'मामूली पेनिट्रेशन भी रेप माना जाएगा, भले ही...', दुष्कर्म मामले में बॉम्बे हाईकोर्ट की सख्त टिप्पणी
बॉम्बे हाई कोर्ट ने कहा है कि नाबालिगों के खिलाफ यौन अपराध में मामूली पेनिट्रेशन भी बलात्कार माना जाएगा, भले ही सहमति हो। कोर्ट ने पॉक्सो एक्ट के तहत यह फैसला सुनाया। वर्धा जिले के एक ड्राइवर की याचिका खारिज करते हुए उसकी 10 साल की सजा बरकरार रखी गई, जिस पर दो नाबालिग लड़कियों के यौन उत्पीड़न का आरोप था।

डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली। बॉम्बे हाई कोर्ट की नागपुर खंडपीठ ने एक अहम फैसले में साफ किया है कि नाबालिगों के खिलाफ यौन अपराध में मामूली सा भी पेनिट्रेशन को भी बलात्कार माना जाएगा और ऐसी स्थिति में कंसेट का कोई महत्व नहीं है। यानी अगर नाबालिग ने सहमति दे भी दी हो तो इसे रेप माना जाएगा।
यह फैसला पॉक्सो (प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रन फ्रॉम सेक्शुअल ऑफेंसेस) अधिनियम के तहत बच्चों को दी जाने वाली सुरक्षा के तहत दिया गया है। कोर्ट ने वर्धा जिले के हिंगनघाट के एक 38 वर्षीय ड्राइवर की अपील खारिज करते हुए, दो नाबालिग लड़कियों (5 और 6 साल) पर यौन हमले के प्रयास के लिए उसकी 10 साल की सजा और 50,000 रुपये के जुर्माने को बरकरार रखा।
जस्टिस निवेदिता मेहता ने अपने फैसले में कहा कि जैसे ही कोई व्यक्ति नाबालिग के निजी अंगों में किसी भी अंग से प्रवेश करता है, इसे बलात्कार या गंभीर यौन हमला माना जाता है। पेनिट्रेशन की गहराई इस मामले में अप्रासंगिक है।
बच्चों को अमरूद का लालच देकर किए रेप की कोशिश की
अभियोजन पक्ष के अनुसार, आरोपी ने बच्चों को अमरूद का लालच देकर और अश्लील वीडियो दिखाकर यौन हमले का प्रयास किया। कोर्ट ने पाया कि अभियोजन ने पीड़िताओं और उनकी मां के विश्वसनीय बयानों के आधार पर मामले को साबित किया। मेडिकल और फॉरेंसिक साक्ष्यों ने और बल दिया।
कोर्ट ने यह भी साफ किया कि 15 दिन बाद मेडिकल जांच में चोट के निशान न मिलने से अपराध की विश्वसनीयता पर सवाल नहीं उठाया जा सकता, क्योंकि पीड़िताओं की कम उम्र के कारण चोट के निशान ठीक हो सकते हैं।
आरोपी ने परिवारिक दुश्मनी के आधार पर झूठे फंसाने का दावा किया, लेकिन कोर्ट ने इसे सबूतों के अभाव में खारिज कर दिया। साथ ही, FIR दर्ज करने में देरी को भी उचित ठहराया गया, क्योंकि पीड़िताएं कम उम्र की थीं और आरोपी ने उन्हें धमकियां दी थीं।
पुराने फैसले में भी किया सुधार
इस मामले में हाई कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट की एक कानूनी गलती को सुधारा, जिसमें 2019 में संशोधित पॉक्सो एक्ट के प्रावधानों को गलत तरीके से लागू किया गया था। अपराध 19 फरवरी, 2014 को हुआ था, इसलिए उस समय लागू कानून के आधार पर सजा तय होनी चाहिए थी। जस्टिस मेहता ने कहा कि ट्रायल कोर्ट का 20 साल की न्यूनतम सजा और पॉक्सो की धारा 18 का उपयोग गलत था।
हालांकि, कोर्ट ने पाया कि 10 साल की कठोर कारावास की सजा उस समय के पॉक्सो एक्ट के तहत न्यूनतम सजा के अनुरूप थी। इसलिए, सजा में कोई बदलाव नहीं किया गया है।
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