पत्थर की कला हो रही पत्थर

प्रदेश में पहले पत्थरों में नक्काशी की कला एक आम हुआ करती थी।

By JagranEdited By: Publish:Mon, 21 May 2018 08:21 PM (IST) Updated:Mon, 21 May 2018 08:21 PM (IST)
पत्थर की कला हो रही पत्थर
पत्थर की कला हो रही पत्थर

नर्वदा कौंडल, शिमला

प्रदेश में पहले पत्थरों में नक्काशी की कला एक आम हुआ करती थी। मंदिर, घर, सरकारी कार्यालयों में पत्थरों के कार्य को किया जाता था। लेकिन समय बदलता गया और पत्थर की इस कला से लोग किनारा करते रहे। दो दशकों में ये कला विलुप्त होने की कगार पर पहुंच गई। अब कला खुद पत्थर होती जा रही है। युवा अब इसे रोजगार का साधन नहीं समझते हैं। यही वजह है कि युवा पीढ़ी इस कला को सीखने में कोई रुचि नहीं ले रही है। बैंटनी कैसल में लगे शिल्प ग्राम मेले में जिला सिरमौर के बरोल बनेरी से आए सबसे बुजुर्ग माताराम विशेष पत्थरों में मूर्तियों को आकार देते हैं। यह पत्थर इनकी अपनी जमीन में निकल रहा है। वह इस कला से 32 वर्षो से जुड़े हुए हैं। माताराम आर्मी से सेवानिवृत्त हो चुके हैं। सेवानिवृत्ति के बाद ही उन्होंने पत्थरों को तराश कर भगवान का रूप देने का कार्य शुरू किया था।

उन्होंने कहा कि पत्थर को आकार देना बहुत मुश्किल काम है। लोग अब इस कला को समझते नहीं हैं। मैं लकड़ी व सीमेंट से भी मूर्तियों को बनाता हूं। सरकार की ओर से इस कला को सिखाने के लिए स्कूल भी खोला गया था, लेकिन इस हुनर को सीखने वाले बहुत कम ही युवा मिले। वे भी कुछ समय के बाद स्कूल छोड़ गए, जिस कारण से स्कूल को बंद करवाना पड़ा। उनका कहना था कि नई पीढ़ी कला को समझ ही नहीं रही है। अब सीमेंट और पीओपी के माध्यम से बेहतरीन मूर्तियां बनाई जा रही हैं। अब तो चुनिंदा गांव में ही बुजुर्ग पत्थरों को तराशने का काम कर रहे हैं। उन्हें भी इस कला से रोजी-रोटी कमाना मुश्किल हो गया है। सरकार को इस कला को सहेजने के लिए विशेष योजना बनानी चाहिए।

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एक दिन पहले आई शिल्प कलाकारों की याद

-16 मई को दिए कलाकारों को आमंत्रण, स्वयं विभाग 15 दिन से कर रहा था तैयारी

-विभाग की लापरवाही से परेशान हुए कलाकार जागरण संवाददाता, शिमला

भाषा एवं संस्कृति विभाग स्वयं तो 15 दिनों से शिल्प मेले की तैयारियों में जुटा हुआ था। लेकिन जो कलाकार इनकी प्रदर्शनी की शोभा थे उनको मात्र चंद घंटों में प्रदर्शनी में आने का न्यौता दिया गया। ऐसे में कलाकार न तो कलाकृति तैयार कर पाए और न ही उन्हें पर्याप्त समय था शिमला पहुंचने का। अब कलाकार वही सामान प्रदर्शनी में लेकर आए जो लंबे समय से तैयार पड़ा हुआ था। जिससे कलाकार खुद ही अपनी सामान से संतुष्ट नहीं थे। भाषा एवं संस्कृति विभाग के सौजन्य से शिल्प मेले का सोमवार को आखिरी दिन था। जिसमें लगभग 54 स्टॉल लगे हुए थे। प्रदेशभर बिलासपुर, चंबा, हमीरपुर, कुल्लू, किन्नौर, कांगड़ा, मंडी, सिरमौर, सोलन, शिमला व ऊना से आए कारीगरों ने अपनी कला को प्रदर्शनी में प्रदर्शित किया गया। शिल्प मेले में काष्ठ, प्रस्तर, धातु चित्रकला, पहाड़ी चित्रकला, थंका चित्रकला, मुखौटा निर्माण, बांस, कांच, वस्त्र, कागज आदि सामग्री से अद्भुत कलाकृतियों व वस्तुओं आदि का निर्माण किया गया था। प्रदर्शनी में आए स्टॉल वालों का कहना था कि हमें प्रदर्शनी में बुलाने के लिए 16 मई की शाम को सूचित किया गया। ऐसे में हमें एकदम से अपने सामान के साथ तैयारी करना बहुत मुश्किल हो जाता है। विभाग द्वारा हमें तीन से चार दिन का समय देना चाहिए। प्रदर्शनी में आए इन शिल्पकारों, बुनकरों, कलाकारों को बहुत सी दिक्कतों का भी सामना करना पड़ा। उनका कहना था कि सबसे पहले तो प्रदर्शनी स्थल तक अपना सामान लाना मुश्किल हुआ, क्योंकि प्रदर्शनी बैंटनी कैसल में लगाई गई थी जोकि प्रतिबंधित मार्ग है, यहां पर गाड़ी की कोई सुविधा नहीं है। फिर कुलियों की सहायता से अपनी कलाकृतियों को जैसे-तैसे प्रदर्शनी स्थल तक पहुंचाया। विभाग द्वारा हमारे ठहरने की व्यवस्था शिमला के राम मंदिर में की थी। जहां पर हमें पूरी सुविधाएं उपलब्ध नहीं हो पाई। सीनियर-जूनियर का कोई भी ध्यान नहीं रखा गया था। प्रदर्शनी में आए सबसे बुजुर्ग माता राम, जो पत्थरों में उकेरी भगवान की मूर्तियों लाए हैं, का कहना था कि राम मंदिर में मेरे लिए आना-जाना बहुत कठिन था। प्रदर्शनी समाप्त हो रही है अब फिर हमें अपने सामान को वापस ले जाने की चिंता सता रही है।

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