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    जायके की जुबान और तहजीब की पहचान है लखनऊ, यहां नजाकत नमक बन जाती है और मोहब्बत मसाला

    Updated: Sat, 15 Nov 2025 02:54 PM (IST)

    मिशेलिन शेफ सुबीर सरन के अनुसार, यूनेस्को द्वारा लखनऊ को 'क्रिएटिव सिटी ऑफ गैस्ट्रोनॉमी' का दर्जा मिलना, शहर की तहजीब और पाक-कला का सम्मान है। लखनऊ सिर्फ एक शहर नहीं, बल्कि एक एहसास है, जहां हर रसोई से उठती खुशबू में मोहब्बत बसी है। यहा की गलियों में इतिहास और नवाबी दौर की यादें जिंदा हैं, और हर व्यंजन एक कहानी कहता है। लखनऊ का खाना धीमी आंच पर पके इश्क की तरह है, जहां स्वाद और दुआ एक साथ मिलते हैं।

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    जायकों का शहर और तहजीब का गहना है लखनऊ

    सुबीर सरन, मिशेलिन शेफ। कभी किसी ने कहा था- “लखनऊ बोलता नहीं, मुस्कुराता है।” वही मुस्कान अब पूरी दुनिया के नक्शे पर चमक रही है, क्योंकि यूनेस्को ने लखनऊ को क्रिएटिव सिटी ऑफ गैस्ट्रोनामी का दर्जा दिया है। ये सम्मान सिर्फ एक शहर को नहीं, एक एहसास को मिला है उस तहजीब, उस नफासत और उस पाक-कला को, जो हर रसोई से उठती खुशबू में बसती है। मेरी दादी- पिताजी की अम्मा-कुर्वार की रियासत से थीं, जो लखनऊ के आसपास का इलाका था। 

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    बचपन में जब उनकी यादों में डूबता था, तो उनके लफ्जों से पूरा लखनऊ महक उठता था- नीम की छांव में छनती धूप, इमली की चटनी में डूबे आलू टिक्के, और गलियों में गूंजते ‘भैया, जरा तीखा बनाना!’ के स्वर। दादी के कई भाई-बहन लखनऊ में बसे। उनके घरों में अतर की महक, पान की डिब्बियां और चांदी की कटोरियों में रखे जर्दे की मिठास थी। वही मीठी तहजीब आज भी लखनऊ के हर नुक्कड़ पर जिंदा है।

    लखनऊ मेरे लिए सिर्फ एक शहर नहीं, एक एहसास है। मेरे दोस्त नुसरत दुर्रानी के घर पर जो चाट और सब्जी वाली बिरयानी खाई, उसका जिक्र करते ही ज़ुबान फिर से जाग उठती है। आलू टिक्की! ओफ्फ- क्या जादू है उस सादे से व्यंजन में! आलू, मटर, मसाले और घी- मगर जब लखनऊ के हाथों से बने, तो वो कविता बन जाते हैं। जैसे किसी उर्दू शेर में छिपी मिठास, जो हर कौर में खुल जाती है।

    लखनऊ की गलियां खाने की किताब हैं। अमीनाबाद से चौक तक, हर नुक्कड़ एक नज्म है, हर ठेला एक शेर। रहमतुल्लाह की कबाब की दुकानों में इतिहास सुलगता है, और टुंडे कबाबी के तवे पर सदियों की महक नाचती है। रूमी दरवाजा से गुजरते वक्त, हवा में सिर्फ वास्तु नहीं, बकरखानी की महक घुली होती है। और फिर वो लोग- खानसामा, जो नवाबी दौर के शायरों जैसे थे। 

    हर पकवान उनका मतला, हर दावत उनका दीवान। मैंने कई बार आस्करी और रूपा कुकरेजा के साथ सनअत कड़ा टूर किया है। उनके साथ लखनऊ को देखना, मानो किसी इत्र की शीशी खोल देना। हर महक नई कहानी सुनाती है। मैंने अपनी मेहमान एना डे को भी वही दौरा कराया- वो बोली, “This was not a tour, this was a poem you could taste.” सच है, लखनऊ देखा नहीं जा सकता, उसे महसूस किया जाता है।

    लखनऊ की गलियों में चलते हुए मुझे अपनी मां की बहन- अरुणा मासी- याद आती हैं, जो वहीं जन्मीं। अब वो इस दुनिया में नहीं हैं, मगर उनके जिक्र से हर बार शीर खुरमा की मिठास और कुल्फी फलूदा की ठंडक साथ चली आती है। लखनऊ मेरे परिवार की धड़कनों में है, मेरे शब्दों में उसकी छांव है। और यूनेस्को का ये सम्मान जैसे उस धड़कन की गूंज है- कि दुनिया अब समझे, भारतीय खाना सिर्फ मसालों का शोर नहीं, बल्कि मोहब्बत की ज़ुबान है।

    लखनऊ का खाना सिखाता है कि धीमे पकाना ही असली इश्क़ है। दम में सब्र है, सब्र में स्वाद, और स्वाद में दुआ। लखनऊ की बिरयानी तो जैसे शायराना बयान है — दाने-दाने में दिल की धड़कन। कहीं इत्र की नर्मी, कहीं इलायची की झलक, कहीं गुलाब के पानी का गुनगुनाता एहसास। जब उसी शहर में मलाई पान की मीठी ठंडक या निमिष की हल्की हवा-सी मिठास ज़ुबान को छूती है, तो लगता है जैसे आसमान से बरसती दुआओं को चखा जा रहा हो। कोफ्ते, कोरमे और शीरमल के साथ-साथ यहाँ कढ़ी, अरवी, लौकी, और चने की दाल भी उतनी ही अदबी होती है- क्योंकि लखनऊ का असल जायका शाकाहार और मांसाहार दोनों में बराबर बसता है। यहां घी, गजल, और गरमागरम गप्पें एक साथ परोसी जाती हैं।

    मिठाइयों की बात करें तो रबड़ी, मलाई, पेड़ा, गुलकंद, सफेद गाजर का हलवा, और खस्ता गुजिया- सब एक ही मिसरे के अलग-अलग काफिये लगते हैं। हर मिठाई में मोहब्बत की नमी है और हर स्वाद में सदीयों की सादगी।

    यही तो है गंगा-जमुनी तहजीब- जहां गंगा की मिठास और जमुना की गहराई मिलकर एक नया रंग रचती हैं। यहां मंदिर की घंटियों में भी इबादत है, और मस्जिद की अजान में भी अमन। यहां के कारीगर, कव्वाल, चित्रकार, बावर्ची- सब एक ही सुर में गाते हैं: मोहब्बत सबसे बड़ी रसोई है। लखनऊ की यही रूह है- जहां दिल, दावत और दरबार एक साथ सजते हैं।

    जब मैं लखनऊ की किसी शाम को याद करता हूं, तो देखता हूं छतों पर पतंगें, हवाओं में गजलें, और चौक के बाज़ार में गरम तेल में छनती टिक्कियों का नूर। यह शहर हमें याद दिलाता है कि खाना सिर्फ पेट के लिए नहीं, दिल के लिए भी बनता है। यहां हर नफीस शेर, हर नर्म कबाब, हर अदब से बोले अल्फाज- सब एक ही तहजीब के हिस्से हैं।लखनऊ अब यूनेस्को की सूची में है, मगर असल में वो हमेशा से हमारी रूह की सूची में था। क्योंकि जहाँ खाना, शेरो-शायरी और मोहब्बत एक साथ पकते हों- वो शहर दुनिया के नक्शे पर नहीं, दिल के नक्शे पर दर्ज होता है।

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