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    'I am not a Feminist', ऐसा कहने वाले लोग जानते ही नहीं फेमिनिज्म का असल मतलब; क्या लड़कों को भी फेमिनिस्ट होना चाहिए?

    Updated: Sun, 11 May 2025 02:58 PM (IST)

    फेमिनिज्म का असल मतलब बराबरी है। यह सिर्फ महिलाओं के अधिकारों के लिए नहीं बल्कि सभी जेंडर्स के लिए समानता की लड़ाई है। फेमिनिज़्म का उद्देश्य पुरुषों के खिलाफ नहीं बल्कि उन प्रणालियों और सोचों को चुनौती देना है जो किसी को उसके लिंग के कारण कमतर मानती हैं। यह आंदोलन सभी को समान अवसर और सम्मान देने की बात करता है चाहे वह महिला पुरुष या ट्रांसजेंडर हो।

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    कई लोग नहीं जानते फेमिनिज्म का असल मतलब - जागरण ग्राफिक्स।

    आयशा शेख़ सिद्दिकी, नई दिल्ली। “मैं फेमिनिस्ट नहीं हूं।” जब भी कोई ये कहता है, तो मुझे दो बातें समझ में आती हैं...

    या तो उसे फेमिनिस्ट शब्द से डर लगता है,

    या फिर उसने कभी उसका सही मतलब समझा ही नहीं।

    और शायद, इसमें उसकी गलती भी नहीं।

    क्योंकि हमने खुद इस शब्द के चारों तरफ इतना शोर, भ्रम और लैबल बुन दिए हैं कि इसकी सादगी कहीं खो गई है।

    लेकिन अगर मैं आपसे कहूं कि फेमिनिज्म का असल मतलब बस इतना है - "बराबरी"। न ज़्यादा, न कम।

    तब?

    क्या अब भी आप कहेंगे - “मैं फेमिनिस्ट नहीं हूं”?

    चलिए, इस भ्रम को आज सुलझाते हैं। तर्क से, उदाहरण से और आपके अपने अनुभव से।

    फेमिनिज्म क्या है और क्या नहीं है?

    फेमिनिज्म का मतलब सिर्फ औरतों को ऊपर उठाना नहीं है, बल्कि हर उस सोच, सिस्टम और व्यवहार को चुनौती देना है जो किसी को भी उनकी पहचान की वजह से कमतर मानता है। ये लड़ाई ‘पुरुष बनाम स्त्री’ की नहीं है, ये लड़ाई "बराबरी बनाम भेदभाव" की है। फेमिनिज्म का मतलब है कि कोई किसी से कमतर नहीं है - सिर्फ जेंडर की वजह से।

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    अगर आप सोचते हैं कि फेमिनिज्म पुरुषों के खिलाफ है, तो आप शायद इसकी किताब का पहला पन्ना भी नहीं पढ़े। आज सोशल मीडिया पर फेमिनिज्म का नाम आते ही कुछ लोग ‘मर्दों के खिलाफ एजेंडा’, कुछ इसे ‘ओवर रिएक्शन’ और कुछ इसे बस ‘बिकने वाला टॉपिक’ मानते हैं, लेकिन क्या आपने कभी रुककर इसका असल मतलब खोजा है?

    फेमिनिज्म का मतलब है - हर जेंडर को बराबर समझना… उन्हें वो अवसर देना जो किसी के लिंग के कारण नहीं छिनना चाहिए। ये सोच सिर्फ महिलाओं की नहीं है। ये सोच हर उस इंसान की है जो मानता है कि किसी को सिर्फ इसलिए कमतर समझना क्योंकि वो लड़की है या ट्रांसजेंडर है या पुरुष है, ये गलत है। फेमिनिज्म वो लेंस है जिससे हम समाज की भेदभाव भरी धुंध को साफ करते हैं।

    (Feminism is not about hating men. It's about questioning systems that prefer men automatically.)

    नारीवाद का मतलब पुरुषों से नफरत करना नहीं है। इसका मतलब है उन प्रणालियों पर सवाल उठाना जो पुरुषों को प्राथमिकता देती हैं।

    क्या लड़कों को भी फेमिनिस्ट होना चाहिए?

    सवाल सीधा है - क्या आपको बराबरी पसंद है?

    अगर हां, तो आप भी फेमिनिस्ट हैं।

    फेमिनिज्म LGBTQIA+ लोगों के हक में भी है। फेमिनिज्म पुरुषों को भी टॉक्सिक एक्सपेक्टेशंस से आज़ाद करता है। फेमिनिज्म कहता है कि लड़के ही सिर्फ घर को आर्थिक रूप से नहीं चलाएंगे। जिस तरह से महिलाओं को किचन में बांध दिया गया, उसी तरह से पुरुषों को भी ‘मर्द बनो’, ‘रोओ मत’, ‘कमज़ोर मत दिखो’ जैसे भावों के बक्सों में बंद किया गया है।

    एक फेमिनिस्ट समाज लड़कों को ये कहने की आज़ादी देता है कि ‘मैं थक गया हूं, मुझे मदद चाहिए’, बिना उनकी मर्दानगी पर सवाल उठे। फेमिनिज्म कहता है कि घर को आर्थिक रूप से चलाने की जिम्मेदारी सिर्फ मर्दों की नहीं होती। और सबसे जरूरी बात… अगर हम समाज को सिर्फ एक जेंडर के हिसाब से डिजाइन करेंगे, तो किसी को भी आजादी पूरी नहीं मिलेगी। बराबरी सभी के लिए जरूरी है।

    क्यों जरूरी है पुरुषों के लिए भी फेमिनिज्म?

    तुम्हारे दादाजी की मौत हुई हो, दिल टूटा हो, तुम थक चुके हो, लेकिन फिर भी लोग कहेंगे: ‘क्या लड़की जैसे रो रहा है?’

    फेमिनिज्म कहता है: रोना इंसानी हक है, जेंडर स्पेसिफिक नहीं।

    महिलाएं मातृत्व अवकाश (maternity leave) लेती हैं, लेकिन पिताओं को पितृत्व अवकाश (paternity leave) मांगने पर निकम्मा समझा जाता है।

    फेमिनिज्म कहता है: बच्चा दोनों का है - केयर पुरुष भी करते हैं।

    अगर एक लड़का कहे कि वो फैशन डिजाइनर या नर्स बनना चाहता है, तो समाज ताना मारता है - ‘ये तो लड़कीवाले काम हैं!’

    फेमिनिज्म कहता है: Passion का कोई जेंडर नहीं होता।

    फेमिनिज्म सभी जेंडर्स को आजाद करता है, उनको असली जिंदगी जीने की छूट देता है।

    अब अगर आप मानते हैं कि:

    • लड़कों को भी अपने भावों को व्यक्त करने की इजाजत होनी चाहिए।
    • औरतें सीईओ बन सकती हैं।
    • कोई भी पहनावे या पसंद के लिए जज न हो।

    तो बधाई हो, आप फेमिनिस्ट हैं - चाहे आप खुद को कहें या न कहें।

    लोग फेमिनिज्म से डरते क्यों हैं?

    फेमिनिज्म को लेकर समाज में कई मिथक फैले हुए हैं। कई लोग फेमिनिज्म को मानते हैं, पर उसके लेबल से डरते हैं। प्यू रिसर्च सेंटर के अनुसार, भारत में 87% लोग लैंगिक समानता (gender equality) के पक्ष में थे, लेकिन सिर्फ 39% खुद को फेमिनिस्ट मानते हैं।

    हमने ‘फेमिनिज्म’ को गलत चेहरों से जोड़ दिया है। कभी मीडिया में ‘मर्दों से नफरत करने वाली फेमिनिस्ट’, कभी ‘बिना लॉजिक चिल्लाने वाली लड़की’ - इस तरह के चरित्र फेमिनिज्म की सच्ची आत्मा को कुचलते हैं, लेकिन क्या आप जानते हैं? ज्यादातर फेमिनिस्ट - चाहे वो महिलाएं हों या पुरुष, बिलकुल आम लोग होते हैं, जो ऑफिस में, घर में या स्कूल में बस एक चीज़ चाहते हैं - सम्मान और समानता।

    फेमिनिज्म को लेकर 5 आम मिथक (गलतफहमियां)

    1. मिथक: ‘फेमिनिस्ट मर्दों से नफरत करते हैं’

    सच्चाई: फेमिनिज्म पुरुषों से नहीं, पितृसत्तात्मक सोच से लड़ता है, उस सोच से जो महिलाओं, पुरुषों और अन्य सभी जेंडर्स को सीमाओं में बांधती है। एक सच्चा फेमिनिस्ट बराबरी चाहता है, न कि बदला।

    2. मिथक: ‘फेमिनिस्ट बहुत आक्रामक और चिल्लाने वाले होते हैं’

    सच्चाई: जब किसी की आवाज बार-बार दबाई जाती है, तो उसका मुखर (assertive) होना जरूरी हो जाता है। आक्रामकता और अधिकार की मांग करना अलग-अलग चीजें हैं।

    3. मिथक: ‘फेमिनिज्म सिर्फ महिलाओं के लिए होता है’

    सच्चाई: फेमिनिज्म सभी जेंडर्स के लिए है, महिलाएं, पुरुष, ट्रांसजेंडर। यह सोच है कि सभी को बराबरी के अवसर और सम्मान मिलना चाहिए, चाहे उनका लिंग या लैंगिक पहचान कुछ भी हो।

    4. मिथक: ‘फेमिनिस्ट परिवार और रिश्तों के खिलाफ होते हैं’

    सच्चाई: फेमिनिज्म परिवार और रिश्तों के खिलाफ नहीं है, बल्कि उन रिश्तों में भी बराबरी की बात करता है। यह कहता है कि घरेलू जिम्मेदारियां और फैसले जेंडर के आधार पर नहीं, समझदारी और साझेदारी से तय होने चाहिए।

    5. मिथक: ‘अब तो सब बराबर है, फेमिनिज्म की ज़रूरत नहीं’

    सच्चाई: अगर वाकई सब बराबर होता, तो बेटी पैदा होने पर मिठाई कम और चिंता ज़्यादा क्यों होती? कानून में हक होना और जमीनी सच्चाई में बराबरी मिलना, दो अलग बातें हैं। आज भी महिलाओं को समान वेतन, सुरक्षा और निर्णय लेने के अधिकार में कई बाधाओं का सामना करना पड़ता है। इसलिए फेमिनिज्म की जरूरत आज भी उतनी ही है।

    कुछ लोग फेमिनिज्म को आज के समाज के लिए ज़रूरी नहीं मानते…

    “मेरे हिसाब से ‘फेमिनिज्म’ शब्द की मौजूदगी ही भेदभाव को जन्म देती है। अगर मुद्दा नर–नारी में समानता का है, तो हमें याद रखना चाहिए कि भारत एक ऐसा देश रहा है जहां प्राचीन काल से ही स्त्रियों को सम्मान मिला है, देवी रूप में पूजा तक की जाती है।

    हां, पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव में समाज बदला है और इसमें रहने वाले नर-नारी भी। तो इस हिसाब से किसी को कम या ज्यादा कहना मुश्किल होगा। ऐसे में, मैं व्यक्तिगत रूप से नारीवाद को चर्चा का कोई विशेष विषय नहीं मानता, क्योंकि इससे समाज में नया भेदभाव भी पैदा हो सकता है।” - एक उत्तरदाता (कॉरपोरेट प्रोफेशनल)

    [कुछ लोगों का नजरिया दिखाता है कि समाज में आज भी कुछ लोग फेमिनिज्म को जरूरत से ज़्यादा विभाजनकारी मानते हैं।]

    आज भी फेमिनिज्म की जरूरत क्यों है?

    आज भी फेमिनिज्म की जरूरत है क्योंकि बराबरी का सपना अब भी हकीकत नहीं बना है। कानूनों में भले अधिकार मिल गए हों, लेकिन जमीन पर सोच, व्यवहार और अवसरों में आज भी भारी असमानता बनी हुई है।

    चलिए मैं लड़कों से एक सवाल पूछती हूं।

    अगर तुम्हें लगता है कि अब तो फेमिनिज्म की वजह से लड़कियों को काफी फायदा मिलता है तो क्या तुम अगले जन्म में लड़की बनना चाहोगे?

    बहुत से लड़के सोच में चले गए होंगे…

    या जवाब ‘न’ होगा।

    मगर यही सवाल जब लड़कियों से पूछा जाएगा

    ‘क्या तुम अगले जन्म में लड़का बनना चाहोगी?’ तो कई लड़कियां कहेंगी ‘हां’।

    क्यों? क्योंकि वो आज भी बराबर नहीं आ पाई हैं।

    वो बराबरी के लिए लड़ रहीं हैं।

    अब सुनिए एक लड़की की ज़ुबानी, जिसे बचपन से बराबरी के लिए लड़ना पड़ा…

    बचपन से ही मुझे नारीवाद की जरूरत महसूस होती रही है। जब लड़की होने की वजह से मेरी पढ़ाई पर ध्यान नहीं दिया गया, जब कविता सुना पा रही हूं या नहीं इससे कोई फर्क नहीं पड़ा। भाई को चिकन, अंडा खिलाया गया लेकिन मुझे नहीं क्योंकि बड़े होकर हिंदू धर्म का कल्चर मुझे ही तो आगे लेकर जाना था। जब मेरे ज्यादा पढ़ने पर कहा गया कि पढ़ाई-लिखाई तो ठीक है लेकिन लड़की को घर का काम भी तो सिखाओ।

    जब मेरे करियर को गंभीरता से नहीं लिया गया। जब स्कूल में मेल टीचर्स की क्लास में जाने से पहले मुझसे दुपट्टा ठीक करने के लिए कहा गया। जब दफ्तर में मेरे बोलने पर मुझे वोलाटाइल कहा गया लेकिन मेरे समकक्ष लड़कों की अनुशासनहीनता को खुली बांहों से स्वीकार किया गया। जब मेरी रिश्तेदार को लड़की पैदा करने पर तलाक दे दिया गया। जब उसे भाई ने घर में कैद कर दिया। जब शादी के बाजार में मुझे एक सामान की तरह पेश करने के लिए मेरा डिस्क्रिप्शन यानी बायो डाटा बनाया गया। - उत्कर्षा (कॉरपोरेट प्रोफेशनल)

    [टिप्पणी: उत्कर्षा की बातों से पता चलता है कि फेमिनिज्म सिर्फ सैद्धांतिक विचार नहीं, बल्कि असल जीवन की जरूरत है- वो जरूरत जो हर रोज महसूस होती है।]

    और अब कुछ सवाल मैं लड़कों से और पूछती हूं…

    क्या तुमने कभी अपने आंसू रोक लिए क्योंकि डर था कि लोग कहेंगे - ‘कमज़ोर है’?

    क्या कभी अपने मन का पेशा नहीं चुना क्योंकि कहा गया - ‘ये तो औरतों वाला काम है’?

    क्या कभी घर पर रहना चाहा, लेकिन बोला गया – ‘नौकरी छोड़ दी? मर्द हो या निकम्मा?’

    अब तो तुम समझ सकते हो कि बराबरी की ये लड़ाई सिर्फ औरतों की नहीं है। ये तुम्हारी भी है। जब एक ट्रांस व्यक्ति को नौकरी नहीं मिलती सिर्फ उनकी पहचान की वजह से और जब एक पुरुष घर रहे तो उसे “कमज़ोर” समझा जाता है फेमिनिज्म सबको रूढ़िवादिता (stereotypes) से आजादी देता है, इसलिए सबके लिए जरूरी है।

    कानून में बराबरी, व्यवहार में नहीं

    संविधान ने महिलाओं को बराबरी का अधिकार दिया, लेकिन क्या हर लड़की बिना डर स्कूल या बाजार जाती है? क्या वो सुरक्षित महसूस करती है? क्या शादी के बाद के फैसलों में हर महिला की उतनी ही आवाज होती है जितनी पुरुष की? फेमिनिज्म आज भी जरूरी है, क्योंकि “समान अधिकार” सिर्फ कागज़ों में काफी नहीं।

    • भारत में सिर्फ ज्यादातक महिलाएं घर पर ही रहती हैं, कामकाजी नहीं हैं। वे आर्थिक जरूरतों के लिए अपने पति पर निर्भर हैं।
    • हर 15 मिनट में एक महिला घरेलू हिंसा का शिकार होती है।
    • महिलाओं के खिलाफ साइबर क्राइम, एसिड अटैक, दहेज हत्या जैसे मामले अब भी आम हैं।

    इसे 'equalism' या 'humanism' क्यों नहीं कहा जाता?

    "अगर ये लड़कों की भी लड़ाई है, तो इसका नाम 'नारीवाद' या 'feminism' क्यों है?"

    "क्यों नहीं इसे 'equalism' या 'humanism' कहा जाता?"

    इसका जवाब सीधा है -- नाम वहां से आया, जहां से संघर्ष शुरू हुआ।

    ‘फेमिनिज्म’ ही क्यों कहा गया?

    फेमिनिज्म कहा गया क्योंकि इतिहास में सबसे पहले जिनसे बराबरी छीनी गई थी, वो महिलाएं थीं। शिक्षा, मतदान, संपत्ति, नौकरी, बोलने का हक… इन मूलभूत अधिकारों के लिए सबसे पहले औरतों ने आवाज उठाई। इसलिए जब यह आंदोलन शुरू हुआ, तो इसका नाम भी वहीं से लिया गया, ‘Feminism’ यानी ‘नारी-केन्द्रित बराबरी की मांग’।

    शुरुआत कहां से हुई?

    18वीं-19वीं सदी में, यूरोप और अमेरिका में महिलाएं सिर्फ एक ‘पति की छाया’ मानी जाती थीं। वो वोट नहीं दे सकती थीं। शिक्षा नहीं पा सकती थीं। शादी के बाद उनकी संपत्ति, पैसा और शरीर, सब पति का हो जाता था तब पहली बार महिलाओं ने पूछा- “अगर हम इंसान हैं, तो हमारे पास भी अधिकार क्यों नहीं?”

    1837 में, एक फ्रांसीसी विचारक Charles Fourier ने सबसे पहले “féminisme” शब्द का इस्तेमाल किया। तब से ये शब्द उन विचारों और आंदोलनों का नाम बन गया, जो की बराबरी, आजादी और सम्मान की मांग करते थे।

    फेमिनिज्म की चार वेव्स

    पहली वेव (First Wave) - "हमें इंसान माना जाए" (1848–1920)

    19वीं सदी के मध्य में, जब महिलाएं सिर्फ ‘घर की रानी’ कहलाई जाती थीं, उस दौर में उन्होंने सबसे पहला सवाल उठाया - “हमें वोट देने का हक क्यों नहीं?” ये लड़ाई उस दौर में शुरू हुई, जब महिलाओं को इंसान जैसा भी नहीं समझा जाता था। न उन्हें वोट देने का हक था, न अपनी संपत्ति रखने का, न शादी से बाहर कोई आज़ादी।

    औरतों ने पहली बार ये पूछा:

    “अगर हम सांस लेते हैं, सोच सकते हैं, तो हमें वोट देने का अधिकार क्यों नहीं है?”

    इस लहर में क्या हुआ?

    • अमेरिका और ब्रिटेन में महिलाओं ने वोटिंग राइट्स के लिए आंदोलन किए।
    • 1920 में अमेरिका में महिलाओं को वोट देने का अधिकार मिला।
    • भारत में सावित्रीबाई फुले ने लड़कियों का पहला स्कूल खोला।

    दूसरी वेव (Second Wave) - "हमें बराबरी चाहिए, घर और बाहर दोनों में" (1960s–1980s)

    अब औरतें वोट तो देने लगी थीं, लेकिन क्या उन्हें नौकरी, सैलरी, रिस्पेक्ट मिली? नहीं। उन्हें अब भी घर संभालने, पति की सेवा करने वाली समझा जाता था। दूसरी लहर फेमिनिज़म ने केवल कानूनी अधिकारों से आगे बढ़कर सामाजिक और सांस्कृतिक समानता की मांग की। इस लहर की शुरुआत 1963 में बेट्टी फ्राइडन की पुस्तक "द फेमिनिन मिस्टिक" से मानी जाती है, जिसने घरेलू महिलाओं की असंतुष्टि को उजागर किया।

    औरतों ने अब पूछा:

    “सिर्फ बच्चा पैदा करने वाली मशीन ही हैं हम? हमारी खुद की कोई पहचान नहीं?”

    इस लहर में क्या हुआ?

    • समान वेतन की मांग की गई। इसके बाद Equal Pay Act आया, लेकिन gender pay gap आज भी बना है।
    • घरेलू हिंसा और वैवाहिक बलात्कार (marital rape) के खिलाफ कानून बना।
    • इस लहर में दोनों जेंडर की बराबरी की बात की गई।
    • भारत में महिला पत्रकार, लेखिका और कॉलेज प्रोफेसर उभरने लगीं।

    तीसरी वेव (Third Wave) – "हर औरत की कहानी अलग है" (1990s–2010)

    अब आवाज़ें और गहरी हो गईं। इस लहर में हर जेंडर, हर बैकग्राउंड की बराबरी की गई, सिर्फ सफेद महिलाओं की नहीं। तीसरी लहर फेमिनिज़म ने विविधता, पहचान और इंटरसेक्शनैलिटी पर ध्यान केंद्रित किया। इस लहर की शुरुआत 1992 में रेबेका वॉकर के लेख "Becoming the Third Wave" से मानी जाती है।

    औरतों ने कहा:

    “हर औरत की एक ही कहानी नहीं है।

    एक गोरी अमीर औरत की ज़िंदगी अलग है,

    एक दलित या काली लड़की की ज़िंदगी और।”

    इस लहर ने क्या बदला:

    • जाति, रंग, लैंगिकता (gender identity) को फेमिनिज्म में शामिल किया गया।
    • LGBTQ+ और ट्रांसजेंडर अधिकारों पर बात शुरू हुई।

    चौथी वेव (Fourth Wave) – "अब चुप नहीं रहेंगे" (2012–अब तक)

    अब सोशल मीडिया आ गया और फेमिनिज्म की आवाज हर फोन में गूंजने लगी। इस वेव में हर जेंडर को डिजिटल और असल दुनिया में सुरक्षित और बराबर बनाने की बात हुई। इस लहर में इंटरसेक्शनैलिटी, ट्रांस अधिकार, मानसिक स्वास्थ्य, और ऑनलाइन उत्पीड़न जैसे मुद्दों पर भी ध्यान केंद्रित किया गया है।

    अब महिलाएं बोलने लगीं:

    “MeToo।”

    “हां, मेरे साथ भी ऐसा हुआ था।”

    “सहमति यानी ‘हां’, न कि चुप्पी।”

    “Troll मत करो, हम इंसान हैं।”

    इस लहर की ताकत:

    • सोशल मीडिया पर #MeToo जैसे आंदोलन
    • Consent (सहमति) पर खुली बात
    • ट्रांस और नॉन-बाइनरी लोगों के अधिकार
    • साइबरबुलिंग, मानसिक स्वास्थ्य, ऑनलाइन सेफ्टी

    भारत में फेमिनिजम

    भारत में फेमिनिजम की यात्रा पश्चिमी दुनिया से अलग रही है। यहां सावित्रीबाई फुले ने 1848 में लड़कियों के लिए पहला स्कूल खोलकर शिक्षा के क्षेत्र में क्रांति ला दी। पंडिता रमाबाई, कमला भसीन और महादेवी वर्मा जैसी महिलाओं ने सामाजिक सुधारों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

    भारत में फेमिनिजम ने जाति, वर्ग और धर्म के आधार पर महिलाओं के अनुभवों को भी शामिल किया है, जिससे दलित फेमिनिजम, मुस्लिम फेमिनिजम और आदिवासी महिलाओं के अधिकारों के लिए आंदोलन उभरे हैं। इस बारे में भी काफी लंबी बातचीत हो सकती है, लेकिन अभी हमारा टॉपिक सिर्फ फेमिनिज्म है।

    तो क्या Equalism या Humanism बेहतर नाम नहीं होता?

    शब्दों में सच्चाई नहीं, संघर्ष की दिशा होती है। “Humanism” में बराबरी तो है, लेकिन जेंडर आधारित असमानता पर फोकस नहीं। “Equalism” एक सैद्धांतिक टर्म हो सकता है, लेकिन इसमें पितृसत्ता को चुनौती देने वाली धार नहीं है। Feminism एक नाम नहीं, एक चुनौती है, उस सोच के खिलाफ जिसने औरत को “कम” और मर्द को “कमजोरीरहित” बना दिया।

    Feminism का नाम भले “female” से जुड़ा हो, लेकिन इसका दिल और दायरा सभी के लिए खुला है, चाहे वो महिला हो, पुरुष हो, ट्रांस हो, या कोई और। ये सिर्फ नारी का आंदोलन नहीं, बराबरी का आंदोलन है।

    फेमिनिज्म तब तक ज़रूरी है, जब तक हर इंसान को अपने सपने पूरे करने की आज़ादी न मिले, जेंडर के आधार पर सम्मान, सुरक्षा, और अवसरों में भेदभाव होता रहे और लड़कियां बिना “डर” और लड़के बिना “दबाव” के न जी सकें। फेमिनिज्म सिर्फ बदलाव की मांग नहीं, बदलाव की प्रक्रिया है और वो अभी अधूरी है।

    अब अगली बार जब कोई कहे - "मैं feminist नहीं हूं..."

    तो हो सकता है आप मुस्कुराकर पूछें:

    "क्या आपने इसका मतलब कभी सही से जाना?"

    Source:

    Ipsos - Millennials and Gen Z less in favor of gender equality than older generations

    Ipsos - FEMINISM AND GENDER EQUALITY AROUND THE WORLD

    Pew Survey

    https://www.womenshistory.org