शिक्षा प्रणाली का सिंगल विंडो है विकसित भारत शिक्षा अधिष्ठान विधेयक-2025: डॉ. सहस्त्रबुद्धे
प्रोफेसर अनिल डी. सहस्त्रबुद्धे के अनुसार, 'विकसित भारत शिक्षा अधिष्ठान विधेयक-2025' पुरानी शिक्षा प्रणाली को बदलकर 'ईज ऑफ डूइंग एजुकेशन' लाएगा। यह वि ...और पढ़ें

प्रोफेसर अनिल डी. सहस्त्रबुद्धे।
रुमनी घोष। वर्ष 2025 की विदाई के साथ इस बार विदा होंगी कुछ पुरानी व्यवस्थाएं... उनमें से एक है पुरानी शिक्षा प्रणाली। अंग्रेजों के समय से चली आ रही इस व्यवस्था में बदलाव लाने के लिए नई शिक्षा नीति तो पहले ही लागू हो चुकी है। उस नीति को देशभर में एक समान रूप से लागू करने के लिए रास्ता तैयार करने का काम करेगा विकसित भारत शिक्षा अधिष्ठान विधेयक-2025। 15 दिसंबर को संसद में पेश इस विधेयक की जरूरत को लेकर केंद्र सरकार को जिन शिक्षाविदों ने समय-समय पर अवगत करवाया, उनमें से एक हैं नेशनल एजुकेशन टेक्नोलाजी फोरम (एनईटीएफ) के चेयरमैन और नैक (नेशनल असेसमेंट एंड एक्रीडिएशन काउंसिल) बेंगलुरू के कार्यसमिति के अध्यक्ष प्रोफेसर अनिल डी. सहस्त्रबुद्धे।
उनका कहना है जिस तरह से व्यापार में लेन-देन को आसान करने के लिए ईज ऑफ डूइंग बिजनेस को आकार दिया गया है। उसी तरह यह विधेयक शिक्षा देने और पाने की राह को आसान करने का रास्ता, यानी ईज ऑफ डूइंग 'एजुकेशन' है। शिक्षा का यह नया तंत्र भरोसा, निगरानी और आसानी के स्तंभ पर खड़ा होगा। बेशक इसके परिणाम आने में पांच से दस साल लगेंगे। तमाम खूबियों के बावजूद आने वाले समय में कुछ खामियां भी रह जाएंगी। फिर भी यह नई शुरुआत होगी। महाराष्ट्र से पीढ़ियों पुराना नाता, कर्नाटक में जन्में, पले-बढ़े प्रोफेसर सहस्त्रबुद्धे ने 1980 में कर्नाटक विश्वविद्यालय से मैकेनिकल इंजीनियरिंग में बीई किया। प्रथम रैंक और स्वर्ण पदक हासिल किया। भारतीय विज्ञान संस्थान (आइआइएससी) बेंगलुरू से स्नातकोत्तर, पीएचडी और नौकरी करने के बाद निजी क्षेत्र में चले गए। टाटा कंसल्टिंग इंजीनियर्स में बतौर ट्रेनी इंजीनियर सालभर काम करने के बाद अहसास हुआ कि यह क्षेत्र उनके लिए नहीं है।
शिक्षा जगत में लौटे और पूर्वोत्तर से शुरुआत की। अरुणाचल प्रदेश स्थित नॉर्थ ईस्टर्न रीजनल इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एंड टेक्नोलाजी (एनईआरआइएसटी) से जुड़े। आइआइटी गुवाहाटी में बतौर डिप्टी डायरेक्टर और फिर 1854 में स्थापित पुणे इंजीनियरिंग कॉलेज के निदेशक रहे। ऑल इंडिया काउंसिल ऑफ टेक्निकल एजुकेशन (एआईसीटीई) में अध्यक्ष के रूप में कई महत्वपूर्ण शैक्षणिक, अनुसंधान और प्रशासनिक पदों पर कार्य किया है। वह प्रॉज इंट्राप्रेन्योर अवार्ड (2011), एमआइटी वर्ल्ड पीस यूनिवर्सिटी, महात्मा गांधी लीडरशिप अवार्ड 2019 और जान मथाई नेशनल फेलो अवार्ड (2021) से सम्मानित हैं। दैनिक जागरण की समाचार संपादक रुमनी घोष ने उनसे इस बिल की जरूरत और आने वाले समय में होने वाले बदलावों पर विस्तार से चर्चा की। प्रस्तुत हैं बातचीत के प्रमुख अंशः
इस विधेयक की जरूरत क्यों महसूस हुई?
इसकी जरूरत इसके नाम से ही पता चलता है। इस विधेयक के नाम की शुरुआत विकसित भारत से हो रही है... विकसित भारत शिक्षा अधिष्ठान विधेयक। इसके अलग-अलग पहलू हैं। विकसित भारत बनने के लिए हमें कौन-कौन सी चीजों की जरूरत है। ट्रांसपोर्टेशन, एनर्जी, स्मार्ट सिटी, स्टार्टअप्स, साइंस एंड टेक्नोलॉजी आदि। इन सभी क्षेत्रों को विकसित करने या इसमें बदलाव लाने के लिए सबसे अहम भूमिका शिक्षा की है। शिक्षा प्रणाली, शिक्षक व शिक्षण संस्थाएं, शिक्षार्थी मिलकर समाज को जिस दशा व दिशा में ले जाना चाहते हैं, उससे ही हम विकसित भारत की ओर कदम बढ़ा पाएंगे। शिक्षा को उसी दशा-दिशा की ओर ले जाने के लिए यह विधेयक है।

आप इस विधेयक की व्याख्या कैसे करेंगे?
आपने सुना होगा... इज ऑफ डूइंग बिजनेस। व्यापार की प्रक्रिया को सरल व आसान बनाने के लिए यह नीति बनाई गई थी। इसी तरह मैं इस विधेयक को इज ऑफ डूइंग 'एजुकेशन' का नाम देना चाहूंगा। यानी शिक्षा देने व पाने की राह को आसान करने का रास्ता।
आप बार-बार शिक्षा प्रणाली आसान होने की बात कह रहे हैं। यह कैसे आसान होगा?
पुरानी शिक्षा प्रणाली में एक ही काम तीन अलग-अलग परिषद विश्व अनुदान आयोग (यूजीसी), अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद (एआइसीटीई), राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद (एनसीटीई) और काउंसिल ऑफ आर्किटेक्चर (सीओए) द्वारा अलग-अलग मानकों के आधार पर करते थे। इसे इस तरह से समझिए कि यदि एक शिक्षण संस्थान को अलग-अलग पाठ्यक्रमों के लिए अलग-अलग परिषद से मान्यता लेना पड़ती थी। यूजीसी द्वारा आमतौर पर कला, विज्ञान सहित सभी विषयों की अनुमति के लिए यूजीसी की अनुमति अनिवार्य है। वहीं इंजीनियरिंग, प्रबंधन, फार्मेसी, वास्तुकला आदि के लिए एआइसीटीई की मान्यता की जरूरत है। शिक्षकों का अपग्रेडेशन यानी बीएड, एमएड या अन्य वोकेशनल कोर्सेस एनसीटीई के अधीन है। आर्किटेक्चर (वास्तुकला) कालेज की मान्यता के लिए सीओए के पास जाना पड़ता था।
यानी कोई संस्था यदि सभी तरह के पाठ्यक्रम चलाना चाहती है तो उसे तीन अलग-अलग परिषदों के पास आवेदन देना होगा। पाठ्यक्रम शुरू होने के बाद तीन अलग-अलग परिषद उसकी निगरानी करेंगे और दौरा करेंगे। तीनों के मानक अलग-अलग हैं। एकरूपता नहीं होने की वजह से इसमें जितनी विसंगतियां थीं, उतना ही नियम पालन करने में परेशानी आती थी। कई बार तो नियम विरोधाभासी हो जाते हैं। इस नए विधेयक में तीनों परिषदों को 'मर्ज' (एक में समाहित) विकसित भारत शिक्षा अधिष्ठान (वीबीएसए) के अधीन लाकर लंबे अरसे से चली आ रही इस समस्या का समाधान ढूंढा गया है। इसके अलावा काउंसिल ऑफ आर्किटेक्चर का कुछ हिस्सा भी इसमें समाहित किया गया है।
यूजीसी, एआइसीटीई और एनसीटीई को मर्ज करने से शिक्षा प्रणाली कैसे सुधरेगी?
इसके तहत यूजीसी, एआइसीटीई और एनसीटीई जैसी सभी संस्थाएं विकसित भारत शिक्षा अधिष्ठान के अधीन होंगी। इसे आप एक तरह से 'सिंगल विंडो' मानिए। कला, विज्ञान, इंजीनियरिंग, फार्मेसी, प्रबंधन, वास्तुकला, संगीत, खेल सहित अमूमन सभी तरह के पाठ्यक्रमों (कुछ विषय अपवाद) की अनुमति, निगरानी, मानक निर्धारण, जुर्माना व सजा सहित सभी प्रविधान इसी रेगुलेटरी अथारिटी के अधीन ही होंगे। यानी शिक्षण संस्थान, शिक्षक, शिक्षार्थी किसी को भी अलग-अलग संस्थानों के चक्कर नहीं काटने पड़ेंगे। मान्यता से लेकर निगरानी तक का काम एक ही जगह से हो जाएगा।

तीनों परिषदों को मर्ज करना एक व्यवस्थागत कदम है, लेकिन इससे शिक्षा की गुणवत्ता में कैसे सुधार आएगा? क्या इसके लिए कोई व्यवस्था की गई है?
जैसा मैंने आपको पहले बताया था कि अभी तक तीनों परिषद के नियम-कायदे से लेकर गुणवत्ता जांचने के मानक भी अलग-अलग थे। इस विधेयक में इस विसंगति को दूर करने के लिए विकसित भारत शिक्षा अधिष्ठान (वीबीएसए) के अधीन तीन परिषद बनाए जाने का सुझाव दिया गया है। यह हैं विनियम परिषद (रेगुलेटरी अथारिटी), गुणवत्ता या मान्यता परिषद (एक्रीडिएशन काउंसिल) और मानक परिषद (स्टैंडर्ड काउंसिल)।
विनियम परिषद देश की हर शिक्षण संस्थान को रेगुलेट करने का नियम तय करेगी और उसके अनुसार ही रेगुलेट करेगी। गुणवत्ता या मान्यता परिषद सभी शिक्षण संस्थानों की गुणवत्ता की जांच करेगी। वहीं, मानक परिषद सभी संस्थानों के लिए जरूरत के अनुसार मानक तय करेगी। इससे निश्चित रूप से शिक्षा प्रणाली में एकरूपता आएगी। साथ ही यह आसानी से एक साथ अपग्रेड हो सकेगी। यानी शिक्षा को एक कर दिया और उसके फंक्शन अलग कर दिया गया।
मेडिकल और लॉ को रेगुलेटरी अथारिटी के अधीन नहीं लिया गया है?
नहीं। मेडिकल और लॉ एजुकेशन को अभी इस दायरे में नहीं लाया गया है। भविष्य में इस पर भी विचार हो सकता है।
कहा जा रहा है इसमें राज्य सरकारों व शिक्षण संस्थानों की भूमिका होगी। यह भूमिका किस तरह की होगी?
जी हां। जो बॉडी बनेगी, उसमें राज्य सरकारों व बड़े शिक्षण संस्थानों के प्रतिनिधियों को शामिल करने का प्रविधान दिया गया है। अभी तक राज्य सरकारों की कोई भूमिका नहीं होती है। यही वजह है कि उनके राज्य में चल रहे शैक्षणिक संस्थाओं को लेकर सरकारों की कोई रुचि नहीं होती थी। यदि उनके राज्यों में मौजूद शैक्षणिक संस्थानों में कोई गड़बड़ी हो रही है और विद्यार्थी परेशान हो रहे हैं। उसमें भी सरकारें कोई रुचि नहीं लेती थीं। या फिर कहें कि नियमों की वजह से कोई कदम नहीं उठा पाती थीं। अब वह विकसित भारत शिक्षा अधिष्ठान के अधीन आने वाले तीनों काउंसिल (परिषदों) का हिस्सा होंगी। नियम और मानक तय करते वक्त शैक्षणिक संस्थानों के प्रतिनिधियों को शामिल किया जाएगा।
उच्च शिक्षा की बात आते ही नैक (राष्ट्रीय मूल्यांकन एवं प्रत्यायन परिषद) का जिक्र जरूर आता है। कॉलेजों में नैक के दौरे का बहुत खौफ रहता था और इसके द्वारा ग्रेडिंग का बहुत महत्व होता था। इसका क्या होगा?
अब नैक का कोई दौरा नहीं होगा। साल में एक बार नैक की टीम का दौरा होता है और वह जाकर कहते हैं कि यह ठीक नहीं है, वह ठीक नहीं है। शिक्षण संस्थाएं भी कमियों को ढांकने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाती हैं। इससे कोई फायदा नहीं हो रहा।
दौरा नहीं होगा तो देशभर के शिक्षण संस्थानों की निगरानी कैसे होगी?
भरोसे से...। यानी 'भरोसा आधारित निगरानी प्रणाली'। इस मॉडल के तहत शिक्षण संस्थाओं से ही कहा जाएगा कि वह खुद यह जानकारी दें कि वह तय मानकों के अनुरूप हैं या नहीं। यानी उनके पास कितने शिक्षक हैं, प्रयोगशाला से लेकर उसमें मौजूद उपकरण, मेज-कुर्सी से लेकर लाइब्रेरी व खेल के मैदानों की जानकारी, कक्षाओं से लेकर छात्रों की संख्या सभी उन्हें पोर्टल (वेबसाइट) पर अपलोड करना होगा। रेगुलेटरी अथॉरिटी उस पर नजर रखेगी।
आपको लगता है कि शिक्षण संस्थाएं ईमानदारी के साथ सटीक जानकारी पोर्टल पर अपलोड करेंगी? इस भरोसे की वजह क्या है?
शिक्षण संस्थानों द्वारा पोर्टल पर दी गई जानकारी सभी के लिए ओपन होगा। चाहे निगरानी करने वाली परिषद हो या फिर उस कालेज में पढ़ने वाले विद्यार्थी या फिर उनके माता पिता देख पाएंगे। सभी यह नजर रख पाएंगे कि संस्थान सरकार को क्या जानकारी दे रहे हैं। जो कंपनीज प्लेसमेंट के लिए आएंगी, उनकी भी नजर रहेगी। यदि दी गई जानकारी सही नहीं है तो कोई भी शिकायत कर सकता है। शिकायत होने पर परिषद न सिर्फ जांच करेगी, बल्कि कठोर जुर्माने का भी प्राविधान है। जैसे तीन साल के लिए मान्यता रद करना या फिर 1 से 2 करोड़ तक का जुर्माना भी लगाया जा सकता है। इसके अलावा परिषद की ओर से समय समय पर जानकारी जुटाई जाएगी। इतने स्तर पर निगरानी होगी तो शिक्षण संस्थानों के लिए झूठे तथ्य देना आसान नहीं होगा। ऐसा नहीं कि लोग बचने का रास्ता निकालने की कोशिश नहीं करेंगे, लेकिन इतना कह सकता हूं कि वह आसानी से यह नहीं कर पाएंगे।
क्या माना जाए कि इस विधेयक के लागू होने के बाद हमारी शिक्षा प्रणाली पूरी तरह पारदर्शी और समस्यायों से मुक्त हो जाएगी?
नहीं। यह दावा नहीं किया जा सकता है। इसे लागू करने के बाद पूरी तरह से गड़बड़ियां या समस्याएं रुक जाएंगी, ऐसा नहीं होगा। मेरा आकलन है कि 10-15 प्रतिशत गड़बड़ियां तब भी मौजूद रहेंगी। जब यह सामने आएंगी, तो उन्हें ढूंढने की कोशिश होगी। बदलाव की यह सतत प्रक्रिया है।
दावा किया जा रहा है कि इससे फर्जी कॉलेज या यूनिवर्सिटी पर भी रोक लगेगी। कैसे ?
पोर्टल पर जानकारी सार्वजनिक करने की शर्त इसमें अहम भूमिका निभाएगी। मेरा विश्वास है कि इस व्यवस्था से काफी हद तक पारदर्शिता आएगी। फर्जीवाड़े पर रोक लग सकेगी।
विधेयक लागू होने के कितने समय बाद इसका असर दिखने लगेगा?
पांच से 10 साल लगेंगे।

इस विधेयक से शिक्षा व्यवस्था में क्या बदलाव आएगा?
इस विधेयक में शिक्षकों को अपग्रेड करने के कई प्राविधान का सुझाव है। उदाहरण के लिए अभी की शिक्षा प्रणाली में शिक्षकों को प्रमोशन के लिए रिसर्च वर्क पर बहुत जोर दिया जाता रहा है। अब शिक्षक का मन हो या नहीं हो, उसे यह करना ही होता था। नए विधेयक में इससे मुक्ति रहेगी। यदि कोई शिक्षक नई नई तकनीक के जरिए अच्छा पढ़ाता है और विद्यार्थी उनके इस कौशल से विषय को अच्छे से समझ पाते हैं, तो उस शिक्षक का मूल्यांकन इस आधार पर होगा कि वह कैसा पढ़ाते हैं। न कि रिसर्च पेपर के आधार पर। इससे नवाचारों को भी बढ़ावा मिलेगा। सोचिए, जब छोटे छोटे गांव में बदलाव की शुरुआत होगी तो बच्चों में विषय को जानने समझने की शक्ति बढ़ेगी। ड्रॉपआउट यानी शाला त्यागी विद्यार्थियों की संख्या में कमी आएगी।
...और शिक्षा के स्तर में क्या बदलाव आएगा?
हमारे देश में 440 स्टार्टअप्स थे, नई शिक्षा नीति लागू होने के शुरुआती दौर में ही स्टार्टअप्स की संख्या एक लाख 750 पार हो गया है। नए विधेयक के जरिए इस तरह के कामों को और प्रोत्साहन मिलेगा। वाय2के जैसी समस्या का समाधान कर हमने दुनिया को हमारे सॉफ्टवेयर स्किल से अवगत करवाया था, अब हम हार्डवेयर यानी चिप निर्माण के क्षेत्र में आगे बढ़ेंगे। नई शिक्षा नीति और इस विधेयक में एआइ मिशन को भी बढ़ावा देने की विधिवत योजना है। क्वांटम नया विषय है, जिस पर भी ध्यान केंद्रित करेगा ।
इस बिल को आकार देने में आपकी क्या भूमिका रही है?
सिस्टम का हिस्सा रहे मेरे जैसे बहुत से शिक्षाविद् लंबे समय से यह महसूस कर रहे थे कि शिक्षा प्रणाली में कुछ बदलाव जरूरी है। हम सब लोगों ने अपनी-अपनी क्षमता अनुसार सरकार के सामने समय-समय पर अपनी बात रखी। पांच साल पहले जब इसरो के पूर्व अध्यक्ष डॉ. कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता वाली कमेटी द्वारा नई शिक्षा नीति-2020 तैयार की जा रही थी, उस समय कमेटी द्वारा शिक्षा जगत से जुड़े अलग-अलग समूहों से चर्चा की जा रही थी। उस दौरान कमेटी के सामने शिक्षा प्रणाली से जुड़ी बहुत सी समस्याएं सामने आई।
उस दौरान हमने भी अपने विचार रखे थे। कमेटी ने नई शिक्षा नीति बनाने के दौरान तैयार अपनी रिपोर्ट में उन सभी परेशानियों का उल्लेख करते हुए समाधान सुझाया था। उन सभी समधानों को शामिल करते विधेयक तैयार किया गया। इस आधार पर आप कह सकते हैं कि प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से हमने डॉ. कस्तूरीरंगन की कमेटी के सामने अपने विचार रखे थे।
आप शिक्षा प्रणाली में हो रहे ऐतिहासिक बदलाव के साक्षी हैं। अब कोई और बदलाव देखना चाहते हैं ?
हां। महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले के एक छोटे से गांव में जाकर फिर बच्चों को पढ़ाना चाहता हूं। जब कोई कठिन विषय बच्चों को समझने में आने लगता है, तो उनके चेहरे पर जो खुशी होती है, उसे दोबारा देखना चाहता हूं। विद्यार्थियों के माता-पिता से चर्चा कर यह समझना चाहता हूं कि जिसमें बच्चों की रुचि हो, वही विषय पड़ने दे।

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