सुकून की छांव के लिए सिटी 'फॉरेस्ट' तैयार, प्राकृतिक स्वरूप में किया गया है डिजायन

राजधानी देहरादून के नजदीक झाझरा में सिटी फॉरेस्ट तैयार है जिसे उद्घाटन का इंतजार है। इसे प्राकृतिक स्वरूप में ऐसे डिजाइन किया गया है।

By Raksha PanthariEdited By: Publish:Sat, 06 Jun 2020 04:19 PM (IST) Updated:Sat, 06 Jun 2020 10:08 PM (IST)
सुकून की छांव के लिए सिटी 'फॉरेस्ट' तैयार, प्राकृतिक स्वरूप में किया गया है डिजायन
सुकून की छांव के लिए सिटी 'फॉरेस्ट' तैयार, प्राकृतिक स्वरूप में किया गया है डिजायन

देहरादून, केदार दत्त। आज की बदलती जीवनशैली और भागदौड़ भरी जिंदगी के बीच कुछ पल प्रकृति की छांव में बिताने को मिल जाएं तो सोने में सुहागा। शायद यही वजह है कि केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने देशभर के शहरों में सिटी फॉरेस्ट की अवधारणा को मूर्त रूप देने का निश्चय किया है। इस क्रम में देखें तो उत्तराखंड में भी लंबे अर्से से शहरों के नजदीक सिटी फॉरेस्ट पर जोर दिया जा रहा है। हल्द्वानी को तो बॉयोडायवर्सिटी पार्क के रूप में यह सौगात मिल चुकी है, जिसमें राज्य की समृद्ध जैवविविधता के दर्शन हो रहे तो इसके संरक्षण के लिए जनसामान्य को प्रेरित भी किया जा रहा। राजधानी देहरादून के नजदीक झाझरा में 'सिटी फॉरेस्ट' तैयार है, जिसे उद्घाटन का इंतजार है। इसे प्राकृतिक स्वरूप में ऐसे डिजाइन किया गया है, ताकि वहां कदम रखते ही जुबां से निकले वाह। ऐसी पहल की अन्य शहरों में भी आवश्यकता है।

जैवविविधता के संरक्षण की बड़ी चुनौती

विश्व पर्यावरण दिवस पर शुक्रवार को उत्तराखंड में भी बहस-मुबाहिसे हुए। कोरोना संकट के दृष्टिगत इसका स्वरूप जरूर बदला था, मगर चिंतन के केंद्र में पर्यावरण संरक्षण और इसके समक्ष खड़ी चुनौतियां रहीं। दरअसल, धरा पर मनुष्य समेत संपूर्ण जीव-जगत को यथोचित सम्मान और स्थान मिलना ही चाहिए। तभी तो जैवविविधता भी महफूज रह सकेगी। ऐसे में जरूरी है कि हम प्रकृति को समझें और ऐसा कोई कार्य न करें, जिससे प्रकृति अथवा वातावरण को किसी प्रकार की कोई क्षति हो।

यानी, प्रकृति और मनुष्य के मध्य बेहतर तालमेल समय की मांग है। कोरोना संकट के बाद उपजी परिस्थितियों ने भी यह सीख दी है, जिससे सबक लेने की जरूरत है। यह सोच रखना ठीक नहीं कि पर्यावरण व जैवविविधता को बचाए रखना सिर्फ सरकार का ही दायित्व है। यदि अपने आसपास के परिवेश को साफ-सुथरा रखने की हर व्यक्ति ठान ले तो आधी दिक्कतें वैसे ही दूर हो जाएंगी।

पर्यावरण बचाने को दो दिन उपवास

कोरोनाकाल ने भले ही कठिनाइयों का पहाड़ खड़ा किया हो, मगर यह भी सही है कि लॉकडाउन के दरम्यान पर्यावरण की सेहत संवरी। इकहत्तर फीसद वन भूभाग वाले उत्तराखंड की तस्वीर भी इससे जुदा नहीं है। वाहनों की रेलमपेल और औद्योगिक इकाइयों से होने वाले प्रदूषण से हवा में घुल रहा 'हलाहल' दूर हुआ तो घरों में सुबह के वक्त पङ्क्षरदों की चहचहाहट से नींद खुलने लगी।

छतों से पर्वत श्रृंखलाएं दृष्टिगोचर होने लगीं तो गंगा-यमुना समेत अन्य नदियों का जल स्वच्छ व निर्मल हुआ। वायु, जल, ध्वनि प्रदूषण के साथ ही वनों की सेहत में सुधार है। यह सब हुआ तब, जबकि लॉकडाउन में सभी गतिविधियां ठप रहीं। हालांकि, निरंतर लॉकडाउन तो संभव नहीं, लेकिन प्रकृति के लिए दो दिन 'व्रत' तो रखा ही जा सकता है। प्रत्येक व्यक्ति हफ्ते में दो दिन घर से बाहर न निकले तो पर्यावरण संरक्षण में वह अहम योगदान दे ही सकता है।

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पौध रोपकर इन्हें बचाना है जरूरी

उत्तराखंड में मानसून के दस्तक देने में भले ही अभी वक्त हो, मगर जंगलों के साथ ही शहरों, गांवों में पौधरोपण की तैयारियां शुरू हो गई हैं। राज्य के जंगलों को ही लें तो हर साल वर्षाकाल में विभिन्न प्रजातियों के औसतन डेढ़ से दो करोड़ पौधे रोपे जाते हैं। सोचनीय विषय ये है कि इनमें से आधे ही जैसे-तैसे जीवित रह पाते हैं। ऐसी ही तस्वीर शहरों-गांवों में होने वाले पौधरोपण की भी है। असल में पौधे रोपकर कर्तव्य की इतिश्री करने और रोपित पौधों को भूलने की प्रवृति सबसे घातक हो रही है।

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ऐसे में जरूरी है कि रोपित पौधों की उसी तरह देखभाल की जाए, जैसे नौनिहालों की देखरेख की जाती है। वैसे भी कहा गया है कि एक पेड़ सौ पुत्रों के समान है। उम्मीद की जानी चाहिए सरकारी सिस्टम के साथ ही जनसामान्य भी इस बार रोपित पौधों की वर्षभर उचित देखभाल का संकल्प लेंगे।

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