'भ्रष्टाचार निरोधक कानून ईमानदार अधिकारियों को बचाता है, बेईमानों को दंडित करता है', केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट को बताया
केंद्र सरकार ने बुधवार को सुप्रीम कोर्ट को बताया कि भ्रष्टाचार निरोधक कानून का एक प्रविधान निर्भीक शासन स्थापित करने की दिशा में विधायिका का प्रयास है। यह प्रावधान भ्रष्टाचार के मामलों में सरकारी अधिकारियों के खिलाफ जांच शुरू करने के लिए पूर्व अनुमति को अनिवार्य करता है। इस तरह यह ईमानदार अधिकारियों को बचाता है और बेईमान अधिकारियों को दंडित करता है।

पीटीआई, नई दिल्ली। केंद्र सरकार ने बुधवार को सुप्रीम कोर्ट को बताया कि भ्रष्टाचार निरोधक कानून का एक प्रविधान ''निर्भीक शासन'' स्थापित करने की दिशा में विधायिका का प्रयास है। यह प्रावधान भ्रष्टाचार के मामलों में सरकारी अधिकारियों के खिलाफ जांच शुरू करने के लिए पूर्व अनुमति को अनिवार्य करता है। इस तरह यह ईमानदार अधिकारियों को बचाता है और बेईमान अधिकारियों को दंडित करता है।
निर्भीक सुशासन सिद्धांत संवैधानिक शासन का बुनियादी हिस्सा
सरकार ने जस्टिस बीवी नागरत्ना और केवी विश्वनाथन की पीठ को बताया कि ''निर्भीक सुशासन'' का सिद्धांत किसी भी संवैधानिक शासन का बहुत ही बुनियादी हिस्सा है।
इसके बाद पीठ ने भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 17ए की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिका पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया। इसमें भ्रष्टाचार के मामलों में सरकारी अधिकारियों के खिलाफ जांच शुरू करने के लिए पूर्व अनुमति लेना अनिवार्य है।
60 प्रतिशत शिकायतों में जांच की मंजूरी दी गई
सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि धारा 17ए विधायिका का एक और प्रयास है कि ईमानदार अधिकारियों को दंडित न किया जाए और बेईमान अधिकारी बच न सकें। पीठ ने 2018 में संशोधित धारा 17ए लागू होने के बाद से प्राप्त भ्रष्टाचार की शिकायतों की संख्या के बारे में पूछा। मेहता ने कहा कि वह सीबीआइ को प्राप्त शिकायतों के आंकड़े दे सकते हैं। 60 प्रतिशत शिकायतों में जांच की मंजूरी दी गई है।
याचिकाकर्ता एनजीओ सेंटर फार पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन की ओर से पेश हुए वकील प्रशांत भूषण ने कहा-उनका कहा है कि पिछले छह वर्षों में 2,395 शिकायतें प्रारंभिक जांच या जांच के लिए आईं। इनमें से 989 यानी लगभग 41 प्रतिशत मामलों को अस्वीकार कर दिया गया और 1,406 मामलों में जांच की मंजूरी दी गई।
बिना जांच के मंत्री-विधायकों के खिलाफ मामले वापस न ले तमिलनाडु सरकार : सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को तमिलनाडु सरकार को निर्देश दिया कि बिना किसी जांच के मौजूदा या पूर्व मंत्री या सत्ताधारी राजनीतिक पार्टी डीएमके के विधायकों के खिलाफ कोई भी मामला वापस नहीं लिया जाना चाहिए।
जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस उज्जल भुइयां और जस्टिस एन कोटिश्वर सिंह की पीठ ने एक जनहित याचिका पर यह आदेश पारित किया। साथ ही इस संबंध में हलफनामा पेश करने को कहा। जनहित याचिका में राज्य में लंबित मामलों को अन्यत्र स्थानांतरित करने की मांग की गई थी।
कुछ मंत्रियों के खिलाफ दबाव में वापस ली याचिका
याचिकाकर्ता ने आरोप लगाया कि कुछ मंत्रियों के खिलाफ अभियोजन के लिए दी गई मंजूरी राजनीतिक दबाव के कारण वापस ले ली गई थी। हालांकि, पीठ ने स्पष्ट किया कि राज्य सरकार की ओर से पेश हलफनामा अदालत को संतुष्ट करने के लिए दायर किया जाएगा न कि याचिकाकर्ता के लिए।
यह समस्या केवल तमिलनाडु तक सीमित नहीं
याचिकाकर्ता की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता डीएस नायडू ने कहा कि कई उदाहरण हैं जहां जांच पूरी होने से पहले अनुमति वापस ले ली गई। उन्होंने इस मामले की न्यायिक निगरानी की मांग की। जस्टिस भुइयां ने कहा कि यह समस्या केवल तमिलनाडु तक सीमित नहीं है, बल्कि पूरे देश में व्याप्त है। मामले की अगली सुनवाई 17 सितंबर को होगी।
कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।