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    ऊर्जा का समग्र व ऊर्ध्व रूप हैं मां दुर्गा, जिनके सामने नहीं टिक पातीं आसुरी शक्तियां

    By Vivek BhatnagarEdited By:
    Updated: Mon, 19 Sep 2022 05:27 PM (IST)

    दुर्गा मां में जहां करुणा और पोषण संबंधी मातृत्व की भावना का चरम है वहीं विनाश करने की शक्ति भी। नवदुर्गा मूलत मां दुर्गा के ही विभिन्न रूप हैं और इन विभिन्न रूपों को हम ऊर्जा की भिन्न -भिन्न अवधारणाएं कह सकते हैं...

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    जीवन की निरंतरता नारी के कारण है, यह जानकर नारी-शक्ति के रूप में देवी की कल्पना की जाने लगी।

     डा. विजय अग्रवाल। विश्व में नारी एवं नारी-शक्ति के प्रति जो अवधारणा बनाई गई है, उसके केंद्र में जैविक तथा समाजशास्त्रीय दृष्टि प्रमुख रही है। लेकिन भारतीय दर्शन में नारी-शक्ति के प्रति अवधारणा के केंद्र में प्राकृतिक एवं आध्यात्मिक सिद्धांत बहुत स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं। उपयुक्त होगा कि नवरात्र के इस पावन पर्व पर इस पर थोड़ा विचार कर लिया जाए। हमारे ऋषि-मुनियों ने सबसे पहले पंच-महाभूत (अग्नि, पृथ्वी, जल, आकाश एवं वायु) के रूप में देवों की कल्पना की। बाद में जब उनका ध्यान विशेष रूप से पृथ्वी से उत्पन्न अनाज एवं फलों वाले वृक्षों पर गया, तब उन्होंने पहली बार ‘जननी’ के अर्थ को महसूस किया होगा। ऋग्वेद में भू-देवी की अवधारणा स्थापित करके स्पष्ट रूप से घोषणा की गई कि ‘माता पृथ्वीव्यां पुत्रोऽहं’ अर्थात ‘पृथ्वी मेरी माता है और मैं इसका पुत्र हूं’। आज भी हमारी परंपरा में ऋग्वेद के इस सूक्त को कई रूपों में लागू किया जा रहा है, जैसे सुबह बिस्तर से उठकर पृथ्वी पर अपने पैर रखने से पहले धरती को प्रणाम करना या घर बनाने से पूर्व भू-पूजन करना। कृषि-काल तक पहुंचते-पहुंचते भारतीय चेतना ने इस बात को अच्छी तरह स्वीकार कर लिया था कि इस पृथ्वी पर जीवन की जो निरंतरता है, वह नारी के कारण ही है। यहीं से नारी-शक्ति के रूप में देवी की कल्पना की जाने लगी। नवदुर्गा की परिकल्पना नारी शक्ति के रूप में सबसे प्राचीन कल्पना है। यहां इस बात को जानना बहुत जरूरी है कि मां दुर्गा की अवधारणा का आधार क्या है? इस मृत्यु-लोक में समय-समय पर आसुरी शक्तियां प्रबल होती रही हैं। इन आसुरी शक्तियों को नष्ट करने में देवता तक स्वयं को असमर्थ पाने लगे थे। चूंकि पृथ्वी पर जीवन की रक्षा के लिए आसुरी शक्तियों का विनाश आवश्यक हो गया था, इसलिए देवताओं ने इसका एक उपाय निकाला। सभी देवता एक स्थान पर एकत्रित हुए और उन सभी ने अपनी-अपनी सर्वोत्तम शक्तियों को अपने अंदर से निकालकर एक स्थान पर संचित किया। इन सभी देवों की शक्तियों का यह संचयन ही वस्तुत: दुर्गा हैं। इस घटना से इस बात का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि हमारे यहां शक्ति के सर्वोत्तम रूप में नारी की परिकल्पना की गई है। इसी से जुड़ी एक अन्य घटना अर्द्ध-नारीश्वर के रूप में मौजूद है। अर्द्ध यानी कि आधा, नारी यानी कि स्त्री और ईश्वर यानी भगवान। अर्द्ध-नारीश्वर के रूप में भगवान शिव माने गये, जिनका आधा शरीर पार्वती का है। भगवान शिव के इस रूप की व्याख्या भाषा वैज्ञानिक एक अलग रूप में भी करते हैं, जो मूल रूप से इसी अवधारणा को पुष्ट करता है। इनका मानना है कि यदि ‘शिव’ शब्द से ‘इ’ की मात्रा हटा दी जाए, तो जो शब्द बनेगा, वह होगा ‘शव’। हिंदी व्याकरण में ‘इ’ की मात्रा स्त्रीलिंग के रूप में प्रयोग में लाई जाती है। इसका अर्थ यह हुआ कि बिना स्त्री के शिव का अस्तित्व शव के समान हो जाता है। नारी शक्ति से जुड़ने के बाद यही शव, शिव के रूप में प्रबल हो उठता है। भारत ने हमेशा नारी को जीवन की संपूर्णता के एक अंग के रूप में देखा है। भारतीय दर्शन में दो शब्द बहुत प्रमुखता से मिलते हैं-पुरुष और प्रकृति। यहां पुरुष का अर्थ स्पष्ट है। प्रकृति शब्द का संबंध नारी-शक्ति से है। यह बात बहुत स्पष्ट रूप से कही गई है और वैज्ञानिक रूप से पूरी तरह सत्य भी है कि पुरुष और नारी से ही जीवन का सृजन संभव है, साथ ही जीवन का संतुलन भी। भारत में जिस आध्यात्मिकता की बात की जाती है, उसका रहस्य इस संतुलन में ही है। फिर चाहे वह बाहरी संतुलन हो या फिर अंदर का संतुलन। यहां भाषा विज्ञान की दृष्टि से एक अन्य सुंदर स्थापना देखने को मिलती है, जिसे हम संतुलन के संदर्भ में देख सकते हैं। ‘युद्ध’ शब्द पुंल्लिंग है, लेकिन इसका चरम विपरीत शब्द ‘शांति’ स्त्रीलिंग है। ठीक इसी प्रकार ‘क्रोध’ शब्द पुंल्लिंग है, जबकि ‘करुणा’ शब्द स्त्रीलिंग है। इन परस्पर विपरीत भावों के संतुलन में ही आध्यात्मिकता का रहस्य निहित है। स्पष्ट है कि देवी संबंधी अवधारणा के बिना यह संतुलन संभव नहीं है। कभी-कभी यह सोचकर मन आश्चर्य से भर उठता है कि हमारे पूर्वजों ने दुर्गा मां में जहां एक ओर करुणा और पोषण संबंधी मातृत्व की भावना का चरम देखा, वहीं दूसरी ओर विनाश करने की उनकी शक्ति से परहेज नहीं किया। नवदुर्गा मूलत: मां दुर्गा के ही विभिन्न रूप हैं और इन विभिन्न रूपों को हम ऊर्जा की भिन्न-भिन्न अवधारणाएं कह सकते हैं। महिषासुर का वध कर पाना जब देवों के लिए संभव नहीं हो पाया था, तब उन्होंने शक्ति की आराधना की थी और मां दुर्गा ने ही महिषासुर जैसे राक्षस का वध करके इस पृथ्वी की रक्षा की। अनेक पौराणिक कथाओं में इस तरह की कई घटनाएं पढ़ने को मिलती हैं। रक्तबीज नामक राक्षस को नष्ट करने के लिए यही नारी शक्ति खप्परधारिणी का रूप धारण करती है। देवी के रूप में काली मां के स्वरूप से हम सभी अच्छी तरह परिचित हैं। व्यक्तिगत रूप से मैं मां दुर्गा के अंदर शक्ति की इस अवधारणा के बारे में विचार करके आनंदमिश्रित भाव से विस्मित हो उठता हूं। सामान्यतया यही तथ्य स्थापित है कि नारी शारीरिक शक्ति की दृष्टि से पुरुष की अपेक्षा कमजोर होती है, लेकिन भारतीय विचार इसके विपरीत है। इस बारे में मैं एक नवीन वैज्ञानिक तथ्य प्रस्तुत करना चाहूंगा। चार साल पहले अमेरिका के पुरातत्व विभाग ने दक्षिणी अमेरिका महाद्वीप के पेरू में खोदाई की थी। वहां एक स्थान पर लगभग नौ हजार साल पुराने कुछ कंकालों के अवशेष मिले। उन कंकालों के अध्ययन में पाया गया कि उन 27 लोगों में 11 महिलाएं और 16 पुरुष थे। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह थी कि वहां जो वस्तुएं मिलीं, उनसे यह बात पुख्ता तौर पर स्थापित होती है कि ये महिलाएं बाकायदा शिकार करने जाती थीं यानी शारीरिक रूप से भी नारियों को कमजोर ठहराना जैविक दृष्टि से गलत है। वर्तमान इतिहासकार हरारी ने सही कहा है कि नारी का शारीरिक रूप से कमजोर होने का कारण जैविक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक है। हमारे यहां की सांस्कृतिक दृष्टि नारी को शुरू से ही विलक्षण शक्ति से संपन्न मानती रही है। नवदुर्गा के दिनों को ‘नवरात्र’ कहने के पीछे भी यही अवधारणा काम करती है। शक्ति अपने-आपमें रहस्यमयी होती है और रात्र (रात्रि का काल) रहस्य से भरा हुआ होता है। शक्ति की उपासना रात्रि जैसे रहस्यमयी वातावरण में ही संभव है। यही कारण है कि हमारे यहां का तंत्र विज्ञान नारी शक्ति से जुड़ा रहा है और इसके चौंसठ योगी न होकर चौंसठ योगिनियां हुई हैं। निश्चित रूप से हम नारी की इस दैवीय अवधारणा को आत्मसात करके अपने जीवन को आध्यात्मिकता की एक नई ऊंचाई प्रदान कर सकते हैं।

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