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जानें क्‍यों मुश्किल है कोरोना वायरस का टीके को विकसित करना, क्‍या कहते हैं एम्‍स के निदेशक

कोरोना का वायरस नया होने की वजह से इसके टीके को विकसित करना आसान नहीं है। इसमें एक वर्ष से ज्‍यादा का समय लग सकता है।

By Kamal VermaEdited By: Published: Sun, 15 Mar 2020 12:48 PM (IST)Updated: Tue, 17 Mar 2020 06:55 AM (IST)
जानें क्‍यों मुश्किल है कोरोना वायरस का टीके को विकसित करना, क्‍या कहते हैं एम्‍स के निदेशक
जानें क्‍यों मुश्किल है कोरोना वायरस का टीके को विकसित करना, क्‍या कहते हैं एम्‍स के निदेशक

नई दिल्‍ली डॉक्‍टर (रणदीप गुलेरिया)। कोरोना के प्रकोप को टीका विकसित करके ही खत्म किया जा सकता है। टीके के विकास के लिए चीन, अमेरिका सहित कई देशों में शोध चल रहे हैं। भारत में भी इसके लिए प्रयास चल रहा है। पहले भी असरदार टीकों के दम पर ही भारत चेचक व पोलियो मुक्त हुआ। इसके अलावा कई संक्रामक बीमारियों पर अंकुश लगा है। इसलिए टीके घातक बीमारियों से जीवनरक्षा में वरदान साबित हुए हैं लेकिन कोरोना का टीका विकसित होने में एक साल से डेढ़ साल समय लग सकता है। जब हम टीके के विकास की बात करते हैं तो उसका मतलब दो चीजें होती हैं। पहला इनफ्लुएंजा जैसी बीमारी के टीके जो पहले से मौजूद है फिर भी हर साल नया टीका तैयार करना पड़ता है।

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ऐसे टीके का विकास आसान होता है। क्योंकि उसके स्ट्रेन के बारे में पहले से मालूम है। नोवेल कोरोना वायरस दुनिया में नया वायरस है। दिसंबर से पहले इस वायरस के बारे में किसी को बिल्कुल मालूम हीं नहीं था। इसलिए नए टीके का विकास इतना आसान काम नहीं है। शोध में कई चीजों का ध्यान रखना होता है। सबसे अहम बात यह है कि टीका वायरस को बढ़ने न दे। वह स्वास्थ्य के लिए सुरक्षित हो। टीका तैयार होने के बाद पहले जानवरों पर परीक्षण करना पड़ता है कि वह प्रभावी है भी या नहीं। फिर इंसानों पर क्लीनिकल परीक्षण कर यह देखना होता है कि उसका इस्तेमाल कितना सुरक्षित है।

यह भी अध्ययन किया जाता है कि वह बीमारी से बचाव में कितना कारगर है। टीके से कम से कम 70-80 फीसद तक बचाव होना ही उसे उपयोगी बनाता है। क्लीनिकल परीक्षण के दौरान बच्चे, गर्भवती महिलाओं व व्यस्क लोगों पर उसके प्रभाव का अध्ययन होता है। बेसिक शोध व क्लीनिकल परीक्षण से गुजरने के बाद टीका तैयार होता है और उसके उत्पादन की प्रक्रिया शुरू होती है। एक ही दिन में करोड़ों खुराक टीके का उत्पादन भी संभव नहीं होता। इसलिए टीकाकरण के लिए हाई रिस्क समूह का चयन कर उत्पादन शुरू होता है। इसलिए कोरोना का टीका विकसित होने में भी साल से डेढ़ साल समय लगना निश्चित है। भारत में कोरोना के टीके के प्रयास के तहत मरीजों के सैंपल से कोरोना वायरस को आइसोलेट कर जरूरी संसाधन एकत्रित कर लिया गया है।

दवाओं से किसी मरीज को ठीक किया जा सकता है लेकिन टीका ही ऐसा विकल्प है जिससे बीमारी से बचाव संभव होता है। इसलिए राष्ट्रीय टीकाकरण अभियान के तहत सभी बच्चों को बीसीजी, हेपेटाइटिस बी, पोलियो, टिटेनस, खसरा, डिप्थीरिया, डायरिया इत्यादि से बचाव के लिए टीके लगाए जाते हैं। इससे शिशु मृत्युदर कम हुई है। कई जगहों पर खसरे का टीका लोग बच्चों को नहीं लगवा रहे थे तो उसका आउटब्रेक भी देखा गया। इसलिए यह जरूरी है कि टीकाकरण में सुस्ती नहीं हो। यह लोगों में गलत धारणा है कि टीका लगाने से उसका साइड इफेक्ट पड़ेगा। बहुत सुरक्षा मानकों का परीक्षण करने के बाद ही उसे बाजार में लाया जाता है। इसलिए टीके का फायदा बहुत है, नुकसान नहीं है। पिछले कुछ सालों से इनफ्लुएंजा (फ्लू व स्वाइन फ्लू) का संक्रमण हर साल होता है। इसका टीका हर साल सर्दी शुरू होने से पहले लगाने से फ्लू से बचाव संभव है।

खासतौर पर बुजुर्गों को यह टीका जरूर लगाना चाहिए। इसी तरह निमोकोकल का टीका भी जरूरी होता है। यह टीका दो तरह का आता है। इसका एक टीका पूरे जीवन में सिर्फ एक बार लगता है। जबकि दूसरा टीका पांच साल बाद लगाना होता है। 65 साल की उम्र के बाद यह टीका लगाने की जरूरत नहीं पड़ती। सर्वाइकल कैंसर से बचाव के लिए एचपीवी (ह्यूमन पेपिलोमा वायरस) का टीका भी उपलब्ध है। यदि 9 से 14 साल की सभी लड़कियों को यह टीका लगाया जाए तो हर साल करीब 50 हजार महिलाओं की जिंदगी बचाई जा सकती है। इसलिए यह जरूरी है कि उपलब्ध टीकों का सदुपयोग करें।

(लेखक दिल्‍ली में एम्‍स के डायरेक्‍टर हैं) 

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