द्वितीय प्रहर का मनोहर राग सारंग, कई फिल्मों के प्रसिद्ध गीतों में भी हुआ है इस राग का प्रयोग
लोकसंगीत में राग सारंग पर आधारित अनेक लोकप्रिय रचनाएं हैं। संगीतायन की अगली कड़ी में पढि़ए राजस्थान में प्रचलित घूमर के बारे में! जिसमें न सिर्फ शास्त्रीय संगीतकारों की रुचि रही है बल्कि फिल्मी संगीतकारों को भी भाता आया है यह राग।

शुभा मुद्गल, दिल्ली।
भारतीय शास्त्रीय संगीत के ऐसे अनेक राग हैं जिनकी प्रस्तुति विशुद्ध शास्त्रोक्त नियमबद्धता का पालन करते हुए भी अत्यंत आकर्षक लगती है और लोक संगीत या फिर फिल्मी संगीत की रचनाओं में भी उतनी ही मनमोहक लगती हैं। ऐसा ही एक राग सारंग के नाम से जाना जाता है, जिसके स्वरों का आनंद संगीत प्रेमी असंख्य रचनाओं में लेते रहे हैं। दिन के द्वितीय प्रहर में गाए जाने वाला यह राग अति प्राचीन है और संगीत विद्यार्थियों व मर्मज्ञों दोनों ही के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण भी, क्योंकि यह एक रागांग राग भी है। इससे पहले कि राग सारंग पर चर्चा हो, बेहतर होगा कि सारंग राग में निबद्ध अथवा सारंग राग पर आधारित कुछ प्रचलित रचनाओं का स्मरण किया जाए जिससे राग स्वरूप हृदय में अवतरित हो जाए।
शास्त्रीय संगीत में रुचि रखने वालों के कानों में तुरंत भारत रत्न पंडित भीमसेन जोशी की राग वृन्दावनी सारंग में गाई त्रिताल में निबद्ध द्रुत रचना 'जाऊं मैं तोपे बलिहारीÓ गूंज उठेगी, तो विद्यार्थियों को 'बन बन ढंूढन जाऊं, कितहुं छिप गये कृष्ण मुरारीÓ का स्मरण अवश्य होगा। फिल्मी संगीत के उपासक चाहें तो नौशाद साहब का 'दिल दिया दर्द लियाÓ फिल्म का गीत 'सावन आये या न आये, जिया जब झूमे सावन है...Ó जिसे मोहम्मद रफी साहब व आशा भोसले जी ने स्वर दिया या फिर गुलजार साहब का लिखा, भारत रत्न लता मंगेशकर जी का गाया 'रुदालीÓ फिल्म का गीत 'झूटी मूटी मितवा आवन बोले...Ó सुन लें। विभिन्न प्रांतों के लोक संगीत में भी ऐसी अनेक रचनाएं मिलती हैं जो राग सारंग पर आधारित हैं। राजस्थान का लोकप्रिय व प्रचलित घूमर गीत 'घूमर रमवा म्हे जास्यांÓ भी इसी राग में है।
शास्त्रीय संगीत के प्रकांड विद्वान, रचनाकार, शास्त्री व मेरे परमपूज्य गुरुवर पंडित रामाश्रय झा 'रामरंगÓ का मत है कि सारंग या वृन्दावनी सारंग दोनों एक ही राग के नाम हैं। उनका मानना है कि काफी राग में गंधार व धैवत वर्जित कर राग वृन्दावनी सारंग बना है। रागांग राग होने के कारण, इसके कुछ ऐसे स्वर समूह हैं जिनसे इस राग की पहचान होती है। ये सारंग/वृन्दावनी सारंग के डीएनए के समान हैं, और इसीलिए जब ये डीएनए स्वर समूह किसी अन्य राग में मिलता है तो स्पष्ट हो जाता कि अमुक राग में सारंग अंग निहित है। उदाहरणार्थ सारंग अंग के कुछ स्वर-चिन्ह कान्हड़ा अंग के अनेक रागों में मिलता है। हवेली संगीत की परंपरा में भी सारंग राग का उल्लेख मिलता है। उष्णकाल के इस अप्रतिम पद का आनंद वर्णन से परे है, स्वयं बांच लें-
बैठे हरि राधा संग, कुंज भवन अपने रंग,
कर मुरली अधर धरे, सारंग मुख गाई।
मोहन अतिही सुजान परम चतुर गुणनिधान
जानबूझ एक तान चूककें बजाई।
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