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    सेल्फी की दुनिया में कैमरा एंगल से तय होती है इंसान की पहचान, मची रहती है 'क्लिक एंड शेयर' की होड़

    Updated: Tue, 30 Sep 2025 12:41 PM (IST)

    आज के इंसान के लिए सेल्फी लेना सबसे जरूरी काम बन गया है जो उसकी पहचान का असली प्रमाण बन चुका है। सेल्फी की इस होड़ ने मानवता के भविष्य के बारे में सोचने पर मजबूर कर दिया। यहां पढ़िए सेल्फी के बढ़ते शौक पर विवेक रंजन अग्निहोत्री का व्यंग्य...

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    सेल्फी की दुनिया: जहां जिंदगी कम और दिखावा ज्यादा होता है (Image Source: Freepik)

    रंजन अग्निहोत्री, नई दिल्ली। महीनों से मैं अपनी फिल्म ‘द बंगाल फाइल्स’ के प्रचार-प्रसार और प्रदर्शन की तैयारी में देश–विदेश घूम रहा था। पहले भी यह काम किया है, लेकिन इस बार मैंने एक अजीब-सी स्पर्धा देखी, जिसने मुझे मानवता के भविष्य के बारे में सोचने पर मजबूर कर दिया। यह स्पर्धा थी सेल्फी की। लगता है आज का इंसान चाहे कहीं जाए, कुछ भी करे, पर उसके लिए सबसे अहम काम है– सेल्फी लेना। खाना खाने जाए तो प्लेट से पहले कैमरा उठता है। ट्रेन में बैठे हों तो खिड़की से बाहर झांकने से पहले मोबाइल सेट होता है। बादल आए तो क्लिक, बादल गए तो क्लिक। आटो, बस, हवाई जहाज, गाड़ी चलाते, सड़क पर चलते, लिफ्ट में, छत पर, गली में, बाथरूम में, सोते-जागते- कोई जगह ऐसी नहीं बची, जहां लोग सेल्फी न ले रहे हों। आज पहचान का असली प्रमाण आधार कार्ड या पासपोर्ट नहीं, बल्कि सेल्फी है। शादी के बफे की लाइन में भी इंसान फोटो खींचकर सबको बताता है कि देखो, मैं सबसे आगे हूं।

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    इस नशे की कई जातियां और उपजातियां हैं। गुटखा सेल्फी में ठुड्डी बाहर निकली होती है और होंठ ऐसे जैसे पूरे मोहल्ले को किस देने का मन हो। भक्ति सेल्फी में मंदिर में भगवान पीछे रहते हैं और कैमरे में भक्त एचडी क्वालिटी में चमकता है। जिम सेल्फी में पसीना निकलने से पहले ही आईने में पोज बनता है और चाहे मांसपेशियां हों या न हों, फिल्टर जरूरी होता है। हवाई जहाज की सेल्फी में टिकट महंगा हो या उधार का, बादल खिड़की से दिखना अनिवार्य है। पार्टी सेल्फी में प्लेट और गिलास खाली होते हैं, लेकिन मुस्कान ऐसी रहती है जैसे होटल उसी का हो। बाथरूम और लिफ्ट सेल्फी तो एक अलग ही संसार है- जहां शावर पर्दा और स्टील की दीवारें किसी पांच सितारा लोकेशन से कम नहीं लगतीं।

    सेल्फी लेने वाले अकेले नहीं रहते। उनके पूरे समाज बन चुके हैं। अनिवार्य समूह वह है जहां हर मुलाकात का नतीजा सामूहिक सेल्फी होता है। आप चाय पीने भी गए हों तो बिना फोटोशूट विदाई अधूरी है। सेल्फी संघ में वे लोग हैं, जो सड़क पर ट्रैफिक रोककर फोटो का एंगल सही करने लगते हैं। सेल्फी संन्यासी हर जगह फोटो लेते हैं, लेकिन अपलोड कभी नहीं करते, मानो किसी गुप्त शोध पर काम कर रहे हों। सेल्फी संत दूसरों की हर फोटो में घुस आते हैं और सेल्फी महर्षि वह हैं जिनकी डिग्री है पीएचडी इन एंगल्स- हर वक्त प्रवचन कि रोशनी किधर से अच्छी आ रही है और मोबाइल कितने डिग्री पर होना चाहिए।

    यह सिर्फ व्यक्तिगत सनक भर नहीं है। सेल्फी अब राजनीति और व्यापार का औजार बन चुकी है। सरकारें और नेता चाहते हैं कि जनता उनके साथ मुस्कुराए। इसीलिए हर कुछ दिनों में नया अभियान आता है- ‘सेल्फी विद डाटर’, ‘सेल्फी विद तिरंगा’। मगर कोई सरकार यह साहस नहीं दिखाती कि ‘सेल्फी विद कूड़ादान’ या ‘सेल्फी विद सड़क के गड्ढे’ चलाए। वोट मांगने से पहले भीड़ से यह कहना आम हो चुका है- पहले एक फोटो हो जाए। यहां तक कि बेईमान नेता को ईमानदार नेता में बदलने का सबसे आसान उपाय अब यही रह गया है कि वह सरकार के किसी बड़े नेता के साथ एक सेल्फी खींच ले।

    हर शहर में अब ‘सेल्फी प्वाइंट’ बनाए जा रहे हैं। पहले जहां ‘सूर्यास्त स्थल’ हुआ करता था, वहां अब बोर्ड लगा है-‘सेल्फी प्वाइंट: क्लिक एंड शेयर।’ मंदिर, घाट, किला, संग्रहालय, सब केवल पृष्ठभूमि भर रह गए हैं। असली नायक सेल्फी लेने वाला है। शापिंग माल और रेस्त्रां ने भी सेल्फी कार्नर खोल लिए हैं। खाना कितना स्वादिष्ट है, यह बाद की बात है, सबसे जरूरी है कि रोशनी और बैकग्राउंड इंस्टाग्राम योग्य हो। कंपनियां जानती हैं कि अब ग्राहक टेस्टीमोनियल नहीं देता, बल्कि इंस्टा स्टोरी डालता है और हर स्टोरी उनके लिए मुफ्त का विज्ञापन है।

    जिंदगी और मौत दोनों पर अब सेल्फी का कब्जा है। बच्चा जन्म ले तो डाक्टर को धन्यवाद देने से पहले मोबाइल चमकता है। अस्पताल के वार्ड में कोई जीवन के लिए संघर्ष कर रहा हो तो भी फ्लैश जरूर जल रही होती है। मौत के बाद भीड़ कम हो सकती है, लेकिन श्रद्धांजलि सेल्फी पक्की है। यहां तक कि चिता के पास भी कैमरा मौजूद है। सच तो यह है कि किसी को आपके सुख-दुख से लेना-देना नहीं, सबको बस यह देखना है कि हम वहां थे और हमने क्लिक किया।

    सूरज रोज एक वक्त के बाद बादलों के पीछे छिप जाता है, लेकिन सेल्फी नया सूर्य है। यह कभी अस्त नहीं होता। दिन–रात, उजाला–अंधेरा, अस्पताल–अड्डा, मंदिर–शापिंग माल हर जगह यह चमकता रहता है। हिंदू परंपरा में दृश्य, दर्शक और दृष्टा का बड़ा सुंदर विचार है। जब यह तीनों एक हो जाएं तो सत्य प्रकट होता है, वहीं परमात्मा हैं, लेकिन आज का इंसान इस त्रिकोण को भी उलट चुका है। दर्शक ही दृश्य है और जब वह इंस्टाग्राम या व्हाट्सएप पर स्क्राल करता है तो दृष्टा भी वही है। यानी अब आदमी खुद ही तीनों है- दिखा भी वही रहा है, देख भी वही रहा है और देखने वाला भी वही है। तो क्या हम सचमुच भगवान हो गए हैं? शायद, लेकिन यह ईश्वरत्व सत्य, सौंदर्य और करुणा का नहीं, बल्कि कैमरा एंगल, फिल्टर और हैशटैग का है। हम ‘सेल्फी भगवान’ हैं- जहां जिंदगी कम और सेल्फी ज्यादा जी जाती है।

    (राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित फिल्मकार एवं बेस्टसेलिंग लेखक)

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