दोनों हाथों में लड्डू : सुशांत सिंह राजपूत

सुशांत सिंह राजपूत 'पीके' में एक छोटी सी भूमिका निभाने के बाद 'ब्योमकेश बख्शी' में लीड रोल में दिखेंगे। उन्होंने बॉलीवुड में अपनी जिंदगी और अनुभवों को अजय ब्रह्मात्मज के साथ साझा किया। अभी मैं जैसी जिंदगी जी रहा हूं और जिन द्वंद्वों से गुजर रहा हूं, उनका मेरी परवरिश

By Monika SharmaEdited By: Publish:Sun, 07 Dec 2014 01:25 PM (IST) Updated:Sun, 07 Dec 2014 01:39 PM (IST)
दोनों हाथों में लड्डू : सुशांत सिंह राजपूत

सुशांत सिंह राजपूत 'पीके' में एक छोटी सी भूमिका निभाने के बाद 'ब्योमकेश बख्शी' में लीड रोल में दिखेंगे। उन्होंने बॉलीवुड में अपनी जिंदगी और अनुभवों को अजय ब्रह्मात्मज के साथ साझा किया।

अभी मैं जैसी जिंदगी जी रहा हूं और जिन द्वंद्वों से गुजर रहा हूं, उनका मेरी परवरिश से सीधा संबंध नहीं है। रियल इमोशन अलग होते हैं, पर्दे पर हम उन्हें बहुत ही नाटकीय बना देते हैं। पिछली दो फिल्मों के निर्देशकों की संगत से मेरी सोच में गुणात्मक बदलाव आया है। राजकुमार हिरानी और फिर दिबाकर बनर्जी के निर्देशन में समझ में आया कि पिछले आठ सालों से जो मैं कर रहा था, वह एक्टिंग नहीं, कुछ और थी। अब बतौर अभिनेता मेरा विकास हुआ है। अगली फिल्मों में किरदारों को निभाते समय रिसर्च के अलावा और बहुत सारी चीजें ध्यान में रखूंगा।

पलकें भी नहीं झपकेंगी

'ब्योमकेश बख्शी' शूट करते समय मैंने एक बार भी मॉनिटर नहीं देखा। पोस्ट प्रोडक्शन और डबिंग के दौरान मैंने अपनी परफॉर्मेंस देखी। मैंने पाया कि मैं बिल्कुल अलग एक्टर के तौर पर सामने आया हूं। लोग तारीफ करेंगे तो थैंक्यू कहूंगा। नापसंद करेंगे तो माफी मांग लूंगा। सच यही है कि कुछ अलग काम हो गया है। दिबाकर बनर्जी की फिल्मों में हिंदी फिल्मों के प्रचलित ग्रामर का अनुकरण नहीं होता। ग्रामर का पालन न करने से एक ही डर लग रहा है कि कहीं कुछ ज्यादा रियल तो नहीं हो गया। बाकी फिल्म की गति काफी तेज है। दो घंटे दस मिनट में पूरा ड्रामा खुलता है। आप यकीन करें फिल्म देखते समय पलकें भी नहीं झपकेंगी।


एक्टिंग में सीखी ईमानदारी

दिबाकर की सबसे अच्छी बात है कि वे किसी भी टेक को 'नॉट गुड' नहीं कहते। हर शॉट को अच्छा कहने के बाद वे एक और शॉट जरूर लेते हैं। इस फिल्म के दौरान हम दोनों 'ब्योमकेश बख्शी' के किरदार को एक्सप्लोर करते रहे। पहले मैंने ऐसी ईमानदारी के साथ एक्टिंग नहीं की। शूटिंग के दूसरे दिन ही चालीस सेकेंड के एक लंबे सीक्वेंस में दिबाकर ने मुझे 1936 का एक वीडियो दिखाया और समझाया कि रियल लाइफ और रील लाइफ में क्या फर्क हो जाता है? मुझे उस सीक्वेंस में एक केस सुलझाने के लिए पैदल, रिक्शा, बस, ट्राम से जाना था। अपनी परफॉर्मेंस में मैं दिखा रहा था कि आज मैं बहुत परेशान हूं। मुझे जल्दी से जल्दी केस सुलझाना है। दिबाकर के उस वीडियो को देखने के बाद मेरी समझ में आया कि रियल लाइफ में ऐसी परेशानी चेहरे और बॉडी लैंग्वेज में नहीं होती। मेरे लिए यह बहुत बड़ी सीख थी। पर्दे पर हम ज्यादातर बनावटी होते हैं या एक्टिंग के अपने टूल से दर्शकों को अपनी फीलिंग्स का एहसास दिलाते हैं। दिबाकर कहते थे, 'फिलहाल अपने टूल्स रख दो। मैंने इस दृश्य को तीस मिनट दिया है। 29 मिनट तक अगर मेरे हिसाब से नहीं हुआ तो 30वें मिनट में अपने टूल्स का इस्तेमाल कर लेना।' शुरू में तो मैं डर गया कि बगैर टूल्स के मैं एक्टिंग कैसे करूंगा लेकिन धीरे-धीरे मजा आने लगा।

गर्व की बात है पीके
'पीके' बहुप्रतीक्षित फिल्म है। आमिर खान और राजकुमार हिरानी जैसे दिग्गज के संग काम करना बड़े गर्व की बात है। उसमें मेरा कैमियो रोल है, मगर वह बड़ा प्रभावी है। उसमें मेरा चयन फिल्म के कास्टिंग डायरेक्टर मुकेश छाबड़ा के जरिए हुआ। उस भूमिका के लिए हिरानी सर को फ्रेश चेहरा चाहिए था। उस वक्त तक मेरी 'काय पो छे' नहीं आई थी। मेरा ऑडिशन हुआ। सबको बेहद पसंद आया। बाद में 'पीके' की शूट में देर होती गई, तब तक 'काय पो छे' और 'शुद्ध देसी रोमांस' आ गई। हिरानी सर ने एक दिन मुझे बुलाकर मजाक में कहा, 'यार हमारे तो दोनों हाथ में लड्डू आ गए। एक तो तुम्हारा चेहरा फ्रेश है। ज्यादा लोग तुम्हें जानते-पहचानते नहीं थे। मगर अब तुम स्टार भी हो गए।'

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