लंबे समय से महसूस की जा रही थी। आर्थिक विशेषज्ञों का मानना है कि अगर भारत को आठ से 10 प्रतिशत की वृद्धि दर हासिल करनी है तो उसे लंबित सुधारों को आगे बढ़ाना ही होगा।
श्रम, कृषि, शिक्षा और न्यायिक क्षेत्र में सुधार न होने की वजह से अर्थव्यवस्था तेज गति से आगे नहीं बढ़ पा रही है। भारत में सुधारों का मुद्दा राजनीतिक रूप से संवेदनशील रहा है, खास कर श्रम और कृषि क्षेत्र में सुधारों को आगे बढ़ाना एक बड़ी चुनौती है। तीसरी पीढ़ी के सुधारों को आगे बढ़ाने में राज्यों की भी अहम भूमिका है।
ऐसे में तीसरी पीढ़ी के सुधारों को लागू करने के फायदों और इसकी राह में चुनौतियों की पड़ताल आज का अहम मुद्दा है..
कौन-से बदलाव भारत को विकसित देश बनाएंगे?
साल 1750 तक भारत दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश था, लेकिन ब्रिटिश शासन ने 20वीं सदी तक आते-आते अर्थव्यवस्था को पूरी तरह से बर्बाद कर दिया। साल 1991 के बाद से भारतीय अर्थव्यवस्था का उभार फिर शुरू हुआ और आज भारत विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के करीब है।
फिर भी व्यवस्थागत कमियां, पुराने कानून और प्रशासनिक कमजोरियां ग्रोथ को बाधित कर रहीं हैं। ऐसे में देश को विकसित राष्ट्र बनाने के लिए तीसरी पीढ़ी के सुधार बेहद अहम हैं।
न्यायिक सुधार: ताकि समय से मिले इंसाफ
भारत की अदालतों में छह करोड़ से ज्यादा मामले लंबित हैं। न्याय में देरी न्याय से इनकार के समान है। निवेशक अक्सर ऐसे बाजारों से कतराते हैं, जहां अनुबंध लागू नहीं हो सकते। भारत में न्याय पाने का एकमात्र तरीका महंगे वकीलों की सेवाएं लेना है।
समाधान: सिंगापुर और ब्रिटेन ने विशेष व्यावसायिक अदालतें स्थापित की हैं, जो कारोबारी विवादों का समाधान वर्षों में नहीं हफ्तों में करती हैं। डिजिटल फाइलिंग, फास्ट ट्रैक व्यावसायिक पीठों और मध्यस्थता को बढ़ावा देने वाली नीतियों के साथ भारत को भी इस तरह की व्यवस्था करनी चाहिए। इससे देश में कारोबार करना आसान होगा।
श्रम सुधार: ताकि रोजी-रोटी पर भारी न पड़े असुरक्षा
भारत के श्रम कानून केंद्र और राज्य सरकारों के नियमों के एक जाल में उलझे हुए हैं। कंपनियां औपचारिक रूप से नियुक्ति करने से डरती हैं। वहीं, वर्कर असुरक्षा में फंसे रहते हैं।
समाधान: चीन ने 1980 के बाद श्रम सुधारों को लागू किया और कंपनियों के लिए नियमों के पालन को आसान बनाया। साथ ही वर्कर के लिए बुनियादी सुरक्षा सुनिश्चित की। इससे मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में तेजी आई।
जर्मनी का 'फ्लेक्सीक्योरिटी' मॉडल भी दर्शाता है कि जब कामगारों को बेरोजगारी बीमा और पुनर्परीक्षण से सुरक्षा मिलती है, तो कंपनियां नियुक्ति के लिए अधिक इच्छुक होती हैं।
भूमि सुधार: किसानों को न सताए स्वामित्व का डर
भूमि भारत का सबसे विवादित संसाधन बना हुआ है। पुराने रिकॉर्ड, अस्पष्ट स्वामित्व और प्रशासनिक बाधाएं बुनियादी ढांचे और आवास परियोजनाओं में देरी का कारण बनती हैं।
समाधान: थाईलैंड और वियतनाम दोनों ने पारदर्शी भूमि स्वामित्व प्रणाली शुरू की, जिससे विदेशी निवेश आया और किसानों की आय में सुधार हुआ। भारत को देश भर में भूमि रिकॉर्ड का डिजिटलीकरण करना चाहिए और लागू करने योग्य स्वामित्व स्थापित करने चाहिए। सुरक्षित संपत्ति अधिकार आर्थिक विश्वास की नींव है।
सामाजिक सुरक्षा कवर: बिना किसी डर महफूल रहे जिंदगी
भारत में आज भी करोड़ों लोग सामाजिक सुरक्षा के बिना काम कर रहे हैं। सरकार की ओर से भी सबके लिए सामाजिक सुरक्षा कवर उपलब्ध न होने से लोग जोखिम लेने से डरते हैं और गरीबी के दुष्चक्र में फंसे रहते हैं।
समाधान: ब्राजील के बोल्सा फैमिलिया और मेक्सिको के प्रोस्पेरा कार्यक्रमों ने शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा से जुड़े कैश ट्रांसफर के जरिये लाखों लोगों को गरीबी से बाहर निकाला है।
भारत के डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर(डीबीटी) माडल की पहले से ही दुनिया भर में सराहना हो रही है। अब इसका विस्तार पेंशन, बेरोजगारी भत्ते और सबके लिए स्वास्थ्य बीमा तक करना चाहिए।
राज्यों को वित्तीय और कानूनी स्वायत्तता
भारत एक बड़ा और विविधता से भरा हुआ देश है। ऐसे में यहां की विविधता स्थानीय समाधान की मांग करती है न कि दिल्ली में बनी सबके लिए एक जैसी नीतियां। राज्यों को अधिक वित्तीय और कानूनी स्वायत्तता मिलनी चाहिए।
समाधान: अमेरिका में राज्य टैक्स प्रोत्साहन, इन्फ्रास्ट्रक्चर और कुशल कामगारों की पेशकश करके कंपनियों को निवेश के लिए आकर्षित करने में प्रतिस्पर्धा करते हैं। चीन ने प्रांतों को अनुमति दी है कि वह बाजार सुधारों को लेकर प्रयोग कर सकें, जिसे बाद में राष्ट्रीय स्तर पर लागू किया जा सके। भारत राज्यों को नवाचार की स्वतंत्रता देकर प्रतिस्पर्धी संघवाद को बढ़ावा दे सकता है।
शहरों का सशक्तिकरण
भारत के शहर देश की जीडीपी में दो तिहाई से अधिक योगदान करते हैं, लेकिन उनका प्रशासनिक ढांचा कमजोर है। ज्यादातर शहरों में फैसले लेने में सक्षम मेयर या स्वतंत्र बजट की व्यवस्था नहीं है।
समाधान: न्यूयॉर्क, लंदन और सिंगापुर दिखाते हैं कि शहर का मजबूत नेतृत्व उसे वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धी बनाता है। चीन के शहर जैसे शेनझेन इसलिए ग्लोबल हब के तौर पर उभरे हैं तो इसकी वजह स्थानीय नेतृत्व का जमीन, निवेश और इन्फ्रास्ट्रक्चर से जुड़े फैसले लेने में सक्षम होना है।
विश्व स्तरीय इन्फ्रास्ट्रक्चर
भारत में लाजिस्टिक्स कास्ट जीडीपी का 14 प्रतिशत है। वहीं, चीन में यह आठ प्रतिशत है। ऊंची लाजिस्टिक्स कास्ट भारतीय उत्पादों को कम प्रतिस्पर्धी बनाती है।
समाधान: दक्षिण कोरिया और जापान, दोनों ने इन्फ्रास्ट्रक्चर को अपनी विकास गाथा की रीढ़ बनाया और परिवहन एवं ऊर्जा में भारी निवेश किया। भारत को अपनी अर्थव्यवस्था को एकीकृत करने और लाजिस्टिक्स कास्ट कम करने के लिए राजमार्गों, बंदरगाहों, रेल और डिजिटल कनेक्टिविटी में निवेश में तेजी लानी होगी।
कामगारों को मिले लाभ और सुरक्षा
भारत में करीब 90 करोड़ लोग कामकाजी उम्र के हैं। इसमें से करीब सात करोड़ लोग ही पेरोल पर काम कर रहे हैं। बाकी करीब 83 करोड़ अनौपचारिक अर्थव्यवस्था के हिस्से के तौर पर किसी लाभ और सुरक्षा के बिना काम कर रहे हैं।
समाधान: चीन ने औद्योगिक उत्थान के दौरान कामगारों को आक्रामक रूप से औपचारिक अर्थव्यवस्था का हिस्सा बनाया। उनको खेती से हटा कर कारखानों में पेरोल पर लगाया। ब्राजील ने भी कंपनियों को टैक्स छूट देकर इसी तरह की सफलता हासिल की है।
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