रामकथा और राजनीतिक राजघराने को नई शैली से बताती पुस्तकों की समीक्षा
यह ग्रंथ इस मामले में भी अनूठा है कि यहां ढेरों नए रचनाकारों ने कलम चलाई है जिन्हें आप प्रचलित अर्थों में किसी कविता कोश में जल्दी नहीं ढूंढ़ सकते। तो वहीं सिंधिया राजवंश के इतिहास में बीते दौर की निर्णायक तिथियां समझौते कार्यप्रणाली और राज्य प्रबंधन पर चर्चा है।

किताबघर
बाहर भीतर राम हैं, नयन के अभिराम
(यतीन्द्र मिश्र)
भारतीय संस्कृति के मूल में रामायण और महाभारत की कथा सदियों से व्याप्त है। साहित्य और प्रदर्शनकारी कलाओं के समाज में इन दोनों महाकाव्यों का चिरंतन महत्व रहा है, जिसने विपुल सांस्कृतिक लेखन और अभिव्यक्तियों के नए क्षितिज का अपूर्व लोक सृजित किया। ये गौर करने वाली बात है कि रामकथा नित नवीन होती हुई अपने कथ्य को न जाने कितने तरह से व्यक्त करती है। साहित्य की दुनिया में महाकाव्य, गीतिनाट्य, उपन्यास, नाटक, कविता, गीत और नज्में लिखने की जो परंपरा रही, उसमें कुछ ऐसे ग्रंथों का सृजन भी हुआ, जिन्होंने भारत में ही नहीं बल्कि दक्षिण एशियाई देशों समेत भारतवंशी समुदायों में भी कलात्मक निरूपण का एक वैश्विक मंच तैयार किया। इसी कड़ी में हाल ही में दो खंडों में प्रकाशित ‘जन-रामायण’ का सृजन एक स्वागतयोग्य घटना है। नवगीतकार बुद्धिनाथ मिश्र की प्रेरणा से पंकज प्रियम के संपादन में यह कृति अपने आधुनिक कलेवर और सामयिक चिंतन का ऐसा साझा पुल बनाती है, जिसमें रामायण के विविध प्रसंगों, घटनाओं और व्यक्तित्वों के माध्यम से लगभग 100 से अधिक रचनाकारों ने आधुनिक ढंग से गीतिकाव्य, छंद और आधुनिक कविताएं रची हैं। इसमें अलग से महत्वपूर्ण बात यह है कि हर एक प्रसंग से संबंधित एक नई और वैचारिक कविता यहां संजोयी गई है। अलग-अलग प्रांत, देश और भाषा-बोली क्षेत्र के रचनाकारों की लेखनी ने अपनी जमीन की वह देशज महक भी एकत्र की है, जिसका समग्र प्रभाव वैश्विक स्तर पर रामकथा को कविता के माध्यम से उजागर करता है। यह रामायण, किसी भी अर्थ में पूर्व प्रकाशित रामकथा ग्रंथों का पुनर्लेखन नहीं है, न ही यह उनके विचारों की काव्यात्मक टीका ही है.... बल्कि यह आधुनिक भावबोधों से संपन्न उन जिज्ञासु रचनाकारों की रामकथा के प्रति प्रणति सरीखी है, जिनके माध्यम से बहुत सारे पूर्वाग्रहों और आक्षेपों को नए आलोक में पारिभाषित करने की सुचिंतित योजना की गई है।
इन दोनों खंडों के पारायण से यह बात समझ में आती है कि यह किसी एक रचनाकार के विचारों का संधान नहीं है। जब हम ‘कंब रामायण’, भवभूति की ‘उत्तररामचरितम’ या केशव की ‘रामचंद्रिका’ पढ़ते हैं, तो एक विशेष ढंग से उनके काल और परिस्थितियों के माध्यम से श्रीराम के औदात्य का निरूपण देखते हैं। इसी तरह इन प्रसंगों के हवाले से आधुनिक समय में लिखी गई कविताएं, मसलन- भारत भूषण की ‘राम की जलसमाधि’, नरेश मेहता की ‘संशय की एक रात’ और निराला की ‘राम की शक्ति पूजा’ के सम्मोहन में पड़ते हैं, तो यह सुनिश्चित हो जाता है कि लंबे कालप्रवाह के उपरांत भी तार्किक बुद्धि और संवेदनशील मन से रामायण को परखने की परंपरा जारी है। इसी चरण में बहुत समय बाद, अत्यंत परिश्रम और सुरुचिपूर्ण चुनाव के साथ संपादक इस ग्रंथ में कविताओं की एक बड़ी सरणी बनाते हैं। लगता है, जैसे वाल्मीकि, तुलसीदास और कालिदास से लेकर ढेरों संत और निर्गुण कवियों की वाग्धारा को आधुनिक समय भी अपनी खास दृष्टि से देखने का हिमायती है। यह भी रेखांकित करना जरूरी है कि भक्ति और अध्यात्म के ग्रंथों का प्रणयन करते समय एक संतुलित ढंग से पाठ्य सामग्री का चयन करना जोखिम भरा काम होता है। एक झीना सा आवरण है, जिसके दोनों तरफ वैचारिकी और शरणागति के बीच परस्पर संवाद चलता है। इस संवाद को हम जितना मानवीय बना पाते हैं, पौराणिक गाथाओं की संदेशपरक प्रतिश्रुति उतनी ही बेहतर बन जाती है। बुद्धिनाथ मिश्र और पंकज प्रियम ने इस बात का बखूबी ध्यान रखा है कि इन कविताओं, गीतों और छंदों में वह लय, विचार और दृष्टि नैतिक प्रश्नों के समाधान की कुंजी बन सके। इसीलिए ऐसी किताबें, आज के बाजार से संचालित समय में सार्थक हस्तक्षेप की तरह खड़ी नजर आती हैं।
यह ग्रंथ इस मामले में भी अनूठा है कि यहां ढेरों नए रचनाकारों ने कलम चलाई है, जिन्हें आप प्रचलित अर्थों में किसी कविता कोश में जल्दी नहीं ढूंढ़ सकते। कुछ उदाहरणों से यह बात देखनी चाहिए। ‘भरत-यात्रा’ की यह पंक्तियां देखिए- ‘त्यागमूर्ति भरत साथ लिए राज्य समाज/भरत कार्य में आत्मसम्मान में कीर्तिध्वज लगाकर आज।’ इसी तरह ‘खंड-खंड होकर धन बिखरा, श्रीविहीन जो श्रीसंयुत था/अवनीपति गर्व चूर्ण कर, स्वयं मान से अब विरहित था’ (धनुष यज्ञ प्रसंग), ‘बंद हुआ सब गाजा-बाजा, अब नगरी के राम न राजा’ (विदाई प्रसंग), ‘छांड़ि अयोध्या चले जब राम सो, साथ गह्यो सगरी नर-नारी’ (राम वनगमन), ‘नियति भी मुझे खूब छली, हृदय का टुकड़ा छोड़ चली’ (कैकेयी का पश्चाताप), ‘थर-थर कांप उठा सागर और जोड़ लिया अपने हाथ/बिनती कर कहा उसने सब अवगुण क्षमा करो रघुनाथ’ (सेतुबंध).... ऐसे कई मार्मिक प्रसंगों से भरी यह काव्यदीपिका सुग्रीव वैराग्य प्रसंग, शबरी प्रसंग, हनुमान वंदना, राम गुणगान महिमा, युद्ध की तैयारी, कालनेमि रावण संवाद, राम-बारात, दशरथ निधन, सुमंत प्रकरण, राम का शृंगवेरपुर प्रस्थान, स्वयंवर, पुष्पवाटिका प्रसंग, अहिल्या प्रसंग, ताड़का वध, रामजन्म, रावण की तपस्या समेत उन छोटे-छोटे सीमांतों तक भी जाती है, जिसे पढ़ना सुखद और प्रेरणादायी है। यह किताब, हर रामकथा शोधार्थी, विशेषज्ञ और टीकाकार के संग्रह में होनी चाहिए, जो रामायण विमर्श को आधुनिक पाठ की तरह पढ़ना चाहते हैं।
जन रामायण: जनमानस के राम
खंड एक एवं दो
संपादक: पंकज प्रियम
महाकाव्य/कविता/गीतिकाव्य
पहला संस्करण, 2022
साहित्योदय, गिरिडीह, झारखंड
मूल्य: 449 रुपये प्रत्येक
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मयूरपंख
एक राजनीतिक राजघराने की दास्तान
(यतीन्द्र मिश्र)
पत्रकार रशीद किदवई की चर्चित पुस्तक ‘द हाउस आफ सिंधियाज: अ सागा आफ पावर, पालिटिक्स एंड इंट्रीग’ का हिंदी अनुवाद जयजीत अकलेजा ने ‘सिंधिया राजघराना: सत्ता, राजनीति और षडयंत्रों की महागाथा’ के रूप में प्रस्तुत किया है, जिसकी उल्लेखनीय भूमिका राजनीतिक विश्लेषक संकर्षण ठाकुर ने लिखी है। इस राजघराने की कहानी में हर वो दिलचस्प मोड़ आते हैं, जिन्हें हम फिल्मी पटकथा की तरह पढ़ सकते हैं। सिंधिया राजवंश के संक्षिप्त इतिहास में बीते दौर की निर्णायक तिथियां, समझौते, कार्यप्रणाली और राज्य प्रबंधन पर भी चर्चा हुई है, जिसने स्वतंत्र भारत में एक ऐसे परिवार की कहानी गढ़ी, जिसकी कई पीढ़ियां सक्रिय भारतीय राजनीति में मौजूद रही हैं।
राजनीतिक युक्तियों, महल की साजिशों, गलाकाट प्रतिद्वंद्विताओं, सार्वजनिक झगड़ों और संपत्ति को लेकर हुई लड़ाइयों के ब्यौरे पठनीय हैं। हालांकि ऐसी पुस्तकों का मेयार बहुत बड़ा नहीं होता। तात्कालिक समय की मांग और राजघरानों का सच जानने को उत्सुक पाठकों के लिए लिखी जाने वाली इन किताबों का आस्वाद भी उसी तरह लिया जाना चाहिए।
सिंधिया राजघराना
सत्ता, राजनीति और षड्यंत्रों की महागाथा
रशीद किदवई
अनुवाद: जयजीत अकलेचा
कथेतर
पहला संस्करण, 2022
मंजुल पब्लिशिंग हाउस, भोपाल
मूल्य: 399 रुपये
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