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    जब बाजे-गाजे के साथ घूमने निकलते हैं देवता, बेहद खास है दक्षिण एशिया में निकलने वाली रथ यात्रा

    Updated: Mon, 27 Oct 2025 01:14 PM (IST)

    बाजे-गाजे के साथ निकलती है दक्षिण एशिया के कई भागों में रथ यात्रा। जो हिमाचल प्रदेश से लेकर तमिलनाडु तक निकलने वाली रथयात्रा से मेल खाती है। इसकी जड़ें जुड़ी हैं छठी शताब्दी से।

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    दक्षिण एशिया की अनूठी परंपरा: जब देवता निकलते हैं यात्रा पर (Picture Credit- Map Academy)

    डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली। प्रतिवर्ष देवता यात्रा पर निकलते हैं। देश में हिमाचल प्रदेश से लेकर तमिलनाडु तक देवता एवं उनके परिवारगण अपने दिव्य प्रांगण से भ्रमण पर निकलते हैं। वह पालकी अथवा रथ पर वस्त्र, आभूषणों एवं राजसी प्रतीक चिन्हों से सुसज्जित रहते हैं। इस यात्रा दल में नर्तक, पुजारी, संगीतकार एवं चंवर डुलाने वाले सम्मिलित होते हैं। पूरा वातावरण ड्रम, तुरही एवं सूंड के आकार के बाजों की तीव्र ध्वनि से गुंजायमान हो उठता है। लाखों भक्तगण अपने आराध्य के दर्शन पाने की प्रतीक्षा में रहते हैं।

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    चीनी अभिलेखों में जिक्र

    दक्षिण एशिया के कई भागों में हिंदू मंदिरों के वार्षिक उत्सवों का एक अभिन्न अंग रथ यात्रा का कार्निवलनुमा जुलूस निकलना है। यद्यपि समकालीन रथ यात्रा मुख्य रूप से हिंदू त्योहारों से जुड़ी हुई है, उसकी ऐतिहासिक जड़ें केवल हिंदू समुदाय तक सीमित नहीं हैं। पांचवीं शताब्दी में चीन के एक भिक्षु और पर्यटक फैक्सियन ने बौद्ध तीर्थ स्थलों से संबंधित क्षेत्र खोतान (वर्तमान में चीन और ताजिकिस्तान) एवं पाटलिपुत्र (वर्तमान में बिहार) में 14 दिवसीय रथ यात्राओं का अनुभव किया और उन पर अभिलेख भी लिखा। महात्मा बुद्ध के भक्त स्वर्ण एवं चांदी से निर्मित बुद्ध और बोधिसत्व के विग्रहों को मठों से निकालकर नगर के बीच तक लाते हैं। फैक्सियन के लेखों में इस बात का भी जिक्र है कि जैसे-जैसे यात्रा विभिन्न मार्गों से निकलती है, राज परिवार के सदस्य एवं दरबारी भी इस उत्सव में सम्मिलित होते जाते हैं।

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    दिव्यता का विस्तार

    भारत में ऐसी यात्राओं का प्रचलन छठी-सातवीं शताब्दी से है, जब भक्ति मार्ग ने इष्ट देवों को जीवित प्राणी मानने की विचारधारा का प्रसार किया और इसे लोकप्रिय बनाया। आम जनमानस में यह धारणा है कि भगवान पूर्व-निर्धारित मार्गों से दिव्य रथों पर विराजित हो, अपने भव्य मंदिर परिसरों से पूरे नगर के भ्रमण पर निकलते हैं। वह मंदिर परिसरों की सीमित भौतिक सीमाओं के परे अपनी दिव्यता का भौगोलिक विस्तार करते हैं। ऐसी शोभायात्राओं का औचित्य यह है कि वह हिंदू धर्म में पूजा की अवधारणा का एक अभिन्न अंग है। मंदिर एवं अन्य देव-स्थानों में उपस्थित भक्त देवताओं की परिक्रमा कर विधिवत अनुष्ठान करते हैं और अपने आराध्य से आशीष प्राप्त करते हैं।

    श्रद्धा का प्रतीक

    तमिलनाडु के तिरुवरुर जिले में स्थित त्याग राज मंदिर का तिरुवरुर थेरोत्तमा एक ऐसा ही रथ उत्सव है। इस रथ उत्सव में शिव के प्रतीक त्यागराज स्वामी एवं उनकी पत्नी कोंडी, जो पार्वती का अवतार हैं, का शृंगार किया जाता है व एक दिवसीय शोभायात्रा निकाली जाती है। इसके अलावा वल्लुवर कोट्टम नाम का एक रथ है, जो शास्त्रीय तमिल दार्शनिक व कवि वल्लुवर के स्मारक के रूप में कार्य करता है। यह रथ दक्षिण एशिया में ऐतिहासिक और पौराणिक हस्तियों के प्रति श्रद्धा का प्रतीक भी है।

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    जन्म-मरण से मुक्ति

    वर्तमान में ओडिशा के पुरी नगर में भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा भारत की सबसे विशाल शोभायात्रा मे से एक है। यह आषाढ़ मास में आयोजित होने वाला नौ दिवसीय उत्सव है। इसमें हजारों की संख्या में भक्तगण रथ की रस्सियों को खींचते हैं। मानसून में भगवान विष्णु के अवतार श्री जगन्नाथ अपने भाई बलभद्र एवं बहन सुभद्रा के साथ गुंडीचा मंदिर जाते हैं। एक सप्ताह बाद भगवान को वापस जगन्नाथ मंदिर लाया जाता है। भगवान के रथ को खींचना शुभ माना जाता है। एक प्रचलित मान्यता के अनुसार भगवान के रथ को खींचने से भक्त जन्म-मरण के चक्र से छूट जाते हैं एवं उनकी चेतना उच्चतम स्तरों तक पहुंचती है। इस प्रकार, देवताओं की यात्रा उनके अनुयायियों के लिए आध्यात्मिक यात्रा में परिवर्तित हो जाती है।

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    (सौजन्य -   https://mapacademy.io