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    बिहार चुनाव रिजल्ट के फैक्टर: ये है नीतीश की जीत का सबसे बड़ा कारण, चुनावी रेवड़ियों का जलवा, लेकिन आर्थिक असर पर सवाल

    By JAIPRAKASH RANJANEdited By: Garima Singh
    Updated: Fri, 14 Nov 2025 08:17 PM (IST)

    बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में जीविका दीदियों को 10 हजार रुपये देने का वादा एक बड़ा फैक्टर हो सकता है। एनडीए इसे महिला सशक्तिकरण के लिए जरूरी मानती है। बिहार सरकार को इन वादों को पूरा करने के लिए वित्तीय संसाधनों की व्यवस्था करनी होगी। मुफ्त योजनाओं से राज्य के खजाने पर भारी दबाव पड़ सकता है, जैसा कि अन्य राज्यों में देखा गया है। चुनावी वादों का आर्थिक असर एक महत्वपूर्ण मुद्दा है।

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    ये है नीतीश की जीत का सबसे बड़ा कारण

    जयप्रकाश रंजन, नई दिल्ली। बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के परिणामों में कई फैक्टर शामिल हो सकते हैं। जिसमें एक बड़ा फैक्टर सवा करोड़ जीविका दीदियों को रोजगार के लिए दिया जाने वाला दस हजार रुपये भी शामिल माना जा रहा है। हालांकि राजग की ओर से इसे रेवड़ी मानने से इनकार किया गया और कहा गया कि यह महिलाओं के स्थायी स्वालंबन के लिए है। बाद में मिलने वाली दो लाख रुपये की राशि लोन के रूप में होगी।

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    इससे पहले मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और दिल्ली में भी महिलाओं को हर माह पैसे देने की घोषणा हुई थी और उसका व्यापक असर भी दिखा था। यानी किसी न किसी स्वरूप में कथित रेवड़ी राजनीति का अभिन्न अंग बन चुका है। लेकिन सवाल यह है कि क्या बिहार की भावी जीविका दीदियों को दी जाने वाली आर्थिक मदद के अलावा अन्य लोकलुभावन घोषणाओं को अमल में लाने के लिए पर्याप्त वित्तीय स्थिति पैदा कर पाएगी।

    एनडीए के संकल्प पत्र में ये बड़े वादें 

    एनडीए की संकल्प पत्र में एक करोड़ रोजगार, महिलाओं को दो लाख रुपये की सहायता, एक करोड़ 'लखपति दीदियां', 125 यूनिट मुफ्त बिजली, पांच लाख रुपये का मुफ्त इलाज, 50 लाख नए घर और एक लाख करोड़ का औद्योगिक निवेश जैसे वादे थे।

    इन पर अमल करने के लिए भारी-भरकम राशि की जरूरत होगी। मसलन, महिलाओं के लिए की गई घोषणाओं (लखपति दीदियां, अतिरिक्त वित्तीय मदद आदि) के मद में राज्य सरकार को तकरीबन 20 बजार करोड़ रुपये खर्च करने की जरुरत होगी।

    125 यूनिट मुफ्त बिजली, मुफ्त इलाज (आयुष्मान), 50 लाख नये आवास, ईबीसी के लिए 10 लाख रुपये की घोषणा पर अमल के लिए राज्य के खजाने पर 40 हजार करोड़ रुपये का अतिरिक्त बोझ आएगा। मोटे तौर पर अगले पांच वर्षों के दौरान 1.5 लाख करोड़ रुपये के संसाधन जुटाने होंगे। अभी बिहार की सकल घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) का आकार 9.76 लाख करोड़ रुपये और राजकोषीय घाटा 9.2 फीसद है।

    चुनावी वादों का बढ़ता आर्थिक बोझ

    अब अगर राज्य सरकार के कुल राजस्व संग्रह की स्थिति देखें तो वह वर्ष 2022-23 में 1.97 लाख करोड़ रुपये से बढ़ कर वर्ष 2024-25 में 2.27 लाख करोड़ रुपये से थोड़ा ज्यादा रही हैं। यानी विगत तीन वर्षों में राजस्व संग्रह में जितनी बढ़ोत्तरी हुई है, उसे अगले पांच वर्षों में कई गुणा बढ़ाना होगा तभी चुनावी घोषणाओं पर अमल संभव होगा।

    कुछ महीने पहले आरबीआइ के पूर्व गवर्नर डी. सुब्बाराव ने देश की राजनीति में मुफ्त की रेवडि़यों की बढ़ती संस्कृति पर कहा था कि यह राज्यों को कर्ज के दलदल में फंसा रही है।

    बिहार वैसे बहुत बड़ा कर्जदार राज्य नहीं है लेकिन फिर भी इस पर 2.93 लाख करोड़ रुपये का कर्ज है जो जीएसडीपी का 30 फीसद है।वैसे यह स्थिति सिर्फ बिहार की नहीं है। पिछले दो वर्षों (2023-2025) में मध्य प्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक, तेलंगाना, महाराष्ट्र और दिल्ली जैसे राज्यों में भी फ्रीबीज की बाढ़ आई है।

    मध्य प्रदेश की 'लाड़ली बहना योजना' (जनवरी 2023 में शुरू, महिलाओं को 1,250-1,500 रुपये मासिक) ने दिसंबर 2023 चुनाव में भाजपा को तीसरी बार सत्ता दिलाई। योजना का अमल जारी है, जिससे ग्रामीण उपभोग बढ़ने की संभावना है लेकिन राजस्व घाटा भी बढ़ने की बात सामने आ रही है।

    राज्यों पर कर्ज का बढ़ता दबाव

    कर्नाटक में कांग्रेस की 2023 की 'गृहिणी योजना' (महिलाओं को 2,000 रुपये मासिक वादा) का आंशिक अमल ही हुआ है और महिलाओं की बस यात्रा मुफ्त हुई। राज्य पर वित्तीय दबाव बढ़ा है। तेलंगाना में कांग्रेस सरकार ने दिसंबर 2023 में महिलाओं के लिए मुफ्त बस यात्रा और 10 लाख रुपये का स्वास्थ्य कवर लागू किया, लेकिन इससे राजस्व व्यय में 42 फीसद की वृद्धि देखी गई है।

    हिमाचल प्रदेश में पुरानी पेंशन योजना (ओपीएस) के अमल से मासिक 2,000 करोड़ रुपये का बोझ पड़ा, जिससे राज्य की उधार सीमा खत्म हो गई। वर्ष 2023 में ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन (ओआरएफ) की रिपोर्ट के मुताबिक, 1947 से ही फ्रीबीज चुनावी हथियार रहे, लेकिन 2023-25 में यह पैन-इंडिया हो गई।

    यह भी उल्लेखनीय है कि सुप्रीम कोर्ट ने जनवरी 2022 से एक पीआईएल पर सुनवाई कर रही है, जिसमें चुनाव आयोग को फ्रीबीज पर रोक लगाने की मांग है। न्यायालय ने नीति आयोग, वित्त आयोग व आरबीआइ के अधिकारियों को मिला कर एक विशेषज्ञ समिति बनाने का सुझाव दिया था, लेकिन इस पर खास प्रगति नहीं हुई। न्यायालय यह भी तय नहीं कर पाया है कि किसे जनकल्याणकारी योजनाएं मानी जाए और किसे चुनावी रेवडि़यां।