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    खत्म नहीं होगा किताबों का दौर

    By Abhishek Pratap SinghEdited By:
    Updated: Sat, 22 Apr 2017 11:54 AM (IST)

    पुराने दौर में पुस्तकें विदेशों में लिखी जाती थीं और छपाई भी वहीं होती थी। समय बदला बुक सेलर्स ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई और पब्लिशर्स के साथ डिस्ट्रीब्यूटर्स भी तेजी से सामने आए।

    खत्म नहीं होगा किताबों का दौर

    जागरण संवाददाता, लखनऊ : किताबें सबसे अच्छी दोस्त कही जाती हैं। इनसे न सिर्फ ज्ञान मिलता है, बल्कि कई बार ये अकेलेपन को दूर करने में साथी भी बनती हैं। टेक्नोलॉजी के इस युग में किताबों का स्वरूप भी बदला है। अब इनकी सॉफ्ट कापी ऑनलाइन मिल जाती हैं जिन्हें कभी भी, कहीं भी पढ़ा जा सकता है। ऑनलाइन मार्केट के दौर में किताबें कितनी प्रभावित हो रही हैं। किताब कारोबारी, लाइब्रेरियन और पुस्तक लेखकों ने साझा किए अपने अनुभव...

    विदेशी निवेशक तय कर रहें पाठकों की सोच

    पुस्तक एक सोच व सच्चा हमसफर है। यह इंसान की सभ्यता को परिभाषित करती है। लोगों की विचारधारा लेखक की लेखनी से प्रभावित होती है। एक दौर था जब आजादी के बाद कंटेंट विदेशों से आता था, लेकिन अब सर्वाधिक कंटेंट भारत से आ रहे हैं, जो हिंदुस्तानी सभ्यता व संस्कृति को मुकाम तक पहुंचा रहे हैं। हालांकि ऑनलाइन बुक ट्रेड ने आपातकाल की स्थिति पैदा कर दी है। अब, विदेशी निवेशक तय करेंगे कि पाठक कौन सी किताब पढ़ें और उनकी सोच की दिशा क्या हो।

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    यूनिवर्सल बुक सेलर के मालिक चंद्रप्रकाश कहते हैं कि पुराने दौर में पुस्तकें विदेशों में लिखी जाती थीं और छपाई भी वहीं होती थी। समय बदला और बुक सेलर्स ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई और पब्लिशर्स के साथ डिस्ट्रीब्यूटर्स भी तेजी से सामने आए। लोगों को प्रोत्साहन मिला तो उन्होंने लेखन शुरू किया और हिंदुस्तान में कई अच्छे लेखक उभरकर सामने आए। वर्तमान में 60 फीसद कंटेंट भारतीय लेखकों के हैं और इसका श्रेय बुक सेलर व पब्लिशर्स को जाता है।

    कम हो रही किताबों की लाइफ
    अगर समाज में सकारात्मक विचारधारा वाले लोग लेखन में रूचि दिखाते हैं तो पब्लिशर्स भी उन्हें छापने के लिए तैयार बैठे हैं। बकौल चंद्रप्रकाश, 10 वर्ष पूर्व दो सौ से ढाई सौ किताबें छपती थीं, लेकिन अब इनकी संख्या आठ सौ से नौ सौ तक पहुंच गई है। हालांकि किताबों की लाइफ कम हो रही है। अब दो अधिकांश किताबें दो माह से ज्यादा नहीं टिक रहीं।

    बचानी होगी सभ्यता
    राजधानी के सबसे पुराने पुस्तक विक्रेता चंद्रप्रकाश मानते हैं कि अगर इंटरनेट व ऑनलाइन बुक ट्रेड हावी रहा तो पुस्तक प्रेमियों को उनके मतलब की सामग्री नहीं मिलेगी। वह बुक ट्रेड में एफडीआइ का विरोध करते हैं और कहते हैं कि भारतीय सभ्यता को बचाना है तो सरकार को इस दिशा में विचार करना होगा।

    माध्यम कोई हो, रीडर को पढऩे से मतलब
    पब्लिशर बिकाश त्यागी कहते हैं, बुक इंडस्ट्री में पिछले दस-बारह सालों से ई-बुक्स का मार्केट सक्रिय है, मगर नेल्सन की रिपोर्ट कहती है कि पिछले दो सालों में ई-बुक्स के पाठकों की संख्या घटी है। पब्लिशर को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। आमदनी भी प्रभावित नहीं हुई है। माध्यम कोई भी पाठकों केवल पढऩे से मतलब होना चाहिए। एक सर्वे में यह भी पता चला है कि ई-बुक पढऩे के बाद भी लोग किताबें खरीदते हैं। पर, आजकल फ्लैट सिस्टम हैं, जगह की कमी है, लोग सोचते हैं कि किताबें कहां रखी जाएं इसलिए ज्यादातर पाठक ई-बुक पढऩा पसंद करते हैं।

    स्मार्ट क्लास में हो रहा ई-बुक्स का प्रयोग
    होली ट्रिनिटी पब्लिकेशन के डायरेक्टर व पब्लिशर आर. रतन कहते हैं, आजकल स्मार्ट क्लासेज के लिए पब्लिशर को सीडी में पाठ्यक्रम देना पड़ता है। फिलहाल, लिटरेचर के लिए अभी उतनी मांग नहीं है। वहीं, ज्यादातर पाठक पोर्टल पर खबरें पढ़ लेते हैं इसलिए अखबार पढऩे में उतनी रुचि नहीं लेते। हां, भारत में भी अब डिजिटल किताबों का दौर आ गया है, लेकिन ई-बुक्स का चलन अभी उतना नहीं है जितना विदेशों में है।

    किताबों से मिलता है ज्ञान
    हजरतगंज स्थित यूनिवर्सल बुक सेंटर के पार्टनर, मानव प्रकाश कहते हैं, किताबों की बिक्री या पाठकों को दो भागों में बांटा जा सकता है। एक तो वो जिन्हें रिसर्च का शौक है और दूसरे वो जिन्हें ज्ञान हासिल करना है। रिसर्च के लिए लोग कंप्यूटर, इंटरनेट का सहारा लेते हैं, लेकिन जिन्हें ज्ञान हासिल करना है, वो किताबें खरीदते हैं। वह कहते हैं, किताबों की बिक्री पर कोई असर नहीं पड़ा है। हम भी ऑनलाइन किताबें बेच रहे हैं। आज भी पब्लिशर्स सौ किताबें रोज बेच रहे हैं। किताबें कल भी बिकती थीं, आज भी बिक रही हैं। बुक्स वर्सेस किंडल की यदि बात करें तो इंडिया में किंडल अभी उतना सक्सेस नहीं हुआ है। यह अभी अपर क्लास में ही पापुलर हुआ है, आम लोग अभी भी इससे दूर हैं।

    1921 में रखी गई अमीरुद्दौला लाइब्रेरी की नींव
    कैसरबाग, सफेद बारादरी के निकट स्थित अमीरूद्दौला पब्लिक लाइब्रेरी की लाइब्रेरियन शशिकला कहती हैं, इस लाइब्रेरी की नींव सन् 1921 में रखी गई। सन् 1882 में ब्रिटिश शासन के दौरान हरकोर्ट बटलर के अस्तित्व में यह लाइब्रेरी आई। उस वक्त यह लाइब्रेरी प्रोविंशियल म्यूजियम का एक हिस्सा थी। वह कहती हैं, आज भी इस लाइब्रेरी में पाठकों का अच्छा रिस्पांस है जिनमें युवा पाठकों की संख्या अधिक है। डिजिटाइजेशन के दौर में इस लाइब्रेरी को भी डिजिटल होना चाहिए इसके लिए सरकारी प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। हालांकि, पब्लिक लाइब्रेरी का अस्तित्व खत्म नहीं हुआ है, पर आधुनिक संचार माध्यमों के चलते पाठकों की संख्या में कमी जरूर आई है।

    खत्म नहीं होगा किताबों का अस्तित्व
    अमीरूद्दौला पब्लिक लाइब्रेरी की रिटायर्ड लाइब्रेरियन व साहित्यकार नुसरत नाहिद कहती हैं, मैं 23 सालों तक लाइब्रेरियन रही हूं। इस दौरान पाठकों की संख्या कभी घटी नहीं बल्कि बढ़ती ही दिखी। किताबों से ही हमें असली ज्ञान मिलता है। इंटरनेट पर भी जो जानकारी डाली जाती है, वह भी तो कहीं न कहीं पुस्तकों से लेकर ही लिखी जाती होगी। इसलिए मुझे नहीं लगता है कि किताबें कभी अपना अस्तित्व खोएंगी। वह कहती हैं, अमीरूद्दौला लाइब्रेरी में सन् 1738 की टर्किश हिस्ट्री की किताब हो या हजारों साल पुरानी पाम लीव्स पर लिखी गईं बौद्ध लिपि इनको पढऩे के लिए आज भी पाठक लाइब्रेरी आते हैं, ये इंटरनेट पर कहीं नहीं मिलेंगी। किताबें हमारी पहली जरूरत हैं। बच्चे को सबसे पहले पढऩे के लिए किताबें ही दी जाती हैं, गैजेट्स नहीं।

    किताबों के शौकीन पसंद करते हैं दुकान से खरीदारी
    कपूरथला स्थित एक बुक शॉप के ओनर प्रभाष खन्ना कहते हैं, लखनऊ में बुक मार्केट के कई बाजार हैं जिनमें अमीनाबाद, हजरतगंज, कपूरथला, लालबाग ज्यादा लोकप्रिय बाजार हैं। यहां पर स्कूल-कॉलेज पाठ्यक्रमों के अलावा हर तरह की किताबें आसानी से उपलब्ध हैं। वहीं, जो लोग ऑनलाइन शॉपिंग करते हैं और जिन्हें पता होता है कि कौन सी किताब खरीदनी है, वो तो ऑनलाइन खरीदते हैं, पर जिन्हें चार-पांच किताबें देखने के बाद कोई एक सेलेक्ट करनी होती है, वे दुकान से ही खरीदना पसंद करते हैं। वह कहते हैं, जब कभी कोई फेमस ऑथर की किताब की मार्केटिंग ऑनलाइन की जाती है, उस वक्त भले ही हमारी बिक्री पर थोड़ा असर पड़े, लेकिन ऐसा कम ही होता है। हिस्ट्री, एस्ट्रोलॉजी और दूसरी किताबों के शौकीन दुकान से ही किताबें खरीदते हैं।

    किताबें हमेशा रहेंगी लोकप्रिय
    उ.प्र. हिंदी संस्थान में प्रकाशन अधिकारी और साहित्यकार, अमिता दुबे कहती हैं, यह तो अच्छी बात है कि लखनऊ के लेखकों की किताबों को विदेशों में लोग ऑनलाइन पढ़ते हैं, लेकिन इससे डरने की जरूरत नहीं है। ई-बुक्स और इंटरनेट के दौर में किताबों के अस्तित्व को खतरा है, यह बात सही नहीं है। वह कहती हैं, मेरी 17 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं और मेरा लेखन निरंतर जारी है क्योंकि मुझे पता है कि पुस्तकों का अपना अलग ही आनंद है। हर साल पुस्तक मेले लगते हैं जिनमें नई-नई किताबें आती हैं। मेले में पाठकों, लेखकों और प्रकाशकों की बढ़ती संख्या को देखते हुए यह कहना गलत होगा कि पुस्तकों का भविष्य खतरे में है। नए संचार और टेक्नोलॉजी का स्वागत करें, लेकिन इससे किताबों का अस्तित्व खत्म होगा यह कहना फिलहाल सही नहीं होगा।

    आज भी चल रही हैं लाइब्रेरी
    लखनऊ में वैसे तो लाइब्रेरी काफी हैं, लेकिन उनमें कुछ सरकारी व कुछ गैरसरकारी और कुछ किसी न किसी ट्रस्ट के तहत चलाई जा रही हैं। जिनमें बारादरी के निकट अमीरुद्दौला पब्लिक लाइब्रेरी, लाला लाजपतराय लाइब्रेरी, अमीनाबाद में गंगा प्रसाद वर्मा लाइब्रेरी, अशोक मार्ग में आचार्य नरेंद्र देव लाइब्रेरी, हजरतगंज में राज्य सूचना केंद्र लाइब्रेरी, निरालानगर में रामकृष्ण मिशन आश्रम लाइब्रेरी व मां शारदा लाइब्रेरी, चारबाग में बाल संग्रहालय जिला पुस्तकालय लोगों की जानकारी में हैं।

    इसके अलावा मेफेयर बिल्डिंग हजरतगंज व जानकीपुरम एक्सटेंशन में ब्रिटिश काउंसिल लाइब्रेरी, सज्जाद बाग कालोनी में अलबुर्रहरी लाइब्रेरी, राजा बाजार में हिंदुस्तान लाइब्रेरी, बादशाहनगर में जनता लाइब्रेरी, एनबीआरआइ राणा प्रताप मार्ग में लाइब्रेरी एनबीआरआइ, महात्मा गांधी मार्ग हजरतगंज में लखनऊ लाइब्रेरी, कैसरबाग में मौलाना मोहम्मद अली लाइब्रेरी, ऑल इंडिया रेडियो कालोनी इंदिरानगर में ऑनलाइन लाइब्रेरी, बाबूगंज हसनगंज में रबींद्रनाथ टैगोर लाइब्रेरी, सीतापुर रोड में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट लाइब्रेरी, बंगला बाजार में रमाकांत लाइब्रेरी हाउस, हुसैनगंज में रॉली लाइब्रेरी व सआदतगंज में सर्वेश लाइब्रेरी आदि हैं।

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