आत्मा का दर्पण है गीता, जिसमें हमें दिखता है हमारा वास्तविक रूप
आज की पीढ़ी को समझना होगा कि गीता दर्पण है। श्रीमद्भगवद्गीता रूपी दर्पण में जब आप प्रवेश करेंगे तो आपको अपने दर्शन होंगे। तब आप पहली बार अपने आपको मुखौटे रूपी चेहरे के पीछे के वास्तविक रूप को देख पाते हैं।

वैष्णवाचार्य जय जय श्री अभिषेक गोस्वामी। जब नृत्य किया कृष्ण ने तो वह रास हो गया। जब अर्जुन से संवाद किया तो वह गीता हो गई। आज के परिवेश में जब हम कृष्ण के व्यक्तित्व को सहस्रों वर्ष के अंतराल में देखते हैं, तो कमाल के अनुभव होते हैं। जहां कारागार में जन्म हुआ, मृत्यु मात्र एक बाल रुदन के स्वर पर टिकी थी। वहां से निकल कर प्रथम 11 वर्षों में गाय को चराते-चराते प्रत्येक गोप-गोपी के हृदयासन पर राज करना, मथुरा के अधिपति बनना, द्वारका का राज्य स्थापित करना और द्वारकाधीश होने के बाद स्वयं अर्जुन के रथ का सारथी बनना। यह कहना कि कृष्ण धार्मिक हैं, बड़ा अधूरा लगता है। कृष्ण एक ऐसे सागर हैं, जिनसे हजारों नदियां बहती हैं। कृष्ण कलाकार हैं, कृष्ण नर्तक हैं, कृष्ण संगीतज्ञ हैं, कृष्ण प्रेमी हैं, कृष्ण राजनीतिज्ञ हैं, कृष्ण एक योद्धा हैं, कृष्ण रणनीतिज्ञ हैं, कृष्ण परम ज्ञानी हैं, उसी मायने में कृष्ण धार्मिक भी हैं, क्योंकि आध्यात्म अगर कृष्ण हैं तो यह सारी नदियां उन्हीं से प्रकट हुई हैं।
वसुदेव सुतम देवम कंस चाणूर मर्दनम।
देवकी परमानंदम कृष्णा वंदे जगद्गुरुम।।
कृष्ण को जगद्गुरु इसलिए कहा गया कि उनके मुख से निकला वह ज्ञान एक काल, एक संस्कृति, एक धर्म का ही नहीं, बल्कि आदिकाल, सर्व संस्कृति व सर्व धर्म के लिए दिया गया मानस शास्त्र है। यह हमारे पास श्रीमद्भगवद्गीता के रूप में है। जैसे सूर्य के उदय होने की दिशा तो निर्धारित है, पर उदित होने के बाद उसका प्रकाश सर्वत्र है, ऐसे ही गीता श्रीकृष्ण के मुख से निकली, पर वह हर मनुष्य के मानस की प्यास बुझाने में सक्षम है। यह गोविंद के द्वारा गाया हुआ गीत है। गीता आज के संदर्भ में और भी विशेष हो गई है, क्योंकि हम सदा से समझते आए हैं कि भगवद् अनुग्रह तो केवल उन्हें ही प्राप्त होता है, जो तप, ज्ञान, प्रार्थना में जीते होंगे, विरक्त या भक्त होंगे, पर गीता का उद्गम एक युद्ध के परिदृश्य से हुआ है और आज हम किसी न किसी रूप का युद्ध नित्य लड़ रहे हैं। गीता जितनी पुरानी है, उतनी नई भी है।
इस काल के संदर्भ में गीता जीवंत हो जानी चाहिए। जीवन जीवंत कब होता है? हमारे रवैये से यानी कोई परिस्थिति आ जाए, तो हम उसमें कैसे प्रवेश करते हैं, प्रतिक्रिया से या प्रतिसंवेदना से। इस पर सब कुछ निर्भर करता है। प्रतिक्रिया तब होती है, जब आप खाली होते हैं, अविश्वास में जीते हैं। जब आपका आपके विचार, कर्म, स्वभाव पर कोई नियंत्रण नहीं होता। जब आप जानवर होने के निकट होते हैं। हर समय तमतमाए होते हैं, तब प्रतिक्रिया होती है। गीता की शुरुआत में कृष्ण भीष्म पितामह के शंखनाद का उत्तर देते हैं, पर प्रतिक्रिया से नहीं, अपितु प्रतिसंवेदना से- ठीक है, आप हमें युद्ध के लिए निमंत्रण दे रहे हैं, हम स्वीकार करते हैं। यह स्वीकार क्रोध नहीं, विश्वास है। क्रोध, ईर्ष्या, उत्तेजना नहीं, केवल प्रेमपूर्ण स्वीकार करना ही प्रतिसंवेदना है ।
गीता के द्वितीय अध्याय के सातवें श्लोक में अर्जुन कहते हैं -शाधि मां त्वां प्रपन्नम् (मुझे शिक्षा दीजिए) और कृष्ण के आगे शरणागत होते हैं। कृष्ण सांख्य योग के माध्यम से ज्ञान पथ का मार्ग खोलते हैं। अर्जुन के लिए, शरीर और आत्मा की पृथकता को समझते हैं। भारत में आत्मा की अमरता को मानने वाले तो असंख्य है, पर जानने वाले मुट्ठी भर। आज के संदर्भ में अगर कहें कि जीवन का ध्येय क्या होना चाहिए, तो अगर आप आत्मा की अमरता को जान पाओ (मात्र मानना नहीं) तो यहीं से स्व से सर्व में उतारने का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। आज की पीढ़ी को समझना होगा कि गीता दर्पण है। आप जब इसमें प्रवेश करेंगे, तो आपको आपके दर्शन होंगे। तब आप पहली बार अपने आपको वास्तव में मुखौटे रूपी चेहरे के पीछे के वास्तविक रूप को देख पाते हैं।
18 अध्याय को अगर तीन भागों में बांटें, तो मुख्य रूप से तीन योग मुख्य हैं गीता में। कर्म योग, ज्ञान योग, और भक्ति योग। जब आप स्वार्थरहित कर्म में उतरते हैं, तो आप कर्म योग के पथिक बनते हैं। एक बार तानसेन अकबर के दरबार में गायन कर रहे थे, अकबर भी वाह! वाह! करते नहीं थक रहे थे। जब देर रात हो गई, तो सोने के लिए जाते हुए अकबर ने तानसेन को बुलाया। कहा कि सोच रहा हूं कि तुम से अद्भुत कोई गा नहीं सकता, पर सोचा जिसने तुमको सिखाया होगा, वे कैसा गाते होंगे। तानसेन, जिसने तुम्हें सिखाया, उन्हें बुलाओ। तानसेन ने कहा, महाराज क्षमा करें, असंभव है कि मेरे गुरु आपके लिए गाएं। वे तो केवल गोविंद के लिए ही गाते हैं। हां, आप छिपकर सुनें तो बात अलग है। अकबर तानसेन के साथ वृंदावन आए। पेड़ों की ओट में छिपकर ब्रह्ममुहूर्त में जैसे ही तानसेन के गुरु स्वामी हरिदास जी का अलाप सुना, तो स्तब्ध रह गए। तानसेन से बोले- तुम हो ही क्या, अपने गुरु के सामने। तानसेन ने कहा, मैं इसलिए गाता हूं कि सम्राट वाह-वाह बोलें। मेरे गुरु इसलिए गाते हैं कि कृष्ण के चरणों में स्वर को समर्पित कर दें। बस यही बिना अपेक्षा का (निष्काम) कर्म योग है।
चौथे अध्याय में कृष्ण बताते हैं, कैसे कर्म योग का पथिक ज्ञान के शिखर तक पहुंच सकता है। अध्याय पांच में बताते हैं कि कैसे मार्ग अलग-अलग होते हुए भी अभिव्यक्ति एक जैसी ही होती है। अध्याय छह ध्यान योग के पथ को प्रदर्शित करता है, पर यहां कर्म योग के सिद्धांत का निरूपण ध्यान योग में देखेंगे तो यहां संगम देखने को मिलता है, ज्ञान का, कर्म का और भक्ति का। अध्याय सात में गोविंद अर्जुन को ही नहीं, समस्त जगत का अनावरण करते हैं कि वे कौन हैं? सब में वे और सब उनमें। अहम ब्रह्मास्मि। मैं ब्रह्म हूं। स्थापित होता है। अध्याय आठ में गोविंद ध्यान से मोक्ष प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करते हैं।
जीवन और जगत के इतने सारे आयाम एक साथ समेटने के लिए जिस विराट चेतना की आवश्यकता है। वही कृष्ण चेतना है। इस कृष्ण चेतना को ग्रहण करने के लिए जो समर्पण भाव अपेक्षित है, वह अर्जुन हैं। हम पंडित बनकर केवल इसकी व्याख्या में न उलझे रहें, बल्कि अर्जुन बनकर इसको आत्मा में उतारें। किसी ने इसमें भक्ति योग, किसी ने कर्म योग, किसी ने ज्ञान योग, किसी ने सांख्य योग की तलाश की है। गीता एक महासागर है, इसमें जो भी छलांग लगाएगा, उसे अवश्य कुछ न कुछ तो अवश्य प्राप्त होगा। गीता अमृत है, जिसे आत्मा से पिया जाता है।
यत्र योगेश्वर कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धर:
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवानीतिर्मतिर्मम
इस शाश्वत संवाद में पहला शब्द धर्म है और आख़िरी शब्द मम हैं - मेरा धर्म। गीता आपके धर्म से आपका परिचय करती है और उस पर चलने का मार्ग प्रशस्त करती है।
प्रस्तुति : विनीत मिश्र
वैष्णवाचार्य जय जय श्री अभिषेक गोस्वामी
आध्यात्मिक गुरु, श्रीराधारमण मंदिर, वृंदावन
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