अब 'ईद के चांद' हो गए हैं हिंदी के मुहावरे
कभी हिंदी मुहावरों का प्रचलन इतना अधिक था कि आम बोल-चाल में भी इसका उपयोग धड़ल्ले से किया जाता था और अब तो यह गाहे-बगाहे कहीं किसी कोने में दिखता है।

नई दिल्ली। पहले बोल-चाल में लोग मुहावरों का इस्तेमाल धड़ल्ले से करते थे जो अब सामान्य तौर पर नहीं दिखती या कह लें ‘ईद का चांद’ ही हो गई हैं। अनुमान लगाया गया है कि मुहावरों के गायब हाने की वजह भाषा में आया बदलाव है।
साहित्य से भी नदारद हैं मुहावरे
साहित्यकार व प्राध्यापक डॉ. योगेंद्रनाथ शुक्ल के अनुसार अब तो साहित्य में भी मुहावरे, कहावतें नजर नहीं आतीं। ये भाषा-बोली का सौंदर्य हैं, लेकिन जब भाषा की ओर ही ध्यान नहीं है तो सौंदर्य का जिक्र तो बाद में आता है। इनके प्रयोग से कथन का वजन और भी बढ़ जाता है। कहावतों का जन्म गांवों में हुआ। अब तो गांव भी शहरीकरण की दौड़ का हिस्सा बन गए हैं। ऐसे में लोकोक्तियों की ओर ध्यान किसका जाएगा।
हिंदी को दें प्राथमिकता
शिक्षाविद् श्याम अग्रवाल के अनुसार, वर्तमान में विद्यार्थी इन्हें केवल उतना ही महत्व दे रहे हैं, जितना परीक्षा में पास होने के लिए जरूरी है। इसे बचाने के लिए हिंदी को प्राथमिकता देना चाहिए। आज अगर बच्चों को मुहावरों का प्रयोग करने को कहा जाता है तो उन्हें ‘दिन में तारे नजर’ आने लगते हैं। हमें बच्चों और युवाओं को समझाना होगा कि हिंदी हमारी प्राथमिकता है।
कम शब्द में कहती हैं बातें
शिक्षाविद् पुनीता नेहरू कहती हैं कि यदि भाषा को गंभीरता से पढ़ाया जाए तो विद्यार्थी भी मुहावरों, कहावतों में रुचि लेंगे। इनका अस्तित्व सेमल का फूल होने के समान नहीं है जो चंद दिनों में कहीं खो जाए, बल्कि ये तो वह चांद का टुकडा है, जिससे हमारी बात सुंदर और सहज बनती है। कम शब्द में कितने बेहतर ढंग से अपनी बात रखी जा सकती है, यह बात कहावतों से सीखी जा सकती है। यह भाषा में रंग जमा देती है।
सहज व सशक्त माध्यम
शिक्षाविद् अंजू चौपड़ा बताती हैं कि आज भाषा बहुत बदल गई है। मुहावरे व लोकोक्तियां अपनी बात रखने का सशक्त व सहज माध्यम हैं। इससे तार्किक सोच विकसित होती है। कई मुहावरे और लोकोक्तियां तो हमारी संस्कृति से भी परिचित कराते हैं। इनका उपयोग ज्यादा से ज्यादा हो, इसके लिए कहानियों का चलन शुरू करना होगा।

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