'इतिहास में फेरबदल से सद्भाव नहीं', मुगलों को लेकर मचे बवाल के बीच इतिहासकार विक्रम संपत से खास बातचीत
औरंगजेब और बाबर को लेकर देश में विवाद गहराया है। महाराष्ट्र में औरंगजेब की कब्र पर बवाल और संसद में राणा सांगा पर टिप्पणी के बाद इतिहास लेखन पर बहस छिड़ी है। इतिहासकार विक्रम संपत ने कहा कि आक्रांताओं के अपराधों पर लीपापोती से अलगाववाद बढ़ा है। उनकी किताबें वीर सावरकर और टीपू सुल्तान के सच को उजागर करती हैं।

डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली। पहले महाराष्ट्र में औरंगजेब की कब्र को लेकर बवाल मचा। इस विवाद को लेकर नागपुर में हिंसा और आगजनी भी हुई। उसके बाद संसद में समाजवादी पार्टी के सांसद रामजीलाल सुमन ने राणा सांगा पर बाबर को लेकर अपमानजनक टिप्पणी कर दी। उसके बाद इतिहास लेखन को लेकर एक बार फिर से विमर्श आरंभ हो गया।
हमारे देश में स्वाधीनता के बाद से ही इतिहास लेखन में एक वैकल्पिक धारा भी रही है। इतिहास लेखन की उस वैकल्पिक धारा को बल प्रदान करते हैं युवा इतिहासकार विक्रम संपत। यूके के रॉयल हिस्टारिकल सोसाइटी के फेलो रहे विक्रम संपत ने 10 बेस्टसेलर पुस्तकों का लेखन किया है।
वीर सावरकर पर दो खंडों में लिखी विक्रम की पुस्तक इतिहास के बहुत सारे जाले को साफ करती है। हाल ही में टीपू सुल्तान पर उनकी एक वृहदाकार पुस्तक आई है, जिसमें उपलब्ध दस्तावेजों के आधार पर विक्रम ने टीपू की क्रूरता को सामने लाया है। उनको युवा सहित्य अकादमी सम्मान भी मिल चुका है।
औरंगजेब और बाबर को लेकर मचे बवाल के बीच दैनिक जागरण के एसोसिएट एडिटर अनंत विजय ने इतिहासकार विक्रम संपत से बात की। उनका कहना है आक्रांताओं के अपराध को मिटाकर कुछ हासिल नहीं होगा। नेहरूवादी इतिहासकारों ने यह सोचा कि इतिहास में फेरबदल करके लोगों को आपस में जोड़ा जा सकता है, इससे प्रेम और सद्भाव तो नहीं बढ़ा, उल्टा अलगाववाद ही फैला। प्रस्तुत हैं बातचीत के मुख्य अंश:
सबसे पहले तो ये बताइये कि हमारे देश में औरंगजेब जैसे आक्रांता को लेकर कुछ लोगों का प्रेम क्यों उमड़ता है?
देखिए, जब हमारे देश का धर्म के आधार पर, नहीं-नहीं धर्म बोलना उचित नहीं होगा, बल्कि इस्लाम के आधार पर देश का बंटवारा हुआ। उसके तुरंत बाद ये कहा जाने लगा कि अगर हम ऐतिहासिक घावों को कुरेदेंगे तो तनाव फैल सकता है। स्वाधीनता के शुरुआती दौर में ऐसा मानना फिर भी थोड़ा जायज हो सकता था। ये भी गलत है, लेकिन इसी के बाद ऐसी धारणा बन गई कि सारे आक्रांताओं, मोहम्मद गजनी, मोहम्मद गौरी, औरंगजेब, तैमूर, टीपू सुल्तान आदि ने जिस तरह के बर्बरतापूर्ण कृत्य किए, अगर उसका सत्य चित्रण प्रस्तुत किया जाए तो एक समुदाय आहत हो जाएगा। मेरे हिसाब से ये विडंबना है। उस समुदाय के लोग इन आक्रांताओं की क्रूरताओं के लिए जिम्मेदार नहीं हैं। उसके लिए हम किसी को जिम्मेदार ठहरा भी नहीं सकते हैं, पर इसका उल्टा भी सही है कि आज उस समुदाय के लोग इन सारे आक्रांताओं और आक्रमणकारियों को अपना आदर्श या हीरो क्यों समझें?
एक इतिहासकार के तौर पर क्या आप अतीत की बातें उठाकर समाज में कटुता फैलाने को कितना उचित मानते हैं?
सबसे पहले तो ये सोचना चाहिए कि अगर किसी मुसलमान को भारत में सुरक्षित महसूस करना है तो उसके लिए किसी एक मुसलमान को ही आदर्श मानने की आवश्यकता नहीं है, कोई एक हिंदू भी उसका आदर्श हो सकता है। दूसरा अतीत पर लीपापोती करके या आक्रांताओं के अपराध को मिटाकर कुछ हासिल नहीं होगा। लीपापोती करके जो इतिहास लिखा गया ये उसी का परिणाम है। आज का दौर सूचना का दौर है, आज हर हाथ में मोबाइल है और इंटरनेट सबकी पहुंच में है। आज के युग में सभी सत्य जानना चाहते हैं। ऐसे में कुछ विशेष लोग जो जेएनयू और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में बैठकर कहते हैं कि देश का इतिहास ऐसा होना चाहिए या इसी को आपको मानना चाहिए। जनता उनको मानने को तैयार नहीं। अब लोग सत्य की खोज खुद कर रहे हैं। ऐसे में समाज में तनाव और बढ़ रहा है, पर यह जो सिलसिला आज का नहीं है।
हमारे देश में स्वाधीनता के बाद जो इतिहास लिखा गया और जो स्कूलों में पढ़ाया गया उस पर आपकी क्या राय है?
पत्रकार अरुण शौरी ने एक बात का जिक्र किया था। संभवत: ये बात 1989 की है, तब बंगाल में ज्योति बसु की सरकार थी। इस दौरान राज्य में पढ़ाई जाने वाली इतिहास की किताबों का उल्लेख करते हुए एक सर्कुलर निकाला गया था। सर्कुलर में दो कालम थे-अशुद्ध और शुद्ध। अशुद्ध कालम में इन सारी बातों का जिक्र किया गया था कि किस तरह मोहम्मद गजनी ने सोमनाथ का मंदिर तोड़ा था। किस तरह से औरंगजेब ने काशी विश्वनाथ का मंदिर तोड़ा था आदि। शुद्ध कालम में इस बात का जिक्र किया गया था कि इनके बारे में बात नहीं करना है और इन सबको हटा दिया जाए। मैं जिस राज्य कर्नाटक से आता हूं, वहां के डा. भैरप्पा जब एनसीईआरटी की कमेटी में थे और एक नेशनल सिलेबस बनना था। तब इसी तरह की बातों को लेकर कमेटी के तत्कालीन चेयरपर्सन पार्थसारथी से उनकी बहस हो गई थी। चेयरमैन कह रहे थे कि ऐसा बोलने से सामाजिक समरसता खत्म हो जाएगी और राष्ट्रीय एकीकरण खतरे में आ जाएगा।
अंग्रेजों ने जो अत्याचार किए, उनके बारे में खुल्लम-खुल्ला बोलते हैं तब तो कोई नहीं सोचता कि ईसाइयों को बुरा लगेगा?
यही तो दिलचस्प है कि चर्चिल को डिक्टेटर, जनरल डायर को हत्यारा कहने पर किसी को आपत्ति नहीं होती। इन सबके बारे में खुलकर बोलने के दौरान हमें ये नहीं लगता है कि देश के जो ईसाई हैं उन्हें बुरा लगेगा। फिर औरंगजेब, टीपू और गजनी के बारे में बात करने पर हमें ये क्यों लगता है कि इससे देश के जो मुसलमान हैं वे नाराज हो जाएंगे। ऐसा करते-करते हम खुद ही ये हाइफनेट कर रहे हैं कि ये लोग आपके रोल माडल हैं और इनको आपका रोल माडल बनाए रखने के लिए इनके द्वारा किए गए सारे कृत्यों को हम पूरी तरह साफ कर देंगे।
हम टीपू पर आपसे बात करेंगे, आपने उस पर एक बड़ी किताब लिखी है। अभी हम औरंगजेब और अन्य आक्रांताओं पर ही रहते हैं। मुस्लिम समुदाय के कुछ लोगों को ऐसा क्यों लगता है या इसके पीछे का मनोविज्ञान क्या है कि आक्रांता ही हमारे आदर्श हैं?
अथर अली नामक एक शोधकर्ता ने मुगलकाल के दौरान भारत के मुस्लिमों की स्थिति के बारे में लिखा है कि मुगल बादशाह बाहर से आए विभिन्न देशों के लोगों को अपने दरबार में प्रमुख जिम्मेदारी देते थे। इनमें पर्शियन, ईरानी, तूरानी आदि प्रमुख रूप से शामिल थे, जबकि देश के मुस्लिमों की दरबार में भागीदारी मुश्किल से सात-आठ प्रतिशत ही होती थी। फिर भी आज के मुस्लिमों को यही लगता है कि जिसने काफिरों के धर्म का हनन किया वे ही हमारे आदर्श हैं। औरंगजेब के भाई दारा शिकोह को अगर देखें तो एक हद तक वो थोड़ा-सा आदर्श हो सकता है, लेकिन हम उसको आदर्श नहीं मानते हैं।
दरअसल उसने गंगा-जमुनी तहजीब शब्द का प्रयोग किया था, लेकिन उसके भाई औरंगजेब ने ही उसका सिर कलम किया और गंगा-जमुनी तहजीब का भी। फिर भी हम गंगा-जमुनी तहजीब की बात करते हैं। गंगा भी हमारी है और जमुना भी हमारी है, जमुना को हम किसी को देने के बारे में सोच भी नहीं सकते हैं। मुस्लिम समुदाय के कुछ नेता अपने भाषणों में कहते हैं कि हमने यहां आठ सौ साल राज किया है।
यह पाकिस्तान वाली सोच है और इसी सोच का परिणाम है कि पाकिस्तान बना। मैंने अपनी वीर सावरकर वाली किताब लिखने के क्रम में मुस्लिम लीग के काफी नेताओं के 900 से अधिक भाषणों का अध्ययन किया था। इससे यह बात निकलकर आई कि मुस्लिम समुदाय के कुछ लोगों की सोच थी कि हमने यहां शासन किया था और जब अंग्रेज चले जाएंगे तो जिन पर हमने शासन किया था हम उनसे शासित हो जाएंगे। कारण, प्रजातंत्र का मूलमंत्र यही है कि बहुसंख्यक ही शासन करता है। इसलिए हमारा एक अलग देश बनना चाहिए और इसी से अलगाववाद शुरू हुआ और यह श्रृंखला अभी तक चली आ रही है। यह बहुत दुःख की बात है कि नेहरूवादी इतिहासकारों ने यह सोचा कि इतिहास में फेरबदल करके लोगों को आपस में जोड़ा जा सकता है। इससे प्रेम और सद्भाव तो नहीं बढ़ा, बल्कि अलगाववाद ही फैला।
कुछ इतिहासकार कहते हैं कि मुगल आक्रांता के तौर पर आए, लेकिन यहां बस गए और भारतीय हो गए। क्या यह सही है?
देखिए, जब यहां राज करेंगे तो बस ही जाएंगे। उनकी कब्र भी यहीं होगी। पर अपने दो सौ-ढाई सौ साल के शासनकाल में उन्होंने कितनी यूनिवर्सिटी बनाईं और लोगों के उद्धार के लिए क्या काम किए, इस पर विचार करना होगा। जब ताजमहल बन रहा था तब पूरे दक्षिण भारत में कर वसूली के लिए वहां कितने लोग मारे गए, इसको देखना होगा। ताजमहल बन रहा था तब दक्षिण में हुई बगावत में करीब 60 से 70 लाख प्रभावित हुए थे।
अगर हम चर्चिल को बंगाल में 40 लाख लोगों को मारने के लिए एक नरहंतक बोलते हैं तो ये लोग कोई कम नहीं थे। उससे भी कई गुना ज्यादा थे। लोग कहते हैं कि उस समय जीडीपी बढ़ रही थी। वास्तविकता ये है कि वैश्विक स्तर पर भारत की जीडीपी जो पहले थोड़ा बेहतर थी, वो मुगलकाल में गिरकर काफी नीचे आ गई थी। उन्होंने मुगल प्रशासन में भारतीयों को वो दर्जा नहीं दिया जो पर्शियन, ईरानी और तूरानियों को दिया। इतिहासकार अथर अली लिखते हैं कि औरंगजेब का शासनकाल जब अपने चरम पर था, तब उसके शासन में भारतीयों की भागीदारी बमुश्किल सात-आठ प्रतिशत थी।
हमने इतिहास की किताबों में पढ़ा है कि अकबर महान थे। मध्यकाल का इतिहास लिखनेवाले कुछ इतिहासकार कहते हैं कि अकबर ने समाज में ऊंच-नीच को खत्म किया था?
हम भी तो अब तक यही जानते हैं कि अकबर महान थे। मेरे ख्याल से अब तक तीन ही महान हुए हैं अकबर महान, अशोक महान और सिकंदर महान। अशोक के बारे में बोला जाता है कि कलिंग युद्ध के बाद वे इतने आहत हुए कि जो पहले चंड अशोक थे, उन्होंने बौद्ध धर्म को स्वीकार कर लिया, जबकि तथ्य ये है कि कलिंग युद्ध के दो साल पहले ही वह बौद्ध धर्म को स्वीकार कर चुके थे। ये जो महान वाली उपाधि दी गई है, ये फर्जी ही है और ये सब एक प्रकार से गढ़ी हुई कहानी है। अकबर का शासन उत्तरार्द्ध में ही थोड़ा बेहतर था, पूर्वार्द्ध में चित्तौड़गढ़ में उन्होंने जो किया और उनके दरबार के इतिहासकार बदायुनी ने जब कहा कि मैं अपनी दाढ़ी को काफिरों के खून से रंगना चाहता हूं तो वह उससे इतने खुश हुए कि उनको सोने की अशरफियां दीं। राजस्थान और चित्तौड़ में जो उन्होंने किया, वो तो इतिहास की बात है, लेकिन उनका जो सेकंड हाफ है उसमें उन्होंने दीन-ए-इलाही आदि की स्थापना की। इसीलिए आज भी अगर देखें तो पाकिस्तान में अकबर की उतनी वाहवाही नहीं होती।
कैसे पाकिस्तान के जो पांच नेवी के जहाज हैं, वो सभी आक्रांताओं के नाम पर हैं। जहाजों के नाम बाबर, शाहजहां, जहांगीर, आलमगीर और टीपू सुल्तान के नाम पर रखे हैं, लेकिन अकबर के नाम का प्रयोग नहीं किया?
वर्ष 1965 में जब भारत-पाक युद्ध शुरू हुआ तो भारत पर आक्रमण करने के लिए उसने आपरेशन का नाम सोमनाथ चुना था, जो बीते दिनों और गजनी की याद दिलाता था। उत्तरार्द्ध के शासन की कुछ खूबियों के कारण पाकिस्तान में अकबर वहां के स्टाक वैल्यू में निचले पायदान पर हैं। अकबर के उत्तरार्द्ध के शासन के बारे में इटेलियन ट्रैवेलर मनूची और निकोल आंखों देखा हाल लिखते हैं। अकबर के शासनकाल में आगरा में रोज हजारों हिंदुओं के सिर कलम किए जाते थे कि वे गलियों में पड़े रहते थे और गलियां दुर्गंध से भरी रहती थीं। उनसे इतनी बदबू आती थी कि लोगों को वहां पर नाक और मुंह ढककर चलना पड़ता था। यह तब की बात है जब अकबर ने दीन-ए-इलाही की स्थापना कर दी थी और उन्हें अकबर महान कहा जाने लगा था।
अब टीपू सुल्तान के बारे में जरा बताइए। आम धारणा है कि टीपू सुल्तान भारत की रक्षा के लिए लड़े और अंग्रेजों को रोका?
टीपू को लेकर मेरी राय उलटी नहीं है, बल्कि सच्ची राय है। यह तथ्यों पर आधारित है। देश की स्वाधीनता के बाद टीपू का स्वतंत्रता सेनानी के रूप में चित्रण किया गया। ये बोलने वाले वही मार्क्सवादी इतिहासकार हैं, जो बोलते रहते हैं कि भारत नाम का कोई राष्ट्र था ही नहीं और अंग्रेजों के आने के बाद ही हम एक राष्ट्र बने। अगर एक ही राष्ट्र नहीं था तो फिर वो किस राष्ट्र के स्वतंत्रता सेनानी बने। एक तरफ कहा जाता है कि वे भारत के लिए लड़ रहे दूसरी तरफ कहते हैं कि भारत 1947 में बना। चित भी मेरी और पट भी मेरी। टीपू ने अंग्रेजों के साथ लड़ाई के लिए फ्रेंच की सहायता ली थी। फ्रेंच कोई कम कोलोनियल और इंपीरियलिस्ट नहीं थे। दक्षिण में जो कर्नाटक युद्ध हुआ, उसमें देखा गया था कि हैदर और टीपू दोनों ने फ्रेंच की सहायता ली। यही नहीं वो जमनशाह जो अफगान के दुराणी शासक हैं, उनको चिट्ठी लिखकर बुला रहे हैं कि आप भारत पर आक्रमण करो। हम दो साल का एक कार्यक्रम बनाएंगे साथ में। पहले साल में पूरे उत्तर भारत को काफिरों से मुक्त करेंगे और दूसरे साल में दक्षिण भारत को काफिरों से मुक्त करेंगे।
पत्र में लिखा है कि काफिरों से मुक्त करेंगे?
जी, हर पत्र में काफिर शब्द है और लिखा है कि जो सच्चा दीन है, उसको स्थापित करने के लिए हम ये लड़ाई लड़ रहे हैं। काफिर शब्द भी बार-बार इस्तेमाल हो ही रहा है। दो साल के बाद हम ये पूरे सबकांटिनेंट को आपस में इस्लामिक कैलिफेट की तरह विभाजन कर लेंगे। ये कैसे स्वतंत्रता सेनानी हुए, जो इस तरह के पत्र लिख रहे थे। ये उनके खुद के पत्र हैं। टीपू सुल्तान की जो तथाकथित तलवार है उस पर भी लिखा है कि इस तलवार का मकसद है कि काफिरों के खून से इसको रंगा जाए। उसका जो मैनिफेस्टो था जो मैसूर का इस्लामीकरण करके सल्तनते खुदादाद बनाया जाए और काफिरों का पूर्ण निर्मूलन होना चाहिए। काफिर मतलब गैर मुस्लिम्स, क्योंकि कर्नाटक में तो उनके आतंकी हमले ईसाइयों ने भी सहे हैं।
आप तो जिस राज्य से आते हैं, वहां तो लंबे समय तक टीपू जयंती मनाई जाती रही?
देखिए, अगर कांग्रेस कुछ करेगी तो भाजपा उसका विरोध करेगी और अगर भाजपा कुछ करेगी तो कांग्रेस उसका विरोध करेगी। उसमें हमें पड़ना ही नहीं है। हम तो पूरी तरह एकेडमिक बात कर रहे हैं। जब ये जयंती मनाई गई तो उसमें कई समुदाय, उसमें मैंगलोर के ईसाई भी शामिल थे, वो भी सड़क पर उतरे थे। उनका कहना था जिसने हमारे पूर्वजों के साथ इतने अत्याचार किए, जो लिखित रूप में मौजूद हैं, सब जानते हुए भी आप इसका महिमामंडन कैसे कर सकते हैं? वहां आयंगार जो ब्राह्मण समुदाय है वो तो 250 वर्ष के बाद भी आज दीपावली नहीं मनाते, क्योंकि उसी दिन करीब सात सौ लोगों को उसने बर्बरता से मार डाला था, जिसमें महिलाएं, बच्चे और पुरुष शामिल थे।
इस घटना को थोड़ा विस्तार से बताएंगे कि दीवाली पर क्या हुआ था?
दीवाली के एक दिन पहले नरक चतुर्दशी होती है। उस दिन टीपू सुलतान ने श्रीरंगापट्टन के श्रीलक्ष्मीनरसिम्हा मंदिर में एक सामूहिक भोज के बहाने सात सौ लोगों को बुलाया था। इस मंदिर के प्रांगण में दो दरवाजे थे। जब लोग खाना खा रहे थे तो दोनों तरह के दरवाजे बंद कर दिए गए। इसके बाद एक दरवाजे को खोला गया और इसके जरिए जो उत्पाती हाथी थे उनको अंदर भेज दिया गया। इसमें बहुत सारे लोग कुचलकर मर गए। जो बचकर भागना चाहते थे उनका कत्ल कर दिया गया।
क्या ये हिंदू जनता थी?
हां, सारे ब्राह्मण थे। इसीलिए आज भी 250 साल बाद ये लोग दीवाली की रात को कालरात्रि के रूप में मानते हैं। जब पूरा देश दीवाली मना रहा होता है, तो वे अंधेरे में होते हैं। तो ये भी एक घाव है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी मौखिक रूप से और लोक कथाओं के रूप में हमारे सामाजिक जीवन में है।
इतिहास को लेकर जो भ्रम है उसको कैसे दूर किया जा सकता है?
एक इतिहासकार होने के नाते मैं बोल रहा हूं कि हमें आगे बढ़ना चाहिए। पूर्व की बातों को लेकर बैठना नहीं चाहिए, लेकिन जब हम पूर्व की बातों पर लीपापोती करने लगते हैं, तब हम देश को पीछे ढकेल रहे होते हैं, क्योंकि लोग तो और नई चीजें खोजने लगते हैं तो इससे कलह और बढ़ती है।
कहा जाता है कि जो आल्टरनेट व्यू वाले हिस्टोरियन हैं, वे मोदी के सत्ता में आने के बाद सक्रिय हुए?
ये तो मीडिया की बदौलत है। आप लोग हमें ज्यादा फोकस देते नहीं हैं। मैं तो 17 साल से लिख रहा हूं। तब मोदी जी शायद गुजरात में मुख्यमंत्री थे। इसका सत्ता परिवर्तन से कोई संबंध नहीं है। हां, ये मानता हूं कि आज देश का माहौल बदला है। 2014 के बाद लोगों में सत्य जानने का वातावरण बना है।
इतिहास एक ऐसा विषय है, जहां अलग-अलग राय को पनपने के लिए जगह देनी चाहिए। ये विडंबना है कि जब हम परतंत्र थे तब इतिहास लेखन के लिए राष्ट्रवादी स्कूल अलाउड था। जब जेम्स मिल ने पहली बार ब्रिटिश इंडिया का इतिहास लिखा तो उसका खंडन करने के लिए महाराष्ट्र से बहुत सारे लोगों ने गुमनाम पत्र लिखे। एक राष्ट्रवादी विचारधारा का इतिहास लेखन शुरू हुआ, जिसमें सर जदुनाथ सरकार, आरसी मजूमदार, वीके रजवाडे, भंडारकर ये सारे लोग ब्रिटिश साम्राज्य के दौरान थे। उनको पनपने के लिए आजादी थी। स्वतंत्रता के बाद जो राष्ट्रवादी स्कूल हैं, उसको हाशिए पर डाल दिया गया। मार्क्सवादी इतिहासकारों का दबदबा बना।
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