दो समुदायों में एकजुटता की मिसाल है ¨मजर
जागरण संवाददाता, चंबा : ऐतिहासिक ¨मजर मेला दो समुदाय में एकजुटता की मिसाल है। सावन की रिमझिम फुहारों
जागरण संवाददाता, चंबा : ऐतिहासिक ¨मजर मेला दो समुदाय में एकजुटता की मिसाल है। सावन की रिमझिम फुहारों के मध्य सावन के दूसरे रविवार को चंबा के भगवान श्री लक्ष्मीनारायण मंदिर में सबसे पहले ¨मजर अर्पित की जाती है। उसके बाद अखंड चंडी महल में भगवान रघुवीर को ¨मजर चढ़ाई जाती है। ऐतिहासिक चैगान में ¨मजर का ध्वज चढ़ाने के साथ ही ¨मजर मेला का आगाज होता है। चंबा में सावन के माह में लगने वाले इस मेले के पीछे दो समुदाय में एकजुटता की वो मिसाल भी छिपी हुई है, जिसने इसका स्वरूप ही बदल दिया है।
¨हदू देवताओं पर अर्पण होने वाली ¨मजर को चंबा में मुस्लिम समुदाय के लोग तैयार करते हैं। ये परंपरा करीब 400 साल से चली आ रही है। पीढ़ी दर पीढ़ी चंबा में मिर्जा परिवार के सदस्य इस परंपरा को निभाते आ रहे हैं। मक्की की कौंपलों से प्रेरित चंबा के इस ऐतिहासिक उत्सव में मुस्लिम समुदाय के लोग कौपलों की तर्ज पर रेशम के धागे और मोतियों से पिरोई गई ¨मजर तैयार करते हैं। इस ¨मजर को सर्वप्रथम लक्ष्मीनाथ मंदिर और रघुनाथ मंदिर में चढ़ाया जाता है और इसी परंपरा के साथ ¨मजर महोत्सव की शुरुआत भी होती है। मेले के वर्तमान स्वरूप तथा चंबा के जनमानस का उल्लेख करने से पहले इसके आयोजन की पृष्ठभूमि से जुड़ी कुछ जनश्रुतियों भी हैं।
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साधु ने बनाई थी सात रंगों की डोरी
कहा जाता है कि प्राचीन समय में रावी नदी जिसे पुराणों व वेदों में ईरावती के नाम से जाना जाता है। वर्तमान चौगान से होकर बहती थी। भगवान विष्णु का मंदिर जिसे हरिराय के नाम से जाना जाता है, नदी के बायें तट पर था और सामने दाहिने तट पर चंपावती मंदिर था। जहां पर एक बहुत ही अलौकिक साधु रहता था। साधु प्रतिदिन सिद्धि के बल पर रावी नदी को पार कर हरिराय मंदिर में जाकर-पूजा अर्चना कर वापस आ जाता था। एक बार राजा ने साधु से कहा कि वह ऐसा उपाय करें कि सब लोग हरिराय के दर्शन प्रतिदिन कर सकें। इस पर चंबा में एक महायज्ञ का आयोजन किया गया। रावी नदी ने राह छोड़ दी। इसी महायज्ञ में साधु ने सात रंगों के धागों से एक डोरी बनाई थी, बाद में उसे ही ¨मजर के रूप में मान लिया गया।
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वरुण देवता से जुड़ा है मेला
चंबा रियासत के इस मेले का संबंध वरुण देवता से भी जोड़ा जाता है। कहा जाता है ¨मजर का समापन शोभायात्रा के साथ होता है, जो रावी के तट पर जाकर समाप्त होती है। यहां मिजर रावी में विसर्जित की जाती है। यह इस बात का द्योतक है कि ¨मजर का आयोजन वरुण देवता को प्रसन्न करने के लिए भी किया जाता है ताकि धन-धान्य में वृद्धि हो। ¨मजर का विसर्जन भी पहले कोई कम कोतुहलपूर्ण नहीं होता था। एक ¨जदा भैंसे को रावी नदी में धकेल दिया जाता था। भैंसा अगर ¨जदा रहकर दायें किनारे पर आ जाए तो नगर के लिए किसी आपदा का द्योतक माना जाता था लेकिन अगर वो भैंसा नदी के पार चला जाता तो उसको नगर के लिए अच्छा माना जाता था। देश आजाद होने के बाद 1948 में इस प्रथा को बंद कर दिया गया था।
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भटियात के लोगों ने दी थीं राजा को बालियां :
¨मजर से जुड़ी एक गाथा ये भी है कि राजा चंबा-कांगड़ा से युद्ध जीत कर आ रहा था रास्ते में जब वो भटियात के क्षेत्र में पंहुचा तो लोग अपने खेतों में काम कर रहे थे। धान पर बालियां आ चुकी थी। उन्होंने अपने राजा को सुंदर बालियां भेंट कर दी। उसके बाद राजा जब अपने लाव लश्कर के साथ जोत को पार कर चंबा की तरफ आ रहा था तो ऊपर के गांवों के लोग मक्की की फसल की रखवाली कर रहे थे। अचानक राजा को आते देख कर वह बहुत प्रसन्न हुए मक्की की फसल तैयार होने को थी। उस पर ¨मजरे आ चुकी थी उन्होंने राजा को वही भेंट कर अपनी प्रसन्नता व्यक्त की। राजा जब चंबा आया तो सारे नगर में प्रसन्नता व जीत का माहौल था हर घर में कुछ न कुछ खाने को बना लोगों ने राजा की जीत को मना कर अपने-अपने नाते रिश्तेदारों में वो भोज बांटकर जीत के इस पर्व को मनाया। चंबा में आज दिन तक परंपरा कायम है। पहले ¨मजर मेला आरंभ होने पर चंबा के लोग अपनी कमीज के बटन पर ¨मजर लगाते थे। मेले के अंतिम दिन उसे रावी नदी में प्रवाह कर देते थे। अब सांस्कृतिक संध्याओं में सर्वप्रथम सबसे पहले कुंजड़ी मल्हार छेड़ा जाता है।