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    रामराज्य का सार है सुराज और सुशासन, महात्मा गांधी के सपनों का रामराज्य भी था इसी से प्रेरित

    By Jagran NewsEdited By: Aarti Tiwari
    Updated: Sat, 22 Oct 2022 05:17 PM (IST)

    स्वाधीनता आंदोलन में जिस आदर्श का सबसे अधिक शब्द-प्रयोग हुआ वह है रामराज्य। वस्तुत रामराज्य की अवधारणा केवल स्वतंत्रता का राजनीतिक अर्थ प्रस्तुत नहीं करती अपितु यह मानव सभ्यता में एक ऐसे विशिष्ट राष्ट्र की कल्पना है जिसमें सभी नागरिक विधि सम्मत मर्यादा में रहकर धर्म का पालन करते हैं।

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    सामूहिक जीवन की कल्पना से युक्त है रामराज्य

     रजनीश कुमार शुक्ल।

    रामराज्य की विधि या धर्म सम्मत मर्यादा की अवधारणा केवल राजा या शासक के कर्तव्यों का विचार नहीं है अपितु एक ऐसी समग्र राज्य व्यवस्था की निर्मिति है जिसमें सामाजिक जीवन का प्रत्येक कोना धर्म के चार चरणों- सत्य, सोच, दया और दान पर अवलंबित होता है। यह एक ऐसी चतुष्पाद व्यवस्था है जो राज्य और समाज के सभी आधारभूत घटकों को सच्ची श्रद्धा से ओत-प्रोत करते हुए सबकी स्वतंत्रता सुनिश्चित करती है। यह एक ऐसा ईश्वरीय राज्य है जो अकाल मृत्यु या अन्य सभी प्रकार की पीड़ा से मुक्त होगा। सभी सर्वत्र भद्र कल्याण देखेंगे। कोई दीन, दुखी, दरिद्र नहीं होगा। सभी शिक्षित, बोध संपन्न होंगे और सभी प्रकार की शुभता से युक्त होंगे।

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    सामूहिक जीवनशैली की विचारधारा

    श्रीराम के राज्य में कोई अप्रसन्न न था। प्रत्येक व्यक्ति को उसके श्रम और कर्म का उचित फल प्राप्त होता था। सबके साथ न्याय होता था। न्याय और धर्म की तुला पर राजा और रंक, शीर्ष और निम्नतल के आधार पर विशेषाधिकारों का भेद न था। गोस्वामी तुलसीदास ने रामराज्य में ऐसे जीवन की कल्पना की है, ऐसे सामूहिक जीवन की कल्पना की है, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति, नर-नारी अहंकार और दंभ से मुक्त हैं। सभी परिजनों को आदर देने वाले हैं। सभी में कृतज्ञता का भाव है। छल और कपट से मुक्त जीवन जीने वालों का समाज है।

    वस्तुत: रामराज्य की अवधारणा ऐसे सुशासन की कल्पना है, जिसमें सबको योग्य बनने और योग्यता के अनुसार सब प्राप्त करने का अधिकार है। इसमें सर्वत्र पारदर्शिता है। किंतु समाज के अंतिम व्यक्ति के अभ्युत्थान की चिंता प्रमुख है। अब रामराज्य की इस कल्पना में कुछ चीजें महत्वपूर्ण होकर उभरती हैं। रामराज्य में शासन कैसा होगा? उसकी चारित्रिक विशिष्टताएं क्या होंगी? सबको न्याय प्राप्त हो सके, इसकी प्रणाली क्या होगी? समाज में सबकी समानता किस प्रकार से निर्मित होगी? सामाजिक जीवन के अंतिम स्थान पर खड़े व्यक्ति की आवाज, उसकी इच्छा, आकांक्षा किस प्रकार अभिव्यक्त होगी और सर्वोच्च तक सुनी जाएगी।

    महात्मा का स्वप्न

    महात्मा गांधी इस रामराज्य के स्वप्न को स्पष्ट करते हुए कहते हैं, ‘रामायण का प्राचीन आदर्श रामराज्य नि:संदेह सच्चे लोकतंत्र में से एक है। मेरे सपनों का रामराज्य राजा और निर्धन दोनों के समान अधिकारों को सुनिश्चित करता है। मैं जिस रामराज्य का वर्णन करता हूं, वह नैतिक अधिकार के आधार पर लोगों की संप्रभुता है। वस्तुत: रामराज्य का यह स्वप्न ज्ञात इतिहास में नहीं है। हर कालखंड में संपूर्ण राजा एवं प्रजा का स्वप्न रहा है। इस स्वप्न को चरितार्थ करता हुआ जो महान कालखंड भारतीय इतिहास में सदा सर्वदा स्पृहा का विषय रहा है, वह मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का राज्य है।’ दो अगस्त, 1934 को अमृत बाजार पत्रिका में प्रकाशित लेख में गांधी जी ने कहा था कि, ‘मेरे सपनों की रामायण, राजा और निर्धन दोनों के लिए समान अधिकार सुनिश्चित करती है।’

    फिर दो जनवरी, 1937 को ‘हरिजन’ में उन्होंने लिखा, ‘मैंने रामराज्य का वर्णन किया है, जो नैतिक अधिकार के आधार पर लोगों की संप्रभुता है।’ रामराज्य का लक्ष्य पाने के लिए महात्मा ने ट्रस्टीशिप के सिद्धांत को प्रतिपादित किया, जो सामाजिक लक्ष्यों को पाने के लिए पूंजीवाद के दान हेतु प्रयोग पर आधारित था। महात्मा गांधी ने कहा, ‘ट्रस्टीशिप का मेरा सिद्धांत अस्थायी नहीं है। इसमें कोई भी छल-कपट नहीं है। इसको दर्शन शास्त्र तथा धर्म की मंजूरी है।’

    लोकहित एवं मानवता का आधार

    गोस्वामी तुलसीदास ने रामराज्य की कल्पना करते हुए राजा के लिए कुछ गुणों का उल्लेख किया है। यथा- लोक वेद द्वारा विहित नीति पर चलना, धर्मशील होना, प्रजापालक होना, सज्जन एवं उदार होना, स्वभाव का दृढ़ होना, दानशील होना आदि। श्रीराम में आदर्श राजा के सभी गुण विद्यमान हैं। उनको अपनी प्रजा प्राणों से भी अधिक प्रिय है। प्रियजन, पुरजन, गुरुजन सबके प्रति राम का व्यवहार आदर्श एवं धर्म के अनुकूल है। ऐसे रामराज्य में विषमता टिक नहीं सकती और सभी प्रकार के दुखों से प्रजा को त्राण मिल जाता है। महात्मा गांधी ने जिस रामराज्य की कल्पना की है, उसका मूल आधार भी तुलसीदास जी की रामराज्य परिकल्पना ही है। निश्चय ही यह एक आदर्श शासन व्यवस्था है जिसका मूल आधार लोकहित एवं मानवतावाद है।

    उत्तर से दक्षिण को जोड़ते हैं भगवान

    आज दुनिया के सामने विविध प्रकार के संकट हैं। दुनिया एक-दूसरे की धरती और धन कब्जाने के लिए प्रयासरत है। कोई कह सकता है कि उसमें श्रीराम क्या करें? श्रीराम ने तो आदर्श स्थापित किए। श्रीराम तो वह हैं जो उत्तर से दक्षिण तक इस देश को जोड़ते हैं। जो अयोध्या से लेकर धनुषकोडी तक जन-जन को जोड़ते हैं। वे व्यक्ति के श्रेष्ठ आचरण को सामने रखकर जोड़ते हैं। वे स्वयं अनेकानेक कठिनाइयां धारण करते हैं, लेकिन देवी अहिल्या को मुक्त करते हैं। वे खुद सीता वियोग में दुखी हैं, करुण क्रंदन करते हैं, लेकिन माता शबरी के दुख को दूर कर उन्हें शांति देते हैं, आह्लाद देते हैं, सम्मान देते हैं। उन्हें वैसा ही सम्मान देते हैं, जैसा वे कौशल्या, सुमित्रा या कैकयी को देते हैं। ये श्रीराम वह हैं, जिन्हें अयोध्या की प्रजा और सेना नदी के किनारे तक छोड़ने आई है। उनसे भी श्रीराम अनुनय करते हैं। ये श्रीराम तो वह हैं जो अपने ही राज्य के केवट से अनुनय करते हैं कि नाव पर बैठाओ और उस पार ले जाओ। वे समाज के अंतिम सिरे पर खड़े व्यक्ति को अपने हृदय से लगा लेते हैं।

    सबके प्रति समर्पित श्रीराम

    रामराज्य में मनुष्य और प्रकृति सभी निजधर्म का पालन करते हैं। वे सभी कल्याण के लिए उदारचेता होकर त्याग करते हैं। उनमें संग्रह की प्रवृत्ति नहीं है। इसी प्रकार के रामराज्य की कल्पना हमारे यहां है, जिसमें एक राजा से अपेक्षित है कि वह प्रेम, सद्भावना, शांति और स्वशासन की स्थापना करे। एक राजा के रूप में जिस धर्म और मर्यादा की स्थापना भगवान श्रीराम करते हैं। महात्मा गांधी ने उसी भारत की कल्पना ‘हिंद स्वराज’ में की है। इसी स्वतंत्र भारत की स्थापना के लिए महात्मा गांधी ने संग्राम किया। उनके आयुध भी श्रीराम के जैसे ही थे। कोदंड धारी राम, असुर निकंदन राम, अहिंसा और करुणा का प्रतीक श्रीराम है, गिलहरी और खर-दूषण, मारीच, सूर्पणखा आदि को न्याय देने वाले न्यायी श्रीराम। इन सबके प्रति श्रीराम करुणामय हैं। जब रावण से युद्ध होता है और आसुरी सभ्यता से आए विभीषण को उस युद्ध में रावण की साज-सज्जा, उसके आयुध उसके रथ, उसकी गतिशीलता, उसकी तकनीकी को देखकर संशय उत्पन्न होता है। इसका कारण है कि विभीषण भी उसी भौतिकतावादी आसुरी सभ्यता का था। उसके मन में संशय हो जाता है कि-

    ‘रावनु रथी बिरथ रघुबीरा। देखि बिभीषन भयउ अधीरा।।

    अधिक प्रीति मन भा संदेहा। बंदि चरन कह सहित सनेहा।।

    तब श्रीराम उनका संशय दूर करते हैं। क्योंकि श्रीराम के लिए स्नेह, दया, सत्य, पवित्रता, मर्यादा, नैतिकता, करुणा, धर्म, साहस इत्यादि सद्गुण ही युद्ध के आयुध हैं। श्रीराम सिद्ध करते हैं कि युद्ध हौसलों व संकल्प से जीता जाता है, आयुध से नहीं।

    जनमानस की चेतना का अंतरण

    राममय भारत ने स्वतंत्र भारत में जितने युद्ध किए हैं, उसमें इसको चरितार्थ करके दिखाया है। ऐसे श्रीराम से मैं यही कामना करता हूं कि उनकी संतति, श्रीराम को आदर्श मानकर जननी, जन्मभूमि, जन्मभूमि के जन-मन में स्नेह का, सुख का, सौहार्द का, साहस का, सत्कर्म का, करुणासंबलित मूल्य का सृजन कर सके। इस दुनिया को श्रेष्ठतम जीवन मूल्यों के बोध के साथ नए सिरे से नई सभ्यता रचने, नई सभ्यता को बनाने की दृष्टि प्राप्त हो सके, इसलिए जन गण मन राम, जन-जन के राम, जननायक राम, गणराज्य के राजा राम, जन गण के नायक राम, मन मानस के आनंद और सुख हेतु राम, मन चेतना में, बुद्धि में, विद्या और आनंद की स्फूर्ति में श्रीराम आदर्श राजा हैं। वह रामराज्य का राजा केवल शासन नहीं करता, जनमानस की चेतना का अंतरण करता है। केवल प्रजा के कल्याण के लिए उत्तरदायी शासक नहीं होता है, अपितु वह जन-जन को धर्म व विधि के प्रति उत्तरदायी व्यक्ति के रूप में अंतरित करता है। वह अपने आचरण, निर्णय क्षमता और लोक कल्याण के क्रियाकलापों द्वारा शासक की अपेक्षा अपने को ऐसे नेता या आदर्श व्यक्ति के रूप में स्थापित करता है जो सरकार द्वारा चलने वाले शासन को अतिक्रांत करता हुआ जनगण की भावना को उत्प्रेरित करता है।

    बढ़ चला है नया भारत

    आज भारत नई करवट ले रहा है। सबको साथ लेकर चलता हुआ भारत, सर्वत्र बढ़ता हुआ भारत रामराज्य की नई कथा लिखने की दिशा में बढ़ चला है। रामराज्य एक परिभाषिक पद है। लोक कल्याण और लोकाराधन के लिए समर्पित शासक से रामराज्य प्रारंभ होता है और सगुण सकारात्मक तथा नैतिक भावना से पूर्णता को प्राप्त करता है। यह ऐसी आदर्श स्थिति है जिसमें कोई उपेक्षित, वंचित और तिरस्कृत नहीं होता, जिसमें अंतिम व्यक्ति की आवाज शीर्ष तक बिना किसी व्यवधान के पहुंचती और सुनी जाती है। यह व्यवस्था केवल रामायण और श्रीरामचरितमानस में कही गई व्यवस्था नहीं है। इसे भारत के इतिहास में अनेक कालखंडों में दोहराया गया है। इसके लिए मेगास्थनीज की इंडिका, फाह्यान द्वारा हर्षवर्धन के राज्य काल के वृत्तांत, समुद्रगुप्त और स्कंदगुप्त के शासन के पौराणिक आख्यान, ललितादित्य के महान शासन के राजतरंगिणी के आख्यान, छत्रपति शिवाजी के हिंदूपदपादशाही के सुशासन स्वराज के दस्तावेजों की ओर भी ध्यान देना होगा। इतिहास में विस्मृत इन कालखंडों का ध्यान रखते हुए हमें स्वबोध, स्वराज और सुराज की उस व्यवस्था का भी स्मरण करना होगा, जिसमें मैकाले को भी भारत में भिखारी नहीं दिखाई देता, निरक्षर नहीं दिखाई देता है।

    (लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति हैं)