'कब तक गरीबी को करते रहेंगे पुरस्कृत...', एक्सपर्ट ने बताया दक्षिण भारतीय राज्यों के विरोध के पीछे की असली वजह
देश 2026 में परिसीमन की तैयारी कर रहा है जिससे लोकसभा सीटें बढ़ेंगी लेकिन दक्षिण भारत इसका विरोध कर रहा है। जनसंख्या के अनुपात में सीटों का आवंटन दक्षिण भारतीय राज्यों के लिए चिंता का विषय है क्योंकि उनकी आबादी कम हुई है जिससे राजनीतिक प्रतिनिधित्व पर असर पड़ेगा। क्या है इस विरोध का कारण और परिसीमन कैसे बदलेगा भारत का राजनीतिक संतुलन?

जागरण टीम, नई दिल्ली। देश साल 2026 में परिसीमन की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने की तैयारी कर रहा है। यह परिसीमन भारतीय लोकतंत्र को कैसे प्रभावित करेगा? इससे देश में लोकसभा सीटों की कुल संख्या में इजाफा होगा। 1971 में भारत की आबादी 54.8 करोड़ थी। आज यह 146 करोड़ से अधिक है। यानी इस अवधि में आबादी में 260 प्रतिशत से अधिक इजाफा हुआ है।
साल 1971 में एक सांसद ने अपने निर्वाचन क्षेत्र के औसतन 10 लाख लोगों का प्रतिनिधित्व किया। आज यह संख्या करीब 27 लाख है। वहीं अमेरिका में एक प्रतिनिधि करीब 5 लाख लोगों का प्रतिनिधित्व करता है। ऐसे में अगर हम चाहते हैं कि लोकतंत्र में लोगों को उचित प्रतिनिधित्व मिले तो सीटों की संख्या बढ़ाने की जरूरत है। अगर ऐसा है तो कुछ राज्य परिसीमन को लेकर आपत्ति क्यों जता रहे हैं?
आईआईएम बेंगलुरु के संस्थापक अध्यक्ष एडीआर और प्रोफेसर त्रिलोचन शास्त्री बताते हैं कि परिसीमन न सिर्फ सीटों की संख्या में इजाफा करेगा, बल्कि सीटों की संख्या हर राज्य की आबादी के अनुपात में बढ़ेगी। असल मुद्दा यही है। तमिलनाडु, केरल और कर्नाटक सहित दक्षिण भारत के राज्यों की देश की आबादी में हिस्सेदारी करीब 2.5 प्रतिशत तक कम हो गई है। मौजूदा स्तर पर इसका मतलब है 13 सीटों का नुकसान।
दूसरी ओर उत्तर भारत के राज्य जैसे उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात की आबादी बढ़ी है। इन राज्यों को लगता है कि आबादी के आधार पर सीटें निर्धारित होंगी तो उनकी सीटें कम होंगी और उत्तर भारत के राज्यों की सीटें बढ़ेंगी। इससे उनको राजनीतिक प्रतिनिधित्व के मोर्चे पर नुकसान होगा। यही कारण है कि दक्षिण भारत के राज्य परिसीमन का विरोध कर रहे हैं।
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क्या हैं विरोध के प्रमुख कारण?
त्रिलोचन शास्त्री कहते हैं कि उत्तर भारत हमेशा सत्ता का केंद्र रहा है और परिसीमन के बाद इस मोर्चे पर उत्तर भारत और मजबूत होगा। यहां दो और कारक महत्वपूर्ण हैं।
- पहला मुद्दा भाषा का है। दक्षिण भारत की भाषाएं जैसे तेलुगु, कन्नड़ और मलयालम और तमिल 1,000 वर्ष से लेकर 4,000 वर्ष तक पुरानी हैं। आधुनिक हिंदी कुछ सदियों पुरानी है हालांकि, भारत में यह सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है। केंद्र सरकार ने हाल में तमिलनाडु में स्कूली शिक्षा के लिए करीब 2,000 करोड़ रुपये जारी करने से मना कर दिया है, क्योंकि राज्य नई शिक्षा नीति से असहमत है, लेकिन उत्तर भारत में दक्षिण की भाषाएं न तो पढ़ाई जाती हैं और न ही ज्यादा बोली जाती हैं।
- दूसरा अहम मुद्दा अर्थशास्त्र है। दक्षिण भारत के राज्यों की प्रति व्यक्ति आय राष्ट्रीय औसत से 50 प्रतिशत अधिक है। नीति आयोग द्वारा तैयार किया गया बहुआयामी गरीबी सूचकांक बताता है कि दक्षिण भारत में करीब 3 प्रतिशत लोग गरीब हैं। वहीं उत्तर भारत में यह संख्या 11 प्रतिशत से अधिक है। दक्षिण भारत के राज्यों से टैक्स के रूप में एकत्र किए गए एक रुपये में से केंद्र सरकार करीब 50 पैसे राज्यों को आवंटित करती है।
उत्तर भारत के कुछ राज्यों को टैक्स के रूप में एकत्र किए गए हर एक रुपये के लिए केंद्र से 1.5 रुपये और 1.9 रुपये वापस मिलते हैं। यह आवंटन पिछड़ेपन के आधार पर है। इसका मतलब है कि जिन राज्यों की प्रति व्यक्ति आय कम है उनको अधिक फंड मिलेगा। बेहतर आर्थिक वृद्धि और इन्फ्रास्ट्रक्चर, सड़कें, बिजली, शिक्षा, स्वास्थ्य, जीवन प्रत्याशा और गरीबी कम करने के मोर्चे पर बेहतर प्रदर्शन के लिए दंडित किया जा रहा है।
बेहतर शिक्षा, स्वास्थ्य और आय की वजह से देश की कुल आबादी में दक्षिण की हिस्सेदारी घटी है। इसकी वजह से राजनीतिक शक्ति अब उत्तर की ओर और ज्यादा निर्णायक रूप से झुक जाएगी। हम इस समस्या को कैसे खत्म कर सकते हैं? हमें अपना सोचने का तरीका बदलना होगा। हमने सब्सिडी से गरीबी खत्म करने का प्रयास किया है लेकिन समृद्धि को कभी पुरस्कृत नहीं किया।
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