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    कहानी: परिवर्तन

    By Pratibha Kumari Edited By:
    Updated: Mon, 03 Apr 2017 09:45 AM (IST)

    मेरी कहानी मेरा जागरण के तहत भारी संख्या में मिली पाठकों की कहानियां उनके सच्चे अनुभव बयान करती हैं। इस सप्ताह संपादक मंडल द्वारा चुनी गई श्रेष्ठ कहान ...और पढ़ें

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    कहानी: परिवर्तन

    क्लास में विज्ञान विषय में मेरे हमेशा सर्वाधिक अंक आते थे। इसीलिए मैं विज्ञान की अध्यापिका की बहुत चहेती थी। एक दिन उन्होंने मुझसे गाना गाने की फरमाइश कर डाली। मुझे साहित्य से लगाव था लेकिन गीत-संगीत से कोई वास्ता नहीं था। मेरे मना करने के बाद भी जब वे शिक्षिका नहीं मानी तो मैं एक सांस में कुछ गुनगुनाकर अपनी सीट में बैठ गई। मेरे इस व्यवहार से पूरे क्लास में ठहाके गूंज उठे। उस दिन मैंने अपने को बहुत अपमानित महसूस किया। इसी झुंझलाहट में मैंने उसी समय तय किया कि अब मुझे भी संगीत सीखना है। मुझे संगीत सीखने का ऐसा जुनून चढ़ा कि मैंने ग्रेजुएशन में एक विषय के रूप में शास्त्रीय गायन का चुनाव कर लिया। शायद यह मेरे जीवन का परिवर्तन था।

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    मेरे इस निर्णय का खूब मजाक बनाया गया। हां, मां और पापा जरूर मेरा हौसला बढ़ा रहे थे। जब मैं पहले दिन कॉलेज पहुंची तो संगीत अध्यापिका ने चुटकी लेते हुए कहा कि संगीत स्वरों का विषय है, विज्ञान और संगीत में बहुत फर्क है। यह एक साधना है, जिसकी शुरुआत इस उम्र में नहीं होती है। मैं तो संगीत में दाखिला लेकर चुनौती स्वीकार कर ही चुकी थी। अब मैं मन लगाकर संगीत सीखने लगी। मेरी लगन को देखते हुए पिताजी ने मुझे एक
    योग्य संगीत शिक्षक की क्लास ज्वॉइन करा दी। मेरी लगन को देखते हुए गुरुजी भी बहुत मेहनत से पढ़ाते थे।मुझे हर हाल में संगीत सीखना था, इसलिए कॉलेज, गुरुजी की क्लास और फिर घंटों घर में रियाज करने का सिलसिला जारी था। कुछ महीनों में मैंने हारमोनियम पर सरगम निकालने से लेकर कोर्स के समस्त रागों को सीख लिया। प्रथम वर्ष का परिणाम आया तो मेरे सहपाठियों से लेकर संगीत की शिक्षिकाएं तक अचंभित थीं लेकिन दुर्भाग्य से द्वितीय वर्ष में मेरे पापा का स्थानांतरण दूसरे शहर में हो गया। वहां के कॉलेज में भी मुझे द्वितीय वर्ष की संगीत-अध्यापिका की बेरुखी का सामना करना पड़ा।

    हालांकि मुझे गायन के क्षेत्र में कदम रखे पूरा एक वर्ष बीत चुका था पर जैसे ही उन्हें ज्ञात हुआ कि इस विषय में पहले से मुझे कुछ भी ज्ञान नहीं है तो वे भी फब्तियां कसने लगीं। वो मुझे बात-बात पर ताने मारती थीं। कहीं मेरा मनोबल खंडित न हो जाए, इसलिए पिताजी ने मेरे पूर्व गुरुजी से आग्रह कर लिया कि वे सुविधानुसार मेरे घर आकर संगीत सिखा दें। अब गुरुजी मुझे सिखाने के लिए सफर तय करके सप्ताह में दो या तीन दिन आने लगे और इस तरह मेरी संगीतशिक्षा अनवरत जारी रही। फाइनल ईयर में मैंने संगीत की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। मेरे परीक्षा परिणाम से परिवार व गुरुजी के साथ ही वे शिक्षिका भी आश्चर्यचकित थीं, जो मेरा मनोबल बढ़ाने के बजाय उपहास उड़ाती थीं। कहानी के माध्यम से मैं कहना चाहती हूं कि अगर दृढ़इच्छाशक्ति है तो मुश्किल कुछ भी नहीं और हर क्षेत्र में सफलता जरूर मिलती है।

    बीना खण्डेलवाल, गुरुग्राम (हरियाणा) 

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