Ramadan History & Importance: क्यों रखे जाते हैं रोज़े, जानें क्या है रमज़ान का इतिहास...
Ramadan History Importance चांद के हिसाब से गिने जाने वाले इस कैलेंडर में 29 या 30 दिन होते हैं। इस हिसाब से हर साल करीब 10 दिन कम होकर अगला रमज़ान का महीना शुरू होता है।
नई दिल्ली, लाइफस्टाइल डेस्क। Ramadan History & Importance: सस्लामिक कैलेंडर में 9वां महीना रमज़ान का होता है। मुस्लिम समुदाय इस महीने को बेहद पाक मानता है। चांद के हिसाब से गिने जाने वाले इस कैलेंडर में 29 या 30 दिन होते हैं। इस हिसाब से हर साल करीब 10 दिन कम होकर अगला रमज़ान का महीना शुरू होता है। मसलन इस साल 23 अप्रैल को रोज़े शुरू हुए तो 10 दिन कम होने पर 2021 में 13 अप्रैल से यह पाक महीना शुरू हो सकता है। इसी तरह हर साल 10 दिन का फर्क पड़ता है।
इस महीने की ख़ासियत
- महीने भर के रोज़े (उपवास) रखना
- रात में तरावीह की नमाज़ पढ़ना
- क़ुरान तिलावत (पारायण) करना
- एतेकाफ़ बैठना, यानी गांव और लोगों की अभ्युन्नती व कल्याण के लिये अल्लाह से दुआ (प्रार्थना) करते हुवे मौन व्रत रखना
- ज़कात देना
रमज़ान के महीने का इतिहास
इस्लामिक कैलेंडर के मुताबिक सन 2 हिजरी में अल्लाह के हुक्म से मुसलमानों पर रोज़े फर्ज़ यानी ज़रूरी किए गए। इसी महीने में शब-ए-क़दर में अल्लाह ने क़ुरान जैसी नेमत दी। तब से मुस्लमान समुदाय इस महीने में रोज़े रखता आ रहा है।
सहरी, इफ्तार और तरावीह
रमज़ान के दिनों में लोग सुबह-सुबह उठकर सहरी करते हैं। सहरी खाने का वक्त सुबह सूरज निकलने से करीब डेढ़ घंटे पहले का होता है। सहरी खाने के बाद नमाज़ पढ़ी जाती है और इसी के साथ रोज़े की शुरुआत होती है। रोज़ेदार पूरे दिन बिना कुछ खाए और पीए रहता है। शाम को तय वक्त पर इफ्तार कर रोज़ा खोला जाता है।
इसके बाद रात की यानी इशा की नमाज़ (करीब 9 बजे) के बाद तरावीह की नमाज़ अदा की जाती है। इस दौरान मस्जिदों और घरों में क़ुरान पढ़ा जाता है। ये सिलसिला पूरे महीने चलता है। महीने के अंत में यानी 29वे दिन चांद दिखने पर ईद मनाई जाती है। हालांकि, अगर 29वें दिन चांद नहीं दिखता है तो 30 रोज़े पूरे कर अगले दिन ईद का जश्न मनाया जाता है।
रमज़ान का मकसद
रोज़े रखने का मकसद अल्लाह में यकीन को और गहरा करना और लोगों में इबादत का शौक़ पैदा करना है। साथ ही इस महीने सभी तरह के गुनाहों और ग़लत कामों से तौबा की जाती है। इसके अलावा, नेकी का काम करने को प्रेरित करना, लोगों से हमदर्दी रखना और खुद पर नियंत्रण रखने और खुद पर नियंत्रण रखने का जज़्बा पैदा करना है।
दान देना भी है खास
सन 2 हिजरी में ही ज़कात (दान) को भी ज़रूरी बताया गया है। इसके तहत, अगर किसी के पास साल भर उसकी ज़रूरत से अलग साढ़े 52 तोला चांदी या उसके बराबर कैश या कीमती सामान है, तो उसका ढाई फीसदी ज़कात यानी दान के रूप में ग़रीब या ज़रूरतमंद इंसान को दिया जाता है। वहीं, ईद के दिन से ही फितरा यानी दान हर मुस्लमान को अदा करना होता है। इसमें दो किलो 45 ग्राम गेंहू की कीमत तक की रकम गरीबों को दान की जाती है।