फिल्म रिव्यू: फैंटम (2.5 स्टार)

आतंकवाद की समस्या विश्वव्यापी है। हिंदुस्तान-पाकिस्तान इससे अछूते नहीं हैं। जेहाद के नाम पर रह-रहकर दोनों देशों में दशकों से जबरदस्त तबाही मचाई जाती रही है। इससे निपटने के इंतजाम फौरी राहत तो दे देते हैं, पर अब तक आतंकियों व कथित जेहादियों का समूल नाश नहीं हुआ है। हर

By Monika SharmaEdited By: Publish:Fri, 28 Aug 2015 08:19 AM (IST) Updated:Fri, 28 Aug 2015 11:10 AM (IST)
फिल्म रिव्यू: फैंटम (2.5 स्टार)

अमित कर्ण
प्रमुख कलाकार: सैफ अली खान, कट्रीना कैफ
निर्देशक: कबीर खान
संगीत निर्देशकः प्रीतम
स्टार: 2.5

आतंकवाद की समस्या विश्वव्यापी है। हिंदुस्तान-पाकिस्तान इससे अछूते नहीं हैं। जेहाद के नाम पर रह-रहकर दोनों देशों में दशकों से जबरदस्त तबाही मचाई जाती रही है। इससे निपटने के इंतजाम फौरी राहत तो दे देते हैं, पर अब तक आतंकियों व कथित जेहादियों का समूल नाश नहीं हुआ है। हर मुल्क अपने-अपने तरीके व ताकत के मुताबिक इस पर अंकुश लगाने को प्रयासरत है। मिसाल के तौर पर इजरायल अपनी गुप्तचर एजेंसी मोसाद के जरिए आतंकियों को ठिकाने लगाने व उन्हें सबक सिखाने को कोवर्ट एक्शन करने से भी नहीं चूकता। उस एक्शन के तहत आतंकी व आतंकी संगठनों को दुनिया के किसी भी कोने में जाकर कानूनी-गैरकानूनी तरीके से नेस्तनाबूत किया जाता है। उक्त कार्यप्रणाली से आतंकी आतंकित तो होते हैं, पर एक अंतराल के बाद वे जवाबी हमला करते रहते हैं। बहरहाल, कबीर खान की 'फैंटम' की कहानी का केंद्र भी यही है। फिल्म में कई बार बाकायदा मोसाद के कोवर्ट एक्शन का हवाला है।

फैंटम

फिल्म में आधी हकीकत, आधा फसाना है। हकीकत यह कि 26/11 हमले के जिम्मेदार लोग कौन हैं? उन्होंने कैसे उस हमले को अंजाम दिया था। उन चीजों के लिए तथ्यों की तलाश एस. हुसैन जैदी की किताब 'मुंबई एवेंजर्स' से की गई है। अब 26/11 हमले में 166 लोगों को मौत के घाट उतार देने वालों के साथ क्या सलूक किया जाए, उस पर कबीर खान ने परवेज शेख के साथ मिलकर एक फंतासी रची। वह यह कि दानियाल खान बहुत बहादुर व देशभक्त हिंदुस्तानी फौजी है, पर एक गलतफहमी के चलते उस पर कायर और अपने ट्रूप की जान जोखिम में डालने का गलत आरोप लगता है। उसके चलते उसके अब्बा तक उससे नाराज हैं।

दानियाल खान सुदूर पहाड़ी इलाके में एकाकी जीवन जीने को मजबूर है। दूसरी तरफ मुंबई में 26/11 हमलों के चलते भारतीय गुप्तचर एजेंसी रॉ के अधिकारी बड़ी बेचैन हैं। कई साल होने के बावजूद हमले के मास्टरमाइंड आजाद व बेखौफ जी रहे हैं। अधिकारी उन्हें ठिकाने लगाना चाहते हैं ताकि आतंकी खौफजदा हों। उसकी खातिर रॉ एजेंट समित मिश्रा कोवर्ट एक्शन यानी पाकिस्तान में घुसकर आतंकियों को सबक सिखाने की बात रखता है, जिसे पीएमओ से हरी झंडी नहीं मिलती। बाद में अधिकारी अपने स्तर पर उस प्लान को अमलीजामा पहनाते हैं। दानियाल खान को ढूंढा और मनाया जाता है। लंदन में पूर्व रॉ एजेंट नवाज मिस्त्री की मदद से पहले लंदन में लश्कर-ए-तैयबा के एजेंट को मारा जाता है, फिर वह शिकागो में कैद डेविड हेडली को ठिकाने लगाता है। आखिर में वे आईएसआईएस को जरिया बनाते हुए सीरिया व फिर पाकिस्तान रवाना होते हैं, जहां उन्हें हारिज सईद को खत्म करना है।

कहानी कागजों पर ही बड़ी रोचक, रोमांचक और बड़े स्केल की लगती है। असल में वैसा करना तकरीबन नामुमकिन ही है, क्योंकि हारिज सईद नेपाल या मालदीव नहीं पाकिस्तान में छिपा बैठा है। उस पर वहां की गुप्तचर एजेंसी का हाथ है। उसकी हालत ओसामा बिन लादेन जैसी नहीं है, जो ऐबटाबाद में दुनिया की नजरों से छिपकर बैठा है। हाफिज अब तक खुलेआम भारत के खिलाफ जहर उगल रहा है। दूसरी चीज कि अब तक के इतिहास में असलियत में भारतीय गुप्तचर एजेंसियों के द्वारा कम से कम पाकिस्तान के मामले में कोवर्ट एक्शन का संचालन कभी हुआ नहीं है। इस बात से आम व खास हिंदुस्तानी भली-भांति अवगत है। ऐसे में उन्हें इस फंतासी कहानी के लिए राजी करवा पाना टेढ़ी खीर है। फिर वे दिन भी बीत चुके हैं, जब 'गदर' में सनी देओल का किरदार पाकिस्तान में हैंड पंप उखाड़े और दर्शक तालियां बजाने लगें।

'फैंटम' के संग उपरोक्त समस्याएं आड़े आई हैं। लचर पटकथा से भारतीय गुप्तचर एजेंसियों की कार्यप्रणाली हास्यास्पद हो गई है। सभी किरदार लंदन, शिकागो, सीरिया के वॉर जोन व पाकिस्तान में आतंकियों से लोहा ले रहे हैं, लेकिन वे इतनी आसानी से गाजर-मूली की तरह उनका सफाया कर रहे हैं कि वह देख तरस व हंसी आती है। असल में खुद हाफिज सईद फिल्म को देखे तो उसे भी हंसी ही आएगी। मिसाल के तौर पर दानियाल खान जिस तरीके से शिकागो में कैद डेविड हेडली को ठिकाने लगता है, वह बचकाना सा लगता है। जिस शॉवर में वह जहर की गोली इंप्लॉट करता है, वह सीसीटीवी कैमरे में कैसे कैप्चर नहीं हुई, वह कैसे हजम हो।

लाहौर में घुसकर लश्कर-ए-तैयबा जैसे स्केल के बड़े नेता पर दिन-दहाड़े दानियाल खान गोलीबारी करता है और वहां की पुलिस, फौज व गुप्तचर एजेंसी निष्प्रभावी हैं। इन सबने कहानी के प्रभाव को हल्का कर दिया। हम उसे सिनेमैटिक लिबर्टी का नाम भी नहीं दे सकते। किस्सागोई व अदाकारी सीखने वालों के पाठ्यक्रम में सेंस ऑफ डिसबीलिफ अध्याय है। उसके तहत वे सीखते हैं कि दर्शकों को कैसे अपनी कल्पित कथा पर यकीन दिलाया जाए। इस फिल्म में उस अध्याय के मूलभूत सिद्धांतों का भी क्रियान्वयन नहीं है।

दानियाल खान की भूमिका में सैफ अली खान की मेहनत व शिद्दत दिखती है, पर नवाज मिस्त्री बनी कट्रीना कैफ के ठंडे भाव-प्रदर्शन से फिल्म कमजोर ही हुई है। हां, गेटअप व लोकेशन नयनाभिराम बने हैं। डेविड हेडली व हारिज सईद हूबहू लगे हैं। कट्रीना कैफ के टिपिकल प्रशंसकों को निराशा होगी। उन पर एक भी गना फिल्म में नहीं है।

अवधिः 138 मिनट

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