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    शिक्षक दिवस विशेष: भारतीय परंपरा की गुरुकुल पद्धति, विश्व में अपनी कीर्ति का पताका लहराती

    Updated: Sun, 01 Sep 2024 02:02 AM (IST)

    अतीत में सोने की चिड़िया कहलाने वाला भारत शिक्षा का भी सिरमौर था। महान ऋषियों-मुनियों की भारतीय परंपरा की गुरुकुल पद्धति वाली शिक्षा व्यवस्था ने विश्व में अपनी कीर्ति पताका लहराई थी। संसार के विभिन्न देशों के छात्र भारत में अध्ययन के लिए आते थे। मध्यकाल और फिर अंग्रेजों के आने के बाद भारतीय गुरुकुल पद्धति वाली शिक्षा व्यवस्था को गहरा आघात लगा।

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    अतीत में सोने की चिड़िया कहलाने वाला भारत शिक्षा का भी सिरमौर था

    अतीत में सोने की चिड़िया कहलाने वाला भारत शिक्षा का भी सिरमौर था। महान ऋषियों-मुनियों की भारतीय परंपरा की गुरुकुल पद्धति वाली शिक्षा व्यवस्था ने विश्व में अपनी कीर्ति पताका लहराई थी। संसार के विभिन्न देशों के छात्र भारत में अध्ययन के लिए आते थे।

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    मध्यकाल और फिर अंग्रेजों के आने के बाद भारतीय गुरुकुल पद्धति वाली शिक्षा व्यवस्था को गहरा आघात लगा। 1835 के मैकाले की नीति ने भारतीय शिक्षा व्यवस्था के चरित्र, रूप और उद्देश्य को ही बदलकर रख दिया। यह सही है कि आधुनिक युग के अनुरूप नए तौर-तरीके, पद्धतियों, नए विचारों और नवाचारों को हमें शिक्षा में शामिल करना होगा, लेकिन समझने की जरूरत है कि भारतीय शिक्षा कभी भी ठहरी हुई नहीं रही।

    देश-काल के अनुरूप हमेशा नए तत्वों को हमने समाहित किया। आचार्य वशिष्ठ, आचार्य संदीपनी, श्रीराम, श्रीकृष्ण, आचार्य द्रोण, वीर अर्जुन, कर्ण एवं चाणक्य, चंद्रगुप्त मौर्य, अशोक से लेकर आर्यभट्ट, वराहमिहिर समुद्रगुप्त, चंद्रगुप्त द्वितीय और हर्षवर्धन जैसे शिक्षक और शिक्षार्थियों ने इसी परंपरा का निर्वहन करते हुए भारत को जगद्गुरु के पद पर आसीन किया था।

    स्वाधीनता आंदोलन के स्वप्नों में स्वराज, स्वतंत्रता, स्वदेशी, स्वभाषा के साथ-साथ स्व-शिक्षा का मॉडल भी था। स्वामी विवेकानंद, लोकमान्य तिलक, महर्षि अरविंद, महामना मदन मोहन मालवीय, गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर, महात्मा गांधी ने शिक्षा के जिस समग्र रूप की कल्पना की थी, स्वाधीनता प्राप्ति के बाद दुर्भाग्य से वह साकार नहीं हो पाई।

    मैकाले मॉडल की कोरी पुस्तकीय शिक्षा हावी थी जबकि भारतीय परंपरा कर्म और प्रयोग की परंपरा रही है। श्रीमद्भगवद्गीता का ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते’ या श्रीरामचरितमानस का ‘कर्म प्रधान विश्व रचि राखा’ केवल धार्मिक-आध्यात्मिक उक्ति भर नहीं है। गुरुकुल आश्रम में राजकुमारों को भी एक सामान्य विद्यार्थी की तरह कर्म करने पड़ते थे।

    आशा का नवदीप

    वर्ष 2020 में आई राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 (एनईपी) ने इन सबकी भरपाई करने की कोशिश की है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 (एनईपी) प्राचीन गौरवशाली भारतीय विचारों-तत्वों से युक्त तो है ही, आधुनिक ज्ञान-विज्ञान और प्रौद्योगिकी का भी सम्यक समाहार करती है। एनईपी-2020 के चार वर्ष पूरे हो चुके हैं। उच्चतर शिक्षा के स्तर पर पाठ्यक्रम से लेकर संस्थान चुनने का लचीलापन, शैक्षणिक धाराओं के बीच अलगाव का खात्मा, बहु-विषयकता और समग्र शिक्षा, पुस्तकीय और रटंत ज्ञान के बजाय वैचारिक समझ और आनुभविक ज्ञान पर जोर, बहुभाषावाद, कौशल विकास, व्यावसायिकता और रोजगारपरकता, शोध एवं नवाचार के साथ-साथ मानवीय एवं संवैधानिक मूल्य पर प्रतिबल और चरित्र निर्माण एवं विद्यार्थियों का समग्र विकास आदि एनईपी के कुछ महत्वपूर्ण बिंदु हैं। शिक्षा मंत्रालय, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग और अन्य हितधारकों के समग्र प्रयास से इसको चरणबद्ध लागू किया जाना शुरू हुआ। उच्चतर शिक्षा व्यवस्था में धरातल पर एनईपी को उतारने में दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) ने अग्रणी भूमिका निभाई है। कुलपति प्रो. योगेश सिंह के नेतृत्व में डीयू ने एनईपी को शब्द और भाव दोनों ही स्तरों पर जिस व्यवस्थित और समग्र तरीके से लागू किया है, वह पूरे देश के लिए एक रोल माडल हो सकता है।

    मिलेंगी विविध ज्ञानधाराएं

    लचीलापन एनईपी की एक प्रमुख विशेषता है ताकि अपनी प्रतिभा-रुचि के अनुरूप छात्र अपना पाठ्यक्रम और रास्ता चुन सकें। इस संदर्भ में बने नवनिर्मित करिकुलम फ्रेमवर्क में विद्यार्थियों को न केवल ऐच्छिक विषय के पाठ्यक्रम चुनने का अधिकार है, बल्कि जनरल इलेक्टिव कोर्स में वह अन्य स्ट्रीम के कोर्स भी पढ़ सकेंगे। अर्थात विज्ञान का विद्यार्थी ह्यूमैनिटीज से संगीत या भूगोल अथवा कामर्स के विद्यार्थी मैनेजमेंट या मार्केटिंग पढ़ सकते हैं। आज हर विकसित देश व्यावसायिक व कौशल शिक्षा और आनुभविक ज्ञान पर बहुत बल देते हैं।

    मैंने अमेरिकी विश्वविद्यालयों में अध्यापन के दौरान देखा कि व्यावसायिक कौशल शिक्षा वहां की शिक्षा का महत्वपूर्ण अंग है। एनईपी भी कौशल विकास और व्यावसायिक शिक्षा पर बल देता है। इसमें 100 से ज्यादा कौशल संबंधी पाठ्यक्रम हैं जो स्वरोजगार की दिशा में सहायक होंगे। इसके अलावा अब तक मेडिकल, इंजीनियरिंग या मैनेजमेंट आदि के विद्यार्थियों को उपलब्ध इंटर्नशिप, अप्रेंटिसशिप, प्रोजेक्ट आदि के अवसर हमारे परंपरागत प्रोग्राम में भी उपलब्ध हैं, जो उनके आनुभविक ज्ञान को बढ़ाएंगे।

    भारतीय भाषाओं को मिला बल

    राष्ट्र की उन्नति में शोध एवं नवाचार की अहम भूमिका को समझते हुए एनईपी में बहुभाषावाद पर बहुत बल है। गांवों, कस्बों और छोटे नगरों में बिखरी प्रतिभाओं को भी अवसर मिले, इसके लिए आज प्रतियोगिता और प्रवेश परीक्षाएं भारतीय भाषाओं में हो रही है।

    भारतीय संविधान में उल्लिखित सामाजिक न्याय की भावना को एनईपी में दोहराया गया है। निम्न आयवर्ग के बच्चों को भी उच्च कोटि की शिक्षा कम खर्च में मिले, इस संदर्भ में कदम उठाते हुए इंजीनियरिंग और पांच-वर्षीय विधि जैसे नए प्रोग्राम में चार लाख रुपये तक की सालाना आय वालों को प्रवेश की फीस में 90 प्रतिशत छूट दी है, लेकिन छात्रों और प्रकारांतर से राष्ट्र का समग्र विकास तब तक नहीं होगा जब तक कि वे मानवीय- नैतिक मूल्य से परिपूर्ण और समग्र-संतुलित व्यक्तित्व न हों।

    पश्चिमी जीवनशैली, तकनीक में सिमटती दुनिया, रियल लाइफ के बजाय वर्चुअल लाइफ, शारीरिक खेलकूद की जगह ई-गेम्स, बढ़ते एकाकीपन आदि ने युवाओं को खतरनाक गिरफ्त में लेना शुरू किया है। इस संदर्भ में समाज-परिवार के साथ-साथ शिक्षा जगत को भी कदम उठाना होगा। शैक्षिक स्तर पर इनसे निपटने के लिए मूल्य संवर्धन पाठ्यक्रम अन्य संस्थाओं को दिशा दे सकते हैं।

    विद्यार्थियों के चरित्र निर्माण तथा समग्र विकास के साथ-साथ उनमें भारतीय ज्ञान परंपरा और मानवीय मूल्यों का सम्यक संचार करने के लिए अभिनव वैल्यू एडीशन कोर्स बनाए गए हैं। ये सभी पाठ्यक्रम क्रेडिट कोर्स हैं, यानी इनके अंक भी जुड़ेंगे, जो इनके चरित्र निर्माण व समग्र विकास में सहायक होगा।

    अभी शेष हैं कुछ प्रयास

    एनईपी के पूर्ण कार्यान्वयन में अभी कई चुनौतियां हैं। आर्थिक संसाधन की अपर्याप्तता एक बड़ी चुनौती है। इतनी बड़ी युवा संख्या को देखते हुए सरकारी संसाधन नाकाफी साबित होते हैं। वैकल्पिक आर्थिक संसाधन जुटाने के लिए समाज के संपन्न लोगों को शिक्षा जगत से जोड़ने- जुड़ने के लिए प्रेरित करना होगा।

    प्राचीन भारत में शिक्षा काफी हद तक समाज पोषित थी। अमेरिकी विश्वविद्यालय संपन्न लोगों से बड़ी मात्रा में एनडाउमेंट (दान) इकट्ठा करते हैं। इसके अतिरिक्त जो विद्यार्थी संपन्न घरों के हैं उनसे ज्यादा फीस ली जाती है। एक अन्य बड़ी चुनौती शोध एवं विमर्श में भारतीय दृष्टि की अनुपस्थिति है। इसके लिए विश्वविद्यालयों को सजग प्रयास करने की जरूरत है।

    भारतीय दृष्टि और परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखकर लिखी गई किताबों का अभाव एक अन्य बड़ी समस्या है। अभी भी पश्चिमी ‘यूरो-अमेरिकी सेंट्रिक’ पाठ्यपुस्तकों का बोलबाला है। इन सबसे पार पाने के लिए श्रेष्ठ अकादमिक नेतृत्व की जरूरत होगी। भारत को विकसित होने के लिए आर्थिक, सामरिक और सांस्कृतिक तौर पर प्रगति करने के साथ-साथ शिक्षा क्षेत्र में भी महाशक्ति बनना होगा। इसके लिए सबको प्रयास करना होगा। इस बार शिक्षक दिवस पर हमें नेल्सन मंडेला का कथन याद रखना चाहिए कि ‘शिक्षा वह सबसे शक्तिशाली अस्त्र है जिससे आप दुनिया को बदल सकते हैं।’

    (लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में डीन ऑफ प्लानिंग और हिंदी विभाग में सीनियर प्रोफेसर हैं)