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    नई पीढ़ी को समझना क्यों बन रहा है माता-पिता के लिए पहेली? यहां पढ़ें बच्चों की परवरिश का मूलमंत्र

    By Aarti TiwariEdited By: Nikhil Pawar
    Updated: Mon, 08 Dec 2025 02:32 PM (IST)

    पहले बच्चे जिद करते थे या बाल सुलभ नाराजगी के बाद सहज हो जाते थे, आज छह-आठ साल के बच्चों के संवाद और नाराजगी टीनएजर से कम नहीं। बचपन से एक कदम आगे और ...और पढ़ें

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    क्या आपका बच्चा भी उम्र से पहले बड़ा हो रहा है? (Image Source: AI-Generated)

    आरती तिवारी, नई दिल्ली। नई पीढ़ी के बच्चों को समझना आसान नहीं। उनकी उम्र भले ही छह साल है, मगर उनका व्यवहार, बातें और प्रतिक्रियाएं किशोर जैसी होती हैं। उनकी समझ जिस तेजी से आगे बढ़ रही है, ऐसे में समझ नहीं आता कि बच्चे को बच्चा मानें या किशोर! जब वह किसी बात का विरोध करते हैं तो छह साल के बच्चे की प्रतिक्रिया किशोर जैसी होती है। ऐसे में उसे समझा पाना भी आसान नहीं होता, जो माता-पिता के लिए बनता जा रहा है चैलेंजिंग।

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    भागती दुनिया के साथी

    दरअसल, इसमें कहीं न कहीं योगदान तेजी से भागती-बदलती तकनीक और दुनिया का भी है। बच्चे की दुनिया भी उसी तेजी से घूम रही है। जो तकनीक या अनुभव पिछली पीढ़ी को 15-16 साल की अवस्था में मिलते थे, आज वह 9-10 साल की अवस्था के बच्चे ही अनुभव कर रहे हैं। परिणामस्वरूप, उनका दिमाग तेजी से विकसित हो रहा है। सोशल एक्सपोजर बदल रहे हैं। माहौल में इतना झटपट परिवर्तन उनके सोशल अवेयरनेस को भी बढ़ा रहा है। वो बहुत कम उम्र में आत्मनिर्भर होते जा रहे हैं। बाहरी दुनिया के साथ सामंजस्य बिठाने के चलते उन्हें कम उम्र में ही कई तरह की भावनाओं के अनुभव मिल रहे हैं, जो जाहिर तौर पर उनकी उम्र के हिसाब से प्रतिक्रिया देने के मामले में जटिल हैं। इसमें प्यूबर्टी का कम उम्र में आना उतना बड़ा कारक नहीं है, मगर हां, इसमें भी कोई संदेह नहीं कि शारीरिक बदलाव कम उम्र में होने शुरू हो जाते हैं, जो उनकी भावनात्मक प्रतिक्रिया की उथल-पुथल को प्रभावित करता है।

    Challenges Parents Face in Understanding the New Generation

    (Image Source: AI-Generated)

    व्यवहार से ज्यादा भावनाओं को दें महत्व

    पैरेंट्स के लिए सबसे जरूरी यह है कि इस बात का ध्यान रखें कि वो किसी वयस्क से नहीं बल्कि बच्चे के साथ ही डील कर रहे हैं। बच्चे की प्रतिक्रिया के साथ धैर्य बरतें। अपनी भावनाओं पर काबू पाएं। आप जो बच्चों से उम्मीद कर रहे हैं, पहले वह खुद करना होगा। उसकी भावनाओं को स्वीकार करें और विश्वास दिलाएं कि आप समझते हैं कि उसको किसी बात का बुरा लगा रहा है। व्यवहार को नहीं बल्कि भावनाओं को स्वीकार करें। उदाहरण के लिए –‘हम जानते हैं कि तुम्हें बुरा लग रहा है, लेकिन उसका यह कतई अर्थ नहीं कि किसी को मारो या चीजें उठाकर फेंको।’ उनको भावनाओं, दुविधाओं को सही तरीके से प्रकट करने और दूर करने के बारे में बताएं। इसके लिए गुस्सा आने पर उल्टी गिनती करना या तीन बार गहरी सांस लेने जैसे तरीके भी बोल सकते हैं। उसे यह भी बताएं कि जब वो कोई बात कहना चाहता है तो उसका सही तरीका क्या होगा। अपनी इसी आदत को निरंतर रखें।

    विश्वास की चारदीवारी

    घर और माता-पिता बच्चे के लिए वो आवरण होते हैं, जहां उसे सुरक्षित महसूस होना चाहिए। बच्चे के साथ खेलें, उसके साथ बातें करें, ड्राइंग करें, ताकि बच्चा आपके साथ खुले। उसे छोटे-छोटे निर्णय लेने के लिए कहें, गलत होने पर उसका तरीका बताएं, न कि खुद ही कर दें। ऐसे में वह किसी काम को पूरा करने के दौरान आने वाली बाधाओं और उनमें सफलता पाने के बारे में धैर्य और इंतजार के बाद मिलने वाले परिणाम का सुखद अनुभव करता है। बच्चों को उनका स्पेस तो दें मगर स्पष्ट सीमाएं तय करें। दिनचर्या भी तय रखें। सबसे बड़ी बात है कि बच्चों को यह बताएं कि अगर कोई परेशानी आ रही है तो सबसे पहले माता-पिता के पास आकर अपनी बातें जाहिर करना है।

    समझें उनकी भावनाओं को

    आज भी गाहे-बगाहे लोग कह देते हैं कि ‘बच्चों को किस बात का तनाव!’ जबकि ऐसा नहीं है। बच्चों को तो भावनाओं की समझ ही नहीं होती, ऐसे में उन पर भावनात्मक दबाव ज्यादा होता है। इसमें गुस्सा, रोना, चिड़चिड़ाहट, छोटी सी बात पर बहुत ज्यादा प्रतिक्रिया देना या कभी-कभी इनके विपरीत अपने में ही सिमट जाना, लोगों से दूरी बना लेना भी होता है। कई बार बच्चे पेट दर्द, शरीर दर्द, नींद न आना, भूख में बदलाव, खेल-कूद में मन न लगना जैसे लक्षण प्रकट करते हैं। अगर आप देखें कि आपके बार-बार समझाने या पीडियाट्रिशन को दिखाने के बाद भी बच्चे के इन लक्षणों में परिवर्तन नहीं आ रहा है या ये उनकी दिनचर्या को प्रभावित करने लगे तो आप प्रोफेशनल मदद ले सकते हैं।

    ऐसे करें शुरुआत

    • बच्चों को प्राब्लम साल्विंग टेक्नीक सिखाएं, बच्चे के सामने हाइपोथेटिकल परिदृश्य रखें और फिर उससे निपटने के बारे में पूछें और सही तरीका बताएं।
    • बच्चे की भावनाओं को नकारने की बजाय स्वीकारें और फिर उससे निपटने के लिए तरीका बताएं।
    • सबसे पहले माता-पिता अपनी भावनाओं को नियंत्रित रखना सीखें। बच्चे आस-पास से ही सीखते हैं।
    • बच्चे के साथ हमदर्दी रखें, लेकिन उन्हें इतना सक्षम भी बनाएं कि जब विपरीत परिस्थिति उनके सामने आए तो वो उससे जूझें, न कि हर बार वो भावनात्मक रूप से बिखर जाएं।
    • बच्चों को भावनाओं के बारे में सही से बताएं। जब वे आपसे किसी स्थिति के बारे में साझा करें तो उन्हें बताएं कि असल में वह दुखी है या यह चिड़चिड़ाहट है। जब वे खुद अपनी भावनाओं को समझते हैं तो उसे सही तरीके से व्यक्त करने और नियंत्रित करने के बारे में सीख पाते हैं।

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