दलहन-तेलहन में आयात पर कम नहीं हो रही निर्भरता, गेहूं-धान के उत्पादन में बांग्लादेश से भी पीछे
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) ने खाद्यान्न उत्पादन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है जिससे देश आत्मनिर्भर बना है। 1950-51 में 5.08 करोड़ टन से बढ़कर आज 33 करोड़ टन उत्पादन हुआ है। फिर भी दलहन-तेलहन में आयात निर्भरता और पोषण संबंधी समस्याएँ बनी हुई हैं। उत्पादकता में वृद्धि आवश्यक है क्योंकि भारत अभी भी कई देशों से पीछे है।

अरविंद शर्मा, जागरण, नई दिल्ली। खाद्यान्न के मामले में देश को आत्मनिर्भर एवं निर्यातक बनाने में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) की भूमिका नि:संदेह बड़ी रही है, लेकिन 96 साल का सफर यह भी बताता है कि समयानुसार उत्पादकता बढ़ाने और पोषण सुरक्षा की दिशा में अभी भी अपेक्षा पर पूरी तरह नहीं उतर पाया है। दलहन-तेलहन में आयात पर आज भी निर्भरता कम नहीं हो रही और पोषण समस्या भी बरकरार है।
जाहिर है कि आईसीएआर की असली पहचान तभी बनेगी, जब वह पेट भरने के साथ हर थाली को पौष्टिक भी बना सके। इसमें कोई शक नहीं कि खाद्यान्न उत्पादन में भारत ने ऐतिहासिक छलांग लगाई है। 1950-51 में कुल उत्पादन जहां महज 5.08 करोड़ टन था, वहीं आज यह 33 करोड़ टन के पार पहुंच चुका है।
पांच दशकों में भूख एवं आयात की बेडि़यां तोड़कर देश आत्मनिर्भर और निर्यातक बना। पर अब बार बार यह सवाल सामने खड़ा हो रहा है कि वैश्विक मापदंड के मुकाबले भारत की उत्पादकता क्यों नहीं बढ़ रही है। कृषि प्रधान देश होने के बावजूद हमारा ध्यान गेहूं और धान तक क्यों सीमित है। जबकि सच्चाई यह है कि उत्पादकता बढ़ाए बिना न देश खुशहाल हो सकता है और न ही किसानों की आय में छलांग आ सकती है।
उत्पादकता में पिछड़ापन
देश भर में फैले 16 हजार कृषि विज्ञानियों की टीम ने खाद्यान्न उत्पादन तो बढ़ाया है, मगर प्रति हेक्टेयर उत्पादकता के मामले में भारत कई देशों से आज भी काफी पीछे है। गेहूं और धान की उपज में चीन और अमेरिका आज भी आगे है। यहां तक कि बांग्लादेश एवं वियतनाम से भी हम पीछे हैं।
जाहिर है, आईसीएआर का पूरा ध्यान दशकों तक धान-गेहूं की पैदावार बढ़ाने पर ही रहा, जबकि दलहन और तिलहन लगातार हाशिये पर धकेले जाते रहे। परिणाम है कि आज भी हर साल 60 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा की दाल आयात करना पड़ता है। खाद्य तेलों में भी हम पराश्रित हैं। यह स्थिति आइसीएआर की नीतिगत प्राथमिकताओं पर सवाल खड़े करती है।
भूख से बाहर, पोषण में संकट बरकरार
खाद्यान्न की मात्रा बढ़ी, मगर गुणवत्ता की गवाही राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे (एनएफएचएस-5) देता है। देश में 35.5 प्रतिशत बच्चे ठिगनेपन (स्टंटिंग) से जूझ रहे हैं। 19 प्रतिशत कुपोषित हैं और 32 प्रतिशत बच्चों का वजन सामान्य से कम है। 15 से 49 वर्ष की आधी से ज्यादा महिलाएं एनीमिया पीड़ित हैं। यानी कैलोरी तो मिलती रही है, लेकिन पोषक तत्व अब भी थाली से दूर हैं।
देर से जागा शोध तंत्र
यह अच्छी बात है कि आइसीएआर का शोध तंत्र अब धीरे-धीरे जाग रहा है। हाल के वर्षों में 150 से ज्यादा बायो-फोर्टिफाइड किस्में विकसित की हैं। इनमें जिंक-युक्त चावल, आयरन युक्त गेहूं और प्रोटीन युक्त दालें शामिल हैं। गेहूं (पीबीडब्ल्यू-1 जिंक) , धान (धनलक्ष्मी) और मक्का (पुसा टीसीएम-8) जैसी किस्में खेतों तक पहुंची हैं।
फल-सब्जियों में भी विटामिन-सी से भरपूर टमाटर, बीटा-कैरोटीन वाली गाजर और पोषण युक्त केला की किस्में विकसित की गई हैं। लेकिन सवाल है कि ऐसी पहल प्रारंभ में क्यों नहीं हुई। अगर शुरुआत पहले होती तो आज स्थिति अलग होती।
बदल रहीं प्राथमिकताएं
यह अच्छा संकेत है कि अब सरकार ने प्राथमिकताएं बदली हैं। कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री शिवराज सिंह चौहान का कहना है कि अब सिर्फ उत्पादकता नहीं, बल्कि पोषण सुरक्षा पर भी जोर होगा। 'कुपोषण मुक्त भारत' जैसी योजनाओं को आईसीएआर के शोध से जोड़ने की बात हो रही है। सरकार एवं कृषि विज्ञानियों को मिलकर सुनिश्चित करना होगा कि अगली पीढ़ी को केवल भरी थाली नहीं, बल्कि संतुलित और पौष्टिक थाली मिले।
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