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    In-Depth: ये है भीमा कोरेगांव का इतिहास, जिसने पुणे को हिंसा की आग में झोंक दिया

    By Abhishek Pratap SinghEdited By:
    Updated: Wed, 03 Jan 2018 10:40 AM (IST)

    महाराष्ट्र में पुणे जिले के कोरेगांव भीमा में जातीय हिंसा में एक शख्स की मौत हो गई जबकि कई लोग घायल हो गए। इस हिंसा की स्क्रिप्ट 200 साल पहले लिख गई थी कैसे आइए जानते हैं?

    In-Depth: ये है भीमा कोरेगांव का इतिहास, जिसने पुणे को हिंसा की आग में झोंक दिया

    नई दिल्ली, [स्पेशल डेस्क]। नए साल के मौके पर महाराष्ट्र के पुणे जिले में भीमा-कोरेगांव की लड़ाई का जश्न मनाने के लिए एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया लेकिन ये कार्यक्रम हिंसक झड़प में तब्दील हो गया। इस झड़प में एक व्यक्ति की मौत हो गई और इलाके में तनाव फैल गया। ये जश्न अंग्रेजों की जीत को लेकर मनाया गया था। दलित संगठन, पेशवा बाजीराव द्वितीय की सेना पर अंग्रेजों के शौर्य दिवस को हर साल धूमधाम से मनाते हैं। सोमवार को रिपब्लिक पार्टी ऑफ इंडिया (अठावले) ने कोरेगांव भीमा युद्ध के 200 साल पूरे होने पर यह विशेष कार्यक्रम आयोजित कराया था।

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    क्या है कोरेगांव की लड़ाई
    कोरेगांव की लड़ाई 1 जनवरी 1818 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और मराठा साम्राज्य के पेशवा गुट के बीच, कोरेगांव भीमा में लड़ी गई थी। ये वो जगह है जहां पर उस वक्त अछूत कहलाए जाने वाले महारों (दलितों) ने पेशवा बाजीराव द्वितीय के सैनिकों को लोहे के चने चबवा दिए थे। दरअसल ये महार अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कंपनी की ओर से लड़ रहे थे और इसी युद्ध के बाद पेशवाओं के राज का अंत हुआ था।

    महारों ने पेशवा के खिलाफ लड़ाई क्यों लड़ी?

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    इतिहाकार महारों और पेशवा फौज के बीच हुए इस युद्ध को अंग्रेजों के खिलाफ भारतीय शासकों के युद्ध के तौर पर देखते हैं तथ्यात्मक रूप से वो गलत नहीं हैं, लेकिन जहन में एक सवाल जरूर उभरता है कि अंग्रेजों के साथ मिलकर महारों ने पेशवाओं के खिलाफ क्यों लड़ाई की थी।

    इतिहासकारों के मुताबिक दरअसल महारों के लिए ये अंग्रेजों की नहीं, बल्कि खुद की अस्मिता की लड़ाई थी। महारों के पास ब्राह्मण व्यवस्था के खिलाफ उतरने का एक शानदार मौका था, क्योंकि पेशवाओं ने इन महारों को उस समय जानवरों से भी निचले दर्जे में रखा था और उनके साथ बुरा सलूक किया गया था। प्राचीन भारत में सवर्ण, दलित समुदाय के साथ जिस तरह का व्यवहार किया करते थे, वही व्यवहार पेशवाओं ने महारों के साथ किया था।

    इतिहासकारों की जुबानी

    पेशवाओं ने महारों के साथ जिस तरह का बर्ताव किया, इतिहासकार उसके बारे में भी बताते हैं। शहर में घुसते वक्त महारों को अपनी कमर पर झाड़ू बांधकर रखनी होती थी, ताकि उनके कथित अपवित्र पैरों के निशान इस झाड़ू से मिटते चले जाएं। इतना ही नहीं महारों को अपनी गर्दन में एक बर्तन भी लटकाना होता था ताकि उनका थूका हुआ जमीन पर न पड़े और कोई सवर्ण अपवित्र न हो जाए।

    ये प्राचीन भारत से चले आ रहे वो नियम थे, जिसके खिलाफ समय-समय पर आवाजें उठती रहीं, लेकिन इन दलित विरोधी व्यवस्थाओं को बार-बार स्थापित किया गया। इसी व्यवस्था में रहने वाले महारों के पास सवर्णों से बदला लेने का अच्छा मौका था और इसीलिए महार अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कंपनी में शामिल होकर लड़े। एक तरफ वो पेशवा सैनिकों के साथ लड़ रहे थे दूसरी तरफ इस क्रूर व्यवस्था का बदला भी ले रहे थे।

    अब जब कोरेगांव की लड़ाई के 200 साल पूरे होने पर वो जश्न मना रहे थे तो वो ईस्ट इंडिया कंपनी का जश्न नहीं बल्कि उस कुप्रथा के खिलाफ जीत का जश्न मना रहे थे। कुछ दलित नेता इस लड़ाई को उस वक्त के स्थापित ऊंची जाति पर अपनी जीत मानते हैं। हालांकि, कुछ संगठन इसे ब्रिटिशों की जीत मानते हुए, इसका जश्न मनाने का विरोध करते हैं।

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