वंदे मातरम् के 150 साल, किस बात पर छिड़ी कांग्रेस-BJP में बहस? संसद में 10 घंटे तक होगी खास चर्चा
लोकसभा में वंदे मातरम् के 150 साल पूरे होने पर विशेष चर्चा हो रही है, जिसकी शुरुआत पीएम मोदी करेंगे। विवाद 1937 में कांग्रेस द्वारा गीत के कुछ हिस्सों ...और पढ़ें

वंदे मातरम् के 150 साल किस बात पर छिड़ी कांग्रेस BJP में बहस (फाइल फोटो)
डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली। लोकसभा में सोमवार से वंदे मातरम् के 150 साल पूरे होने पर एक खास चर्चा शुरू हो रही है। यह बहस सिर्फ एक रस्मी कार्यक्रम नहीं, बल्कि ऐसे समय में हो रही है जब इस गीत को लेकर राजनीति फिर गर्म है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बहस की शुरुआत करेंगे और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह इसे खत्म करेंगे। करीब 10 घंटे चलने वाली इस चर्चा के बाद अगले दिन राज्यसभा में भी बहस होगी, जिसकी शुरुआत अमित शाह करेंगे।
बहस क्यों हो रही है?
पिछले महीने हुए एक समारोह में पीएम मोदी ने कहा था कि कांग्रेस ने 1937 में वंदे मातरम् के जरूरी हिस्से हटा दिए और यही कदम विभाजन के बीज बोने जैसा था। उनका आरोप था कि गीत को टुकड़ों में बांटकर इसकी मूल भावना कमजोर कर दी गई।
कांग्रेस ने तुरंत जवाब देते हुए गांधी, नेहरू, पटेल, बोस, रजेंद्र प्रसाद, मौलाना आजाद और सरोजिनी नायडू की मौजूदगी वाले कार्यसमिति के फैसले का हवाला दिया। पार्टी का कहना है कि 1937 में सिर्फ पहले दो पद इसलिए चुने गए क्योंकि बाकी पदों में धार्मिक प्रतीक थे, जिनसे कुछ लोग असहमत थे।
कांग्रेस ने यह भी कहा कि यह फैसला किसी विभाजन के लिए नहीं, बल्कि सभी समुदायों की भावनाओं को ध्यान में रखकर लिया गया था। पार्टी ने पीएम पर इतिहास को तोड़ने-मरोड़ने और मौजूदा मुद्दों से ध्यान हटाने का आरोप भी लगाया।
वंदे मातरम् की शुरुआत
वंदे मातरम् की रचना बैंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने करीब 1875 के आसपास की थी। बाद में 1881 में यह उनके उपन्यास आनंदमठ में प्रकाशित हुआ।इस उपन्यास में 'मां' को भारत माता के रूप में दिखाया गया, एक ऐसी भूमि जो कभी शक्तिशाली थी, अब पीड़ित है और फिर एक दिन मजबूत होकर उठेगी।हालांकि, बाद के आलोचकों ने कहा कि गीत के कुछ हिस्सों में देवी-प्रतिमा जैसा चित्रण है, जो सभी धर्मों को समान रूप से स्वीकार्य नहीं हो सकता।
1905 में बंगाल विभाजन के दौरान यह गीत आजादी के आंदोलन का सबसे बड़ा नारा बन गया। स्वदेशी आंदोलन, विरोध मार्च, अखबारहर जगह वंदे मातरम् गूंजता था।1906 में बारिसाल में हिंदू और मुसलमान दोनों मिलकर इस नारे के साथ मार्च कर रहे थेउस समय इसकी अपील साम्प्रदायिक नहीं, बल्कि देशभक्ति की प्रतीक थी।
इस नारे को लोकप्रिय बनाने वालों में रविंद्रनाथ टैगोर, बिपिन चंद्र पाल और अरविंदो शामिल थे। ब्रिटिश सरकार इससे इतनी परेशान हुई कि जगह-जगह इसे बोलने पर पाबंदियां लगाई गईं।
कांग्रेस और वंदे मातरम्
1896 के कांग्रेस अधिवेशन में टैगोर ने पहली बार इसे गाया और यह पूरे देश में प्रसिद्ध हो गया। 1905 में कांग्रेस ने इसे राष्ट्रीय अवसरों पर अपनाया। लेकिन 1930 के दशक में इसके कुछ पदों को लेकर धार्मिक आपत्तियां बढ़ीं, नीति-निर्माताओं को लगा कि आंदोलन को सबके लिए समावेशी रखना जरूरी है।
क्या था 1937 का फैसला?
कांग्रेस कार्यसमिति ने 1937 में तय किया कि राष्ट्रीय आयोजनों में सिर्फ पहले दो पद गाए जाएंगे। इसके पीछे का कारण थे- यही पद सबसे लोकप्रिय और विवाद-रहित थे, बाकी पदों में धार्मिक प्रतीक थे और कई मुसलमान नेताओं ने उन हिस्सों पर आपत्ति जताई
कांग्रेस का उद्देश्य था कि कोई भी समुदाय अलग-थलग न महसूस करे। इसलिए बाकी पद नहीं हटाए गए, बल्कि सिर्फ राष्ट्रीय गायन के लिए तय नहीं किए गए। आयोजक चाहें तो अन्य गीत जोड़ सकते थे। टैगोर का मत था कि राष्ट्रीय प्रतीक ऐसा होना चाहिए जिसे हर नागरिक बिना हिचक अपना सकेयह सोच भी इसी फैसले की आधार बनी।
संविधान सभा का फैसला
24 जनवरी 1950 को संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने घोषणा की कि जन गण मन भारत का राष्ट्रीय गान होगा और वंदे मातरम् को राष्ट्रीय सम्मान के बराबर दर्जा मिलेगा। इस पर सभा में सभी सदस्यों ने सहमति जताई।
क्या है आज का विवाद?
BJP का पक्ष
- वंदे मातरम् एक सभ्यतागत प्रतीक है
- 1937 का फैसला गलत और झुकने वाला कदम था
- 150 साल पूरे होने पर इसे फिर से गर्व से प्रस्तुत किया जाना चाहिए
कांग्रेस का पक्ष
- गीत को राष्ट्रीय दर्जा देने वाली पहली पार्टी वही है
- 1937 का फैसला समावेशिता के लिए था, विभाजन के लिए नहीं
- BJP इतिहास को तोड़-मरोड़कर पेश कर रही है
जमीयत उलेमा-ए-हिंद की राय
जमीयत प्रमुख मौलाना महमूद मदनी ने साफ कहा है कि पहले दो पद ऐतिहासिक रूप से स्वीकार्य हैं, लेकिन बाकी पद इस्लामिक सिद्धांतों से मेल नहीं खाते और उनमें माता को देवी दुर्गा के रूप में पुकारा गया है, जिसे मुस्लिम धर्मशास्त्र में स्वीकार नहीं किया जा सकता उनके अनुसार, किसी भी ऐसी पंक्ति का पाठ करना, जिसमें किसी और को ईश्वर जैसा दर्जा दिया जाए, इस्लाम में मान्य नहीं।

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